दिवाकर दत्त त्रिपाठी का काव्य

 

 

गीत

आज कहीं बरबाद न कर दे,
आने वाला कल सोचूंगा,
अब हर एक मुद्दे से पहले
जन जंगल जमीन सोचूंगा।
मैं कहता हूं छत मिल जाये
फुटपाथों की बस्ती को भी,
हरित धरा को हरित कर सकूं
तो फिर मैं मंगल सोचूंगा।
जो अभाव में न भर सके
रंग तूलिका में, सपनों की,
उन सपनों को रंग दे सकूं
तो मेहन्दी काजल सोचूंगा।
भ्रष्ट तंत्र है भ्रष्ट नीति है
शासक भी भ्रष्ट हो गये,
जो इन सबकी नींव हिला दे
ऐसी उथल-पुथल सोचूंगा।
अभी प्रियतमे गा लेने दो
मुझे गीत अवसाद भरा तुम,
कभी मिली फुरसत तो तुझ सी
-सुन्दर ग़ज़ल सोचूंगा।

 

ग़ज़ल

नहीं गर तेरे स्तर का हूं
बतला दो, फिर मैं क्या हूं ?
तुम विद्युत कृत्रिम प्रकाश हो
मैं पूनम की चंद्रप्रभा हूं।
तुम महलों का राजरोग हो
मैं फुटपाथ की अमिट क्षुधा हूं।
तुम उद्घोष हो एक कर्णकटु
मैं विरही की गीत व्यथा हूं।
तुम कल्पनामयी कविता हो
मैं इक सच्ची आत्मकथा हूं।
तुम हो अमरबेल चमकीली
मैं बसंत की एक लता हूं।
दिया है गरल, धरा अम्बर को
शहर हो तुम, ग्राम सुधा हूं।

दिवाकर दत्त त्रिपाठी
एम.बी.बी.एस
रूम नं.-171/1 बालक छात्रावास
मोतीलाल नेहरू मेडिकल कालेज
इलाहाबाद, उ.प्र.
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