सुरेन्द्र रावल की कविता

वह वृक्ष

वह वृक्ष,
जिसमें बनाए थे
पंछियों ने घोंसले,
वह वृक्ष,
अब बदल गया है।
वह पहले सा नहीं रहा।
उसकी छाया में अब,
धूप लगती है।
उसकी पत्तियां, शाखाएं,
अब रक्षा नहीं करतीं।
घुस आती है, बाज वक्त,
घोंसलों में,
और झांक लेती हैं
उसकी आबरू।
वे हवाएं,
जो पत्तों
और शाखाओं के बीच से
निकलकर बन जाती थीं-
शीतल बयार,
और करते हुए मर्मर ध्वनि,
लोरियां गाती थीं,
दुलराती थीं।
अब, उनकी आवाज में-
आ गई है कर्कशता।
अब वे दुलराती नहीं,
डांटती हैं।
अब, बहुत देर से ही सही,
ज्ञात हो गया है मुझे,
कि सुरक्षित नहीं थे।
कभी भी-
इन पंछियों के घांंसले।
उन्हें सिर्फ खुशफहमी थी-
अपने सुरक्षित होने की।
इन तूफानी हवाओं में बैठे पंछियों के बच्चे
रोते हैं, कलपते हैं, डरते हैं।
उनकी मांएं भी सोचती हैं-
मुसीबत में डाल दिया हमने
अपने बच्चों को।
इससे तो अच्छा था-
वह छोटा सा घर,
जिसके झरोखों
और रोशनदानों में,
खेल-खेल में ही
बंध जाते थे नीड़।
वह वृक्ष अब,
वैसा वृक्ष नहीं रह गया है,
जैसा पहले था।
बहुत बदल गया है-
वह वृक्ष।

 

वीरानियां

स्वर्ण लूटा क्षितिज का, डाकू तिमिर ने।
रंग बदला गिरगिटी आकाश का भी।
इंद्रधनुषी सांझ तम में खो गई है,
अब भरोसा टूटता है, सांस का भी।।

खो रही श्रद्धा, बिखरती आस्थाएं।
मर चुकी इन्सानियत, रोती वफाएं।
कौन, किस पर, क्यों करे विश्वास ? अब तो,
घुट रही है सांस, कैसे गीत गाएं।।

अब नहीं विश्वास, खिलती डालियों का।
अब नहीं विश्वास है, किलकारियों का।
कौन जाने कब, बदल जाये ये सूरज,
अब नहीं विश्वास, इन जलते दीयों का।।

चांद छलिया, बेवफा रंगी- सितारे।
कागजी फूलों के हैं ये रंग सारे।
कौन कहता- ओस गिरना मोतियों सा,
प्रकृति के सब खोखले दिलकश नजारे।।

अब नहीं मां के हृदय का प्यार सच्चा।
राखियों में जो लगा, वह तागा कच्चा।
खून है तैयार, गरदन काटने को,
हो गया है आज, हर इंसान टुच्चा।।

खून का सिन्दूर पर, क्यों शक हुआ है ?
बन गई अभिशाप-सी, क्या हर दुआ है ?
गेह की छत, नेह से छाई मगर अब,
एक ही बारिश में हर कोना चुआ है।।

अब भरोसे गर्म वादों के मिटे हैं।
अब भरोसे पाक यादों के मिटे हैं।
बेवजह बिछतीं रही अपनी बिसातें,
वक्त की शतरंज के मोहरे पिटे हैं।।

प्यार की वीरानियों में हम पले हैं।
जिन्दगी की लाश को ढोये चले हैं।
खून अरमानों का दे, जिसको जलाया,
उस दीये से हाथ अक्सर जले हैं।।

मेहनतकश का रन्दा

खर्रस खर-खर, खर्रस खर-खर
मेहनतकश का रन्दा चलता है।
जब भी यह चलता है,
सारी उबड़ खाबड़,
विषम, असमतल सतहों को
समतल करता है।
इसी सतह पर
कहीं महासागर है गहरा।
इसी सतहपर खड़ा हिमालय,
घूर घूर कर देख रहा है।
कोई कहीं बढ़ने न पाए,
अपनी नाजायज कोशिश से।
देता है यह रन्दा पहरा।
रन्दा सब देखा करता है
क्यों किसान का रक्त
पसीना बन बहता है।
वज्र सरीखा तन गल-गलकर,
सब सहता है।
उधर तिजोरी का लोहा
मजबूत हो रहा।
किसकी मेहनत के दानों ने
शक्ल बना ली सिक्कों की।
क्यों मजूर की बीड़ी की
बुझ रही चमक में,
और ढल रही मय में ठेकेदारों की
अंतर होता है।
क्यों शराब का बेटा
बीड़ी की बेटी लाज लूटकर
रात चैन से सो पाता है ?
रन्दा सबकुछ देख रहा है।
कितना अंतर,
गोल, गुलाबी, स्वस्थ, चमकते, मुस्काते
चेहरे से होता, उन चेहरों का
बुझे बुझे से खड़े हुए जो
उस कतार में,
लगी हुई जो राशन,
मिट्टी तेल बेचती दुकानों में।
रन्दा सबकुछ देख रहा है।
सूखी रोटी, बर्तन में चिपके दानों से
बिरयानी, शाही कवाब या मुर्ग-मुसल्लम-

का कितना होता है अंतर ?
कितना अंतर-
टेंट बंधी मजदूरी से,
मेजों के नीचे हौले हौले
सरक रहे नोटों के बंडल में है होता।
लोकतंत्र के तथाकथित उस मालिक के
सूखे चेहरों, भूखे पेटों
या तार-तार हो चुके वस्त्र से
’जन-सेवक’ के लाल गुलाबी चेहरे,
चरबी की परतों में,
दमक रहे लकदक कपड़ों से,
बिखर रही मुस्कानों का यह फर्क,
सभी कुछ देख रहा है।
रन्दा सबकुछ देख रहा है।
जैसी भी हो सतह,
इसे समतल करना है।
कांटे-कंकड़, ऊबड़-खाबड़,
विषम दूरियां, फर्क सभी कुछ,
सभी सामने,
मिलजुलकर आ जाएं तो भी,
नहीं किसी से भी डरना है।
वक्त आखिरी है-यह अवसर!
सबको समतल कर देना है।
पैनापन या धार बचाए रखकर ही यह
मेहनतकश का रन्दा चलता।
खर्रस खर-खर, खर्रस खर-खर।

समय की पहचान

सूरज को हथेलियों से मत ढांको।
हवा को मुट्ठियों में मत बांधो।
खुशबू को तहखाने में कैद मत करो।
इतिहास को दावत मत दो।
सूरज, जला देगा तुम्हारी हथेलियां।
हवा की जगह,
तुम्हारी मुट्ठियों में-
रह जायेगा सिर्फ शून्य।
खुशबू-
तहखानों के भारी कीलदार-
दरवाजों को तोड़कर,
निकल जाएगी बाहर।
इतिहास उलट कर रख देगा-
तुम्हारी डायनिंग टेबल।
मेरे बंधु!
पहचानो- समय की नजाकत।
सुनो, आकाश में गूंजते शंखनाद को।
सोच लो,
कहीं तुम्हारे भेजे स्वार्थ के फड़फड़ाते बाज
तुम्हारी ही बोटियां
नोचना न शुरू कर दें
इसलिए कहता हूं-
समय को पहचानो।
परिस्थितियां तुम्हें नचा सकती हैं।
सिफ, समय की पहचान ही तुम्हें
बचा सकती है।

कुछ नहीं

चालाक टोपियां-
बोलती हैं,
खूब बोलती हैं।
करती कुछ नहीं।

हवा भरा खोखला सूट,
बोलता है,
खूब बोलता है।
सुनता कुछ नही।

अबोध धोतियां-लंगोटियां,
सुनती हैं सहती हैं।
सिर्फ सुनती और सहती हैं।
समझती कुछ नहीं।

गूंगी कलमें,
सुनती हैं,
सहती हैं,
समझती हैं
बोलती कुछ नहीं।

परकीया

अर्थहीन शब्दों की भीड़ में,
जैसे, अभिव्यक्ति खो जाती है कहीं,
वैसे ही,
अलिखित नाटकों के
अनूठे पात्रों के बीच,
खो जाता है,
मेरा चिरपरिचित चेहरा!
परेशान होकर ढूंढता हूं।
बड़ी मुश्किल से मिलता है कमबख्त,
किसी आलीशान बंगले के बाहर-
तैनात अलसेशियन से बातें करता हुआ।
नहीं पहचान पाता इस चेहरे को,
क्योंकि इस पर,
तुम्हारी गर्म रोटियों के दाग,
पीढ़ियों से संजोई हया का-
पानी छू छूकर,
फफोले बनकर उभर आए हैं।
चेहरा- जिसपर चिपकी हैं-
वे मुस्कानें,
जो अनुगृहित हैं तुमसे।
मुस्कानें और फफोले।
एक ही तो बात है।
और तो और,
अब तो अपनी कमीज की जेब में चिपकी,
अपनी कलम भी,
मुझे देने लगी है धोखा।
वह सोचती तो है मुझ जैसा,
पर लिखती है-
जैसा तुम चाहते हो।
मुझसे अधिक तुम्हारी नमक हलाल
हो गई है मेरी कलम,
जो मुझये नमक हरामी कर,
तुम्हारी ही हो गई है परकीया।
कलम यदि सच बोल सके
तो बताएगी तुम्हें
कि सदियों की ईमानदारी का खुमार लिए,
बेईमान हो जाना
कितना रोमांचकारी होता है।
होता है कितना क्रांतिकारी-
पुरानी लीक को छोड़ने का गौरव।
कभी कभी सोचता हूं मैं,
कि बदल लूं कलम।
फेंक नहीं सकता,
क्योंकि पिता ने वसीयत में
बड़े प्यार और विश्वास से,
छोड़ी थी यही इकलौती।
बेचूंगा भी नहीं,
क्योंकि दाम हर पुरानी चीज के
आधे ही मिलते हैं-
आस्थाओं से लेकर गांधी तक के।
नई कलम खरीदने में
लगेंगे तिगुने दाम
तिगुनी कीमत-
एक कलम की,
एक कलम के विज्ञापन की
और एक कलम की आजादी की।
रहने दो,
नहीं बेचूंगा।
और न नई खरीदूंगा।
हुआ ही क्या है इसे ?
निब भले ही घिस गया है,
पर ’सॉफ्ट’ तो चलता है।
नई निबों वाली नई कलमें तो
फाड़ने लगी हैं कागज इन दिनों।
नहीं भाई नहीं!
कागज फाड़ने का साहस नहीं है मुझमें।
तो फिर ?
क्या बदलनी होगी-
अपनी लिखावट ?
अपने हस्ताक्षर ?
क्योंकि चेहरा तो
पहले ही बदल दिया है यारों ने।

 

 

-सुरेन्द्र रावल