काव्य-राम नारायण मीणा ‘मित्र’

मातृत्व का अधिकार

यूं तो आज भी हम
भारतीय संस्कृति का बिम्ब
मातृत्व के
आइने में खोजते हैं ।
शिरोमणि उक्ति
‘यत्र नार्येस्तु पूजयन्ते,
रमन्ते तत्र देवता’
के नाम पर दम भरते हैं ।
मूल्यों की अरथी सजाकर
मेरे घर से जनाज़ा निकला है,
आदर्शों के होली दहन में
हाथ न ताप
कल तुम्हारे शहर की बारी है,
मोहल्ले में भीड़ जुटी है
सरेआम
किसी औरत की अस्मत लूटी है,
मन्त्री जी ने उद्घोष किया
राजकोष से सहायता राशि दी जायेगी,
मात्र तुम ही नहीं हो
उजले चांद का भी तो मुंह काला ही है ।
राजधानी के राजमार्गों पर
गांव की वक्र पगडंडियों पर
राजमहलों के झरोखों से
तृणधारित आवासों तक
सर्वत्र
कानों में
खौलता शीशा घोलता सा
देहोपासक
महादानव के उच्च अट्टहास से
लाखों भय-भासित
पीत बदन ‘निर्भया’(बालायें)
अपने तन रक्षण की सोच में विकल है।
सड़कों-गलियों में
नारी देह की सुवास से आसक्त
घ्राणशक्ति सम्पन्न
अनेक उन्नत नासिकाएं
एक ही लिबास में
चमचमाते कठोर जूतों की
भयावह खट-खट से
क्रमिक कदमताल करती है
मानव बस्तियों को घूरती
कामित बाज-दृष्टि
तीखे-पैंने
नाखूनी पंजों में दबोचकर,
गदराये तिरिया तन से
गहगहाती मादकता की
निश्शेष बूंद को भी
पी जाने की लालसा में
सतत् मण्डराती है ।
सत्ता की नाक की परछायी में
निश्चिन्त
जरा ओझल का ढोंग करती हुई सी
अंगारे उगलती
तप्त लाल आंखों वाली
रक्तलिप्त
मुड़ी हुई नुकीली गिद्ध चोंच
उनके अस्तित्व को निगलने की ताक में
मोर्चा थामें हैं ।
रे अबला !
युग-युग से निर्हित निस्वार्थ
स्वबल का दान कर ममत्व से
पौरूषता की नींव सांचती रही,
छल-छद्म के कलेवर धारे
मातृजाति, मातृसंतति,
मातृभाषा मातृभूमि से
निरा सम्बोधन पर
गर्व करती रही ।
जो घुल जाती संवेदना
संज्ञाशून्य
अन्ध-बधिर पौरूषता की,
आत्म अस्तित्व स्थापन की
पीड़ा से छटपटाती जननी के
तन्य जबड़े को बलात् खोलकर
फूटते दारूण चीत्कार में,
यों न होता गर्दीला
सिरमौर संस्कृति का
अभिनव चित्र चटकीला,
न होते हम
मात् सम्मुख
निस्तेज औ निर्दम
प्रबल होता जो
मातृत्व के उपकार में
पौरूष का प्रतिकार ।
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रामनारायन मीना ‘मित्र’

ग्राम व पोस्ट-कांट, वाया-अचरोल
तहसील-आमेर
जिला-जयपुर
पिन-303002 राज.
मो.-08800994228