कविता का बनना
तन्हाई से भरा उफ!
कितना बोरिंग सा था
कल का वो दिन।
दोपहर ढलते ढलते
घिर आई थी जब
फिर उदास सी शाम
और मुझे लपेट लिया था
पीत ज्वर की तरह।
गुलदान में सजा फूल
गिलास में रखा पानी
प्रतीत हो रहे थे, मानो
कुनैन की गोली से।
जिसे बिना खाये ही
मुंह कसैला हो गया था।
चहलकदमी करते करते
दुखने लगा था मन भी।
फोन की घंटी बजी थी
वह तुम थे………
जो कह रहे थे…..
मेरी व्याकुलता भांप
तो चली आती ना….
कुछ कहते, कुछ सुनते
चाय की प्यालियों को
संग संग सुड़कते।
खिल खिला उठी मैं
महकने लगा था
गुलदान का फूल भी।
खत्म कर दिया था
गिलास के पानी ने
सारा कसैलापन भी।
हजारों कोस दूर
घूम आया था मन
बिना पैर दुखाये ही।
उषा अग्रवाल पारस
201 साई रिजेंसी
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