लघुकथा-शिशिर द्विवेदी

इज्जत

प्रदेश की राजधानी लखनऊ। अभी कल ही एक राजनैतिक दल ने एक महारैली का आयोजन कर अन्य दलों को उनकी औकात बताई थी। प्रान्त के कोने-कोने से बसों में भर-भर लोगों का हुजूम लाया गया था। सारा शहर इस भीड़ में जकड़ उठा था। सारी व्यवस्था चरमरा कर टूट गयी थी। पुलिस महकमे की सारी लाचारी उनके अफसरों के चेहरों पर चुहचुहा आयी थी। आज शहर शान्त है। रोजमर्रा का जीवन पूर्ववत् चल रहा है। विभिन्न कोनों से आयी बसें अपनी भीड़ लेकर जा चुकी है।
बादशाह नगर स्टेशन के बाहर मैंने उसे देखा – निरीह चेहरा, दो-तीन दिन की बढ़ी दाढ़ी, मटमैली धोती, कुर्ता, पैरों में प्लास्टिक की चप्पल। चेहरा बता रहा था कि दो दिन से उसके हलक से नीचे कुछ नहीं गया था।
पूछने पर पता चला कि उसे महारैली में गोरखपुर में लाया गया है। लखनऊ टहलाने और सौ रूपये प्रतिदिन का वादा किया गया था। भीड़-भड़क्के में वह अपने दल से बिछड़ गया है। जेब में एक पैसा नहीं, गोरखपुर कैसे जाए?
‘रेल से चले जाओ भाई।’ मेरा सुझाव था।
‘बिना टिकट जाने की हिम्मत नहीं है। पकड़े गये तो सारी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी। परिवारदार किसान आदमी हूं।’ उसका उत्तर था।
चाहकर भी उसकी मदद करने की स्थिति में मैं नहीं था। उसके ‘इज्जत’ शब्द पर भीतर ही भीतर हंसी आ रही थी। इन आदमियों के पास ‘इज्जत’ के अलावा और है ही क्या? इसे लखनऊ लाकर भीड़ का हिस्सा बनाकर किसी नेता ने तो अपनी इज्जत बढ़ा ली और इस महानगर में उसकी इज्जत तार-तार कर दी। आज की इस गलाकाट राजनीति में अपनी इज्ज़त बचाने के लिए दूसरे की इज्ज़त नीलाम करना जरूरी है।
वह सर झुकाए हौले-हौले दूसरी दिशा में चला जा रहा था। ऐसा ही एक चित्र ‘अपना-अपना भाग्य’ में जैनेन्द्र कुमार ने खींचा था। सम्भव है किसी दिन इसकी लाश भी इस महानगर की किसी सड़क पर लावारिस पाई जाय।

शिशिर द्विवेदी
उपसंपादक
मीडिया विमर्श
बस्ती उत्तरप्रदेश
मो.-09451670475