सुधा वर्मा की कहानी-जल का कोप

 जल का कोप
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जीवनदायनी जल भी कोप कर सकता है, मेरी समझ के बाहर था, पर मैंने इसे करीब से देखा था। करीम कह रहा था कि पाप से भरा घड़ा तो फूटेगा ही। रेवा कहता है -क्यों जल ने तांडव किया? रमन कहता है-इसी तरह प्रकृति हमें सबक देती है। अब नया जीवन शुरू होगा। सुखरु अपने टूटे घर की छानहीं पर बैठा एक टक सबको देख रहा था। वो सोचता है कि मैंने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा था। रोज नहाकर
शंकर जी में जल चढ़ाता था फिर मेरा ही घर क्यों गिरा? मेरा पूरा परिवार बह गया। बेटा-बहू पत्नी, नाती, तीन गाय, दो बकरी किसी का पता नहीं। उसे कौन समझाए कि उसका घर मिट्टी का था सो घुल कर गिर गया और बाकि सब मकान ईंटों से बने मजबूत थे इसलिए नहीं गिरे। घर की गिरी छत पर बैठा अपने परिवार का इंतज़ार करता सुखरु, दो दिन से खाना भी नहीं खाया था ।
शांत हुआ जल प्लावन, अपनी विनाश लीला दिखा चुका था। उसके अवशेष ही उसकी दास्तान सुना रहे थे। खेतों पर मिट्टी जमी थी। कई गांवों की फसल बह चुकी ।। छह-सात फीट ऊंचाई पर पेड़ों पर कचरा फंसा था। कहीं कपड़ें तो कहीं पर प्लास्टिक के डिब्बे पड़े थे। सैकड़ों लोग स्कूल में रुके थे। जिनके घर थोड़े-बहुत सही सलामत थे, वहीं लोग लौटने लगे थे। कुछ घरों में चूल्हे भी जलने लगे थे।
सुखरु तो कोई मदद लेने को तैयार नहीं था। उसने स्कूल में बने खाने को भी नहीं स्वीकारा। हैलीकॉप्टर से गिराए गए पैकेट सामने ही पड़े थे। सुखरु ने उन्हें हाथ भी नहीं लगाया। खपरे में बैठा सुखरु याद कर रहा था अपने बेटे की बात कि ‘बाबा दस हजार रखा हूँ। पिछले साल की फसल की कमाई । इस साल अगर फसल अच्छी हुई तो दो पक्के कमरे बनवा लेंगे। बल्ब लगवा लेंगे तो बच्चों की पढ़ाई में आराम हो जायेगा। मैं पढ़ाऊँगा उन्हें।’ भागो-भागो बांध टूट गया है!! पानी हमारे गांव तक आ गया है,सुनकर सुखरू का बेटा पेटी से दस हजार निकाल कर, उसके साल भर के पसीने की कमाई, पेट में गमछे से बांध कर भाग गया। सुखरू को घर का मोह जो था, वह छानही में चढ़ गया। बेटे के पीछे सभी चले गये, पर पानी तो मौत बनकर उनके पीछे आ गयी और सबकुछ बहाकर ले गई। अपनी आँखों से बेटे-बहू, नाती को बहते देखता रहा। इससे भी बुरा हाल चंदू का था, जो भैंस चराने गया था और खड़पड़िया बांध पर एक फीट की दरार देखा और दहशत में आ गया। उसने  किसी सायकल वाले से गांव वालों को चेतावनी देने को कहा। उसके जाते ही वह बांध के किनारे एक पेड़ पर चढ़ गया। उसी समय बांध ग्यारह मीटर चौड़ाई से फूट गया और पानी अपने साथ मिट्टी बहा ले गयी और कई मीलों तक खेतों में फैल गयी। चंदू की सारी भैसें उस पानी में बह गई।
चंदू ही अकेला इंसान था, जिसने पेड़ पर बैठकर इस जल प्लावन की विनाश लीला देखी थी। दो घंटे पेड़ पर बैठे पानी की तेज आवाज से उसके कान सुन्न हो गए थे। आँखें पथरा गयी थी। पानी की आवाज बंद होने पर उसने देखा कि खड़पड़िया बांध खाली हो चुका था। वहां सिर्फ कीचड़ ही बचा था और उसके सामने चारों तरफ पानी ही पानी था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कहाँ जाए! उसका गांव बह चुका था। सभी भैसें मरी पड़ी थी। नीचे उतरकर धीरे-धीरे वह अपने उजड़े गाँव की ओर गया जहाँ कोई नहीं था। दोपहर तक वह चलता ही रहा और सुखरू के गांव में आकर बैठ गया।
पुलिस और अन्य मददगार चंदू से उसका पता पूछते पर वह चुप बैठा रहता। कुछ लोगों की रोने की आवाज सुनकर वह चिल्ला उठता-‘भागो भागो बांध फूट गया।’ वह पेड़ पर चढ़ जाता। लोग उसे उतारते और प्यार से समझाते पर वह नहीं समझता और दौड़ने लगता। सुखरू को अपने छानही में बैठे देखता तो वहाँ चढ़ जाता और कहता-‘ भाई नीचे मत उतरना। बांध का पानी इधर आने वाला है। तुम डूब जाओगे।’
चंदू की बातें सुनकर सुखरू जैसे सोते से जाग उठता। उसे अपना बेटा याद आ जाता। चंदू भी तो उसके बेटे की उम्र का था। शायद यह मुझसे भी दुखी है ऐसा सोच सुखरू उसे गले से लगा लेता। चंदू भी जोर से रोने लगता। प्यार और अपनापन मिलते ही उसे सब याद आने लगता। वह चिल्ला उठता- बाबा! बाबा!! मेरे सामने सब बह गया। मैंने पेड़ पर चढ़े- चढ़े सारे गांव को बहते देखा। क्यों हुआ यह? इस जीवनदायनी बांध के जल जिसे हम पूजते हैं। उसने इतना विनाश क्यों किया? हमसे क्या गलती हो गयी कि उसने इतना तांडव मचाया?
सुखरू, चंदू को गले से लगाता है। उसकी आँखों में आंसू आ जाते है। वह उसके सर पर हाथ फेरकर कहता है- ‘बेटा गलती तो हमसे जरुर हुई है। जल, अग्निका कोप तो हमारी गलती से ही होता है। एक बच्चे को पालने में हम जिस तरफ़ उसे छूट देते हैं। वह उसी तरफ बढ़ता है। वैसे ही जल को बांधने में हमसे गलती हो गई। पकड़ जहाँ कमजोर थी वहीं से टूट गया तब उसे कैसे रोकें? उसकी दिशा ही बदल गई। गलती तो हमारी ही है। उसे देखना हम सबकी जिम्मेदारी थी। जल ने जीवन दिया। वही हमारा पालनहार है। उसे संभालना हमारा कर्तव्य है और हम अपने कर्तव्य से चूक गये।  उसी की यह सजा है। जल का कोप सही है। उसी ने हमें यह सजा दी है। हमने उसकी सही परवरिश नहीं की उसकी रक्षा नहीं की, सही दिशा नहीं दी, तो उसने अपना कोप दिखा दिया। आओ चलें! तुम मेरे साथ रहना ! हम अपना घर एक बार फिर बनाये़गे जहाँ प्यार होगा।
चारों तरफ गाँव के लोग खड़े थे। शाम होने वाली थी। एक छोटी से बच्ची पत्तल में चावल लेकर आयी और बोली- बाबा तुमने दो दिन से नहीं खाया है। ये लो खाना! मामा तुम खाना खाओगे? चंदू उठकर उस बच्ची को पुचकारता है और कहता है – “बेटा मैं भी दो दिन से नहीं खाया हूँ। आओ ! हम सब खायेंगे।’ सुखरू कहता है- ‘चलो ! तुम्हारी माँ के पास चलते हैं! क्या नाम है तुम्हारा?” रजिया !! कहकर वो दोनों हाथ ऊपर कर कहती है- ‘मेरे अब्बा तो ऊपर चले गये। मैं स्कूल में रहती हूँ। वहाँ बहुत सारे मामा मुझे खाना देते हैं।’ सुखरू और चंदू उसे गोद में लेकर प्यार करते हैं।
सुखरू कहता है- ‘देखो! मैं तुम्हारा दादा और चंदू कहता है- ‘मैं तुम्हारा मामा!’ रजिया खुश हो जाती है और कहती है- ‘चलो! अब हम लोग नया घर बनाएंगे। जल ने कोप क्यों दिखाया इसका उत्तर मुझे मिल गया।’ दो दिन के उथल पुथल पर विराम लग चुका था। यह कोप सही था। उसने एकता और प्यार का सबक दिया जिसे हम भूल चुके थे। जल ही जीवन है। इसी जल ने इतनी विनाश लीला के बाद फिर से नया जीवन दिया।
सुधा वर्मा,
रायपुर, छत्तीसगढ़
94063 51566
13 अगस्त 2010 दैनिक भास्कर में प्रकाशित