उंगलबाज

उंगलबाज

’’यार! साहित्य में खुद को बड़ा साहित्यकार कैसे साबित करूं ? मैं न तो ढंग की कविताएं लिख पाता हूं न ही मेरे पास दिमाग है। पर मेरी इच्छा है कि खुद को साबित करूं।’’
’’बस! इतनी सी बात! तुम ऐसी कोई संस्था को पकड़ो जो राष्ट्रीय स्तर की हो और अपनी शाखाएं हर जगह फैलाना चाहती है। उसकी स्थापना करो और सभी को बताओ कि मैं फलानी संस्था का जिला संयोजक हूं, और संस्था का राजकीय सचिव हूं। आज कल थोक भाव से संस्थाएं बन रही हैं। साहित्यकारों की भीड़ में कौन जानता है कि तुम साहित्यकार हो या फिर नौटंकीकार या फिर साहित्य के बहाने रंगीनमिजाजी करने वाले हुनरबाज! है कि नहीं! लोग तो भेड़ की तरह हैं वो तुमको साहित्यकार मान लेंगे। और फिर उन संस्थाओं को भी तो अपनी पहचान जगह जगह बनानी होती है। वो भी खुशी खुशी मान लेंगे। एक बेनर बनाना और कहीं भी चिपका कर कार्यक्रम करवाये बता देना। कभी कभार मलाई टपक जाये तो लपक कर चाट लेना! कौन जांच करने आयेगा तुम क्या हो।’’
’’….’’
’’और हां, आजकल सम्मान बांटने का चलन गली गली हो गया है। तुम भी मांग लेना और दो चार को दिला देना। गालिब सम्मान, वीर रस के कवि को दिलवा देना! कौन देखने सुनने वाला है।’’