बस्तर पाति कहानी प्रतियोगिता-1, तृतीय पुरस्कार-माला वर्मा

पीर पर्वत सी पिघलने लगी

जब से शारदा देवी ने इकलौते बेटे के सिर मौर बांधा बजाय खुशी के उनको ये पल-पल एहसास हो रहा है जैसे जहर बुझा तीर किसी ने बेरहमी से सीने में चुभो दिया है। तीर न खुद खिसक रहा है न वो निकाल पा रही हैं। अजीब संकट में तन-मन पड़े हैं। बिस्तर पर जाती हैं तो करवटें बदलते घंटों बीत जाते हैं।
आज उनकी छटपटाहट से पास सोए बाल मुकुन्द जी की आंख खुल जाती है। अलसाये स्वर में कह उठते हैं, ‘क्या बात है, नींद नहीं आ रही ? सांस की तकलीफ तो नहीं हो रही है। दवा ली थी ? न हो तो इन्हेलर ही दो फूंक मार लो……..’
शारदा देवी उखड़े मन से जवाब देती हैं ‘आप सो जाएं, मुझे कोई तकलीफ नहीं। कल दिन भर माथापच्ची करनी है….. चिन्ता से नींद कैसे आए……!’
‘छोटा-मोटा आयोजन है, उसी में चिन्ता हो गई! शादी जैसा बड़ा अनुष्ठान संपन्न किया है तुमने, इतनी जल्दी भूल गई! अरे…….. कल बहू का जन्मदिन ही तो है। उसके मायके वाले आयेंगे, उसकी सखी सहेलियां रहेंगी, अभिनव के कुछ दोस्त होंगे। फिर तुम्हें करना क्या है…… बस खड़े-खड़े निर्देश देने हैं। सारा कुछ नौकर संभालेंगे। बहू को कह दूंगा कि ऊपर की साफ-सफाई देख लेगी। भारी काम तो तुम्हें वैसे भी नहीं करने।’
‘…….’
‘मैं चाहता हूं जन्मदिन की पार्टी ऐसी जोरदार रहे कि बहू के मायके वाले भी सोचें कि आखिर किस घर में बेटी के पांव पड़े हैं। ले देकर यही तो हमारा एक बेटा है। उसकी पत्नी को चाहे बहू समझो या बेटी। मैं तो उसे अपनी बेटी ही समझता हूं। अब तुमसे क्या छिपाना। जब भी वो मेरे पैर छूती है, मुंह से आशीर्वाद स्वरूप खुश रहो बेटी ही निकलता है। बहू तो कह नहीं पाता……..’
शारदा देवी का मन थोड़ा बदला और वे पति की तरफ घूम गई। बलिष्ठ भुजाओं और चौड़ी छाती में अपनै को बंधी पा वे राहत महसूस करने लगीं। उन्हांने थके शरीर को एकदम ढीला छोड़ दिया और चिंतन-मनन में डूबने उतरने लगीं।
बहुत वर्षों बाद पिछले तीन महीनों से पति संग अकेले सोने को मिल रहा है। वरना अभिनव की छुटपन से ऐसी आदत कि मां के बिना उसे नींद नहीं आती। सो विराट पलंग पर वे बीच में रहतीं, अगल-बगल पति पुत्र। अभिनव जब तक उनके पेट पर हाथ नहीं रखता, चैन नहीं पाता। अठ्ठाईस साल की उम्र हो गई पर बचपना नहीं छूटा। कई बार उन्होंने बेटे, को अलग सुलाने की चेष्टा की थी परन्तु जब रात में उसकी आंख उचटती और मां को नहीं देखता, तब संभालना मुश्किल हो जाता था। फिर तो गुस्से में सबकी नींद हराम कर देता!
स्कूल की पढ़ाई पूरी कर जब वह कालेज जाने लगा तब शारदा देवी ने कहा था- ‘बेटा अब तू बड़ा हो गया। तेरी इतनी पढाई-लिखाई है अलग कमरे में क्यों नहीं सोता!’
अभिनव गलबहिया डाल जवाब देता ‘मम्मी तुम कोई बच्ची हो जो मुझे डिस्टर्ब करोगी! उल्टे मैं ही देर रात पढता हूं और तुम्हारा पेट छूकर नींद खराब करता हूं…….. और सच कहो मम्मी…… क्या तुम्हें मेरे बिना अच्छा लगेगा ?’
शारदा देवी मीठी छिड़की देती, ‘हां……. हां क्यों नहीं अच्छा लगता। पर क्या सारा जीवन तुम्हारे पास बनी रहूंगी। तेरी शादी होगी तो क्या बहूरिया छोड़ मेरे पास सोयेगा ? बाहर कहीं पढ़ने लगा तो क्या मैं भी तेरे संग जाऊंगी ?’
अभिनव तुनक जाता और कहता, ‘मुझे शादी-वादी नहीं करनी और बाहर पढ़ने भी गया तो तुम्हें भी हॉस्टल में साथ ही रखूंगा।’
शारदा देवी सारा वार्तालाप बालमुकुन्द जी को बतातीं और मातृत्व सुख से पुलकित स्वर फूटते-हमारे बेटे का बालपन कब जाएगा…….?
बेटे को कभी तिकड़म भिड़ाकर अलग सुलाने वाली शारदा देवी उस वक्त फूट-फूट कर रोने लगीं जब अभिनव डाक्टरी की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर जाने की तैयारी करने लगा। सूटकेस सजाते वक्त, बेडिंग में ख्याल से चादर-तकिये रखते वक्त अनगिनत आंसू गिर-गिर कर सूखते जा रहे थे। कभी तो हिचकियां बंध जातीं।
और एक दिन अभिनव को जाना ही पड़ा। बालमुकुन्द जी कुछ दिनों से देख रहे थे। जितनी मां की पीड़ा परिलक्षित थी पुत्र की पीड़ा कम न थी। कई रातों में किसी वजह से उनकी नींद उचटती तो देखते अभिनव कभी मम्मी के पैर के पास सोया तो कभी मम्मी की बाजुओं के अपने गले के घेरे में बांध रखा है।
स्टेशन छोड़ने के लिए शारदा जी राजी न हुई। बालमुकुन्द जी ने भी जोर न दिया। ये रोना-धोना स्टेशन पर शुरू हो गया तो तमाशा होगा। चीज सामान कार की डिक्की में रखवा कर उन्होंने अभिनव को बैठने का इशारा किया। जाने के पहले बेटे ने मां का पैर छूना चाहा। शारदा देवी भरभरा उठीं। बेटे को सीने से लगाए बिलख उठीं। अभिनव शांत था पर उसकी आंखें सजल थीं।
बालमुकुन्द जी कह उठे, ‘बस करो अभिनव, ये लड़कियों जैसा रो रहे हो ? तुम्हारे दोस्तों को पता चलेगा तो वे सब मजाक उड़ाएंगे। अब तुम छोटे नहीं रहे। इतने दिनों तक मम्मी को हथियाये रहे। अब बुढ़ापे में एक संग नहीं रहने दोगे! कहो तो मम्मी का भी नाम मेडिकल कालेज में लिखवा देता हूं। वो भी तुम्हारे साथ डाक्टर बनकर निकलेगी……..’
बालमुकुन्द जी की बातों से माहौल हल्का हुआ। मां बेटे आंसू पोंछ मुस्करा रहे थे अब और देर करना ठीक नहीं। फुलस्पीड में गाड़ी आगे बढ़ गई। भारी कदमों से शारदा देवी अंदर सोफे पर निढाल पड़ गई। ये पहला मौका था जब बेटा उन दोनों से दूर हुआ था। कितनी ढेर सारी ताकीद तो उन्होंने दे डाली थी। रोजाना फोन से हाल-समाचार देना होगा, छुट्टियां होते ही घर आना होगा, खाने-पीने की जो इच्छा खरीद कर खाना या फोन से कहलाना ताकि यहां से पार्सल कर सकें। ऐसी ही अनगिनत न जाने कितनी छोटी-मोटी नसीहतें पिछले महीने भर से बेटे के दिमाग में भर रही थीं।
उनकी बातों से परेशान होकर एक दिन अभिनव ने कहा था ‘कहो तो मैं पढ़ने ही न जाऊं, यहीं कोई नौकरी कर लेता हूं……!’
शारदा देवी ने बेटे का माथा चूम जवाब दिया था, ‘ये तो मां का मन है पगले……. लाख नसीहतें दूं फिर भी जी को कहां चैन है। बड़ी किस्मत से तो मेडिकल में चांस मिला है। तेरे डैडी डाक्टर हैं…… जब तू पैदा हुआ था तभी से उनकी दिली ख्वाइश थी-बेटे को डाक्टर बनाना है। आज जाकर हमारी साधना पूर्ण हुई। मन लगाकर पढ़ना और बाप से भी ज्यादा नाम कमाना…….’
इस तरह देखते-देखते दिन और वर्ष कटते गए। शुरू में तो बेटे का बिछोह बहुत अखरा पर बाद में एकदम से संयम कर लिया। बेटे के भविष्य में ममत्व का रोड़ा अटकाना कहां की बुद्धिमानी है। बाद में कम दिनों की छुट्टियां होने पर वे खुद मना कर देती थीं। फोन का क्रम रोजाना तो संभव नहीं था। अलबत्ता सप्ताह में एकाध बार बातें हो जाती थी।
अभिनव ने मेडिकल की पढ़ाई सफलता से खत्म की और पिछले दो साल से वो यहीं डैडी के चैंबर में बैठने लगा तथा आगे एम.एस. में नाम लिखवा लिया है। उसकी तो इच्छा थी कोर्स कम्प्लीट हो जाए फिर शादी हो। पर आस-पड़ोस, घर-परिवार का इतना दबाव पड़ने लगा कि पारूल को बहू बनाना ही पड़ा। अभिनव चाहता तो शादी टाल सकता था परन्तु पारूल की खूबसूरती उसे भा गई।
पारूल थी भी अति सुन्दर। क्या ऐसी ही सुन्दर कमनीय बहू की कल्पना शारदा देवी ने नहीं की थी! अभिनव की स्वीकृति से तो आनन-फानन में शहनाई बज उठी। ऐसी धूमधाम से शादी हुई कि लोग दबी जुबान से कहने लगे ‘इसे कहते हैं इकलौती संतान का सुख। जो लेना-देना खर्च करना था एक बेटे पर न्यौछावर किया। दो-चार रहते तो ऐसी शान टपकती ? भई………..हम ही मूर्ख निकले जो पूरी फौज खड़ी कर दी………’
बेटे की शादी में हफ्ते भर से रिश्तेदार आकर जुट गए थे। बालमुकुन्द जी का इतना बड़ा घर भी छोटा पड़ा गया। रोजाना शाम को ढोलक पर थाप पड़ती और ‘पूबर-पश्चिमवा से अइलें सुन्दर दुल्हा…..’ जैसे गीत गूंजने लगे। शारदा देवी मानो दस बेटों की साध इकलौते बेटे से पूरा करना चाह रही थी। शांतिप्रिय शोरगुल से दूर रहने वाले बालमुकुन्द जी भी अपने को कहां रोक पा रहे थे। किसी मनचाहे गीत में वे खुद शामिल हो जाते। उनके उत्साह से फिर महफिल में नई जान पड़ जाती।
शादी के बाद अभिनव और पारूल को अलग कमरा दिया गया। उस दिन शारदा देवी के अंदर कुछ झन्नाक से टूटा था। ये पहला मौका था जब अभिनव उनके पास रहते हुए दूसरे कमरे की ओर पैर बढ़ा रहा था। भला आज कैसे नींद आयेगी बेटे को मां के बिना…….अंदर ही अंदर जाने कैसा लगने लगा। छाती में एक मरोड़-सा उठा। तो क्या आज से बेटा पराया हो गया ? इतने दिनों की मोहमाया तपस्या भंग हो गई ? दो बित्ते की छोकरी आज मुझसे बड़ी हो गई ? अभिनव ने मेरी महत्ता पलभर में मिटा डाली! अब उसे मम्मी नहीं पारूल चाहिए ?
शारदा देवी और बेटे अभिनव के बीच पारूल का पदार्पण विस्फोटक सिद्ध हुआ। एक मां हठात् अपने अंधे स्वार्थ में मर्माहत हो उठी थी। बुद्धि कुंठित होकर तकलीफदेह बन गई।
अभिनव की वह सुहागरात थी। एक नया हमसफर मिला जिसके साथ उसे सारा जीवन बिताना था। उसे बस पारूल नजर आ रही थी। मम्मी की बैचेनी की उसे क्या खबर!
एक वो दिन और आज! देखते-देखते तीन महीने निकल गए। शारदा देवी को बहू अब अपनी दुश्मन नजर आने लगी थी। अभिनव का कपड़ा-लत्ता, पढ़ने का टेबुल सारी चीजें दूसरे कमरे में चली गई थी। बेटे के बेतरतीब फैले चीज सामान को नौकर के रहते हुए भी खुद ठीक करती थीं….. इसमें उन्हें अपार सुख मिलता था। शादी के बाद वे बेटे के कमरे में गई थीं पर पारूल ने उनके हाथ से अभिनव की कमीज लेते हुए कहा था, ‘मम्मी, इतने दिनों तक आपने इनकी देखभाल की। अब जब मैं आ गई हूं तो ये सब मुझे करने दें। आप आराम कीजिए। अगर ये छोटे-छोटे काम मैं न करूं तो समय कैसे कटेगा……।’
बड़े प्यार और अग्राह से पारूल ने उन्हें पलंग पर जबरदस्ती बिठा दिया। वे चुपचाप निरीह बनी देखती रहीं। इतना अधिकार आते ही साथ! बेटे का काम करके किस मां को खुशी नहीं होती ? पहले मैं ही तो करती थी। क्या बेटे के विवाह के बाद इतनी जल्दी बूढ़ी हो गई कि आराम करने की जरूरत आ पड़ी! मन ही मन क्रोधित वे सोचने लगीं…….इतना काम करने का शौक है तो घर से दोनों नौकर निकाल बाहर करूं ? जब सारा काम करना पड़ेगा तब अक्ल ठिकाने आएगी।
परंतु शारदा देवी चाहते हुए भी नौकर नहीं निकाल सकतीं। घर में परिचित लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है। बिना नौकरों के एक दिन न चले। इसीलिए तो दो-दो नौकर रखे गए हैं। एक की बीमारीहारी रहे तो दूसरा काम करे और ये नौकर भी कोई नए हैं ? पिछले पंद्रह साल से लगातार शारदा देवी के पास बने हैं। अब तो दोनों की शादी की उम्र हो चली है। उसके बाद भी वे यहां से हटने वाले नहीं है। बालमुकुंद जी और शारदा देवी को वे अनाथ अपने मां-बाप से कम नहीं समझते। शारदा देवी भी दोनों पर समान रूप से नेह बरसाती हैं।
संबंध तो घर के हर व्यक्ति से अच्छा बना रहा सिर्फ बहू को छोड़कर, अब वे सोचने लगी थीं-काश अभिनव इकलौता न होता। उसके भी भाई-बहन रहते तो आज ये स्थिति न आती। अपने आप को वे इतनी तिरस्कृत और अकेली न समझतीं। अभिनव की झोली में अपना पूरा ममत्व उड़ेल अपने को रिक्त महसूस कर रही थीं। कहां तो वे अभिनव से मनुहार करके मनपसंद चीज बनाती-खिलाती। अब पारूल ने उनकी जगह ले ली थी। वैसे बहू पाक कला में दक्ष नहीं थी। फिर भी किचेन में कोई नई डिश बनाती और जिद करती आज मैं खाना खिलाऊंगी….. ।
शारदा देवी ऊपरी मन से खाने-पीने की तारीफ करती पर अंदर ही अंदर जलभुन जाती। उन्होंने कुछ दिन देखा फिर रहा न गया। पारूल के दौड़भाग करने पर बेरूखी से टोक ही दिया, ‘घर में नौकर है खिलाने के लिए….. कम से कम उनकी आदत न बिगाड़ो…..’
आवाज की कटुता भले अभिनव न समझ पाया हो पर बालमुकुंद जी भांप गए। बात संभाल ली थी ‘हां, पारूल तुम्हारी मम्मी ठीक कहती है…… तुम भी एक संग बैठकर खा लिया करो……. जब अपनी थाली लेकर आती हो हमारा खाना शेष हो चलता है….. फिर तुम्हें जल्दी अपना खाना निबटाना पड़ता है…….’
पारूल सहमी चुपचाप बैठ गई। शाम तक सास-बहू के बीच अबोला सा फैल गया। शारदा देवी सोने का ढोंग रचाए बिस्तर पर पड़ी थीं। नौकर के बदले पारूल ने चाय के साथ उन्हें उठाया तो पूछ बैठीं, ‘अभिनव और डैडी ने चाय पी ली ?’
पारूल ने धीमी आवाज में जवाब दिया ‘वे दोनों कब की चाय पीकर क्लीनिक चले गए।’
शारदा देवी ने अचकचा कर दीवार घड़ी देखी। शाम के सात बज रहे थे ? इतना वक्त गुजर गया और उन्हें एहसास न हुआ!’ रात का खाना क्या बन रहा है ?’
उनकी गंभीर आवाज से पारूल चौंक गई फिर तुरंत कहा ’मैंने सोहन दा को आज मसालेदार सूखा मटन और पराठा सेंकने को कहा है।’
शारदा देवी को सुनकर अच्छा नहीं लगा। रोजाना सोहन-मोहन मुझसे पूछकर खाना बनाते हैं। आज मेरे बदले बहू से क्यों पूछा ? वे चिड़चिड़ी सी कह उठीं, ‘बहू तुझे पता नहीं, अभिनव रात में नॉनवेज नीं पसंद करता…….’
पारूल ने रूकते हुए कहा ‘मैंने उनसे पूछ कर ही सोहन दा को मटन बनाने के लिए का था।’
शारदा देवी निरूतर रह गई। चुपचाप पलंग से उठकर बाथरूम की ओर चली गई। मुंह हाथ धोते वक्त उनके दिमाग में कुछ खौल रहा था। अभिनव ने अपनी पुरानी मान्यताएं छोड़ दीं ? ये क्या वही अभिनव है जो गलती से भी रात में नॉनवेज मुख में नहीं रखता था। गुस्से में या तो बिना खाए जाता या दूध पीकर रह जाता। बहू के पूछने पर ये नहीं कह सकता था कि मटन कल दोपहर में बनेगा ?
अभिनव बेटे…… क्या संपूर्ण बदल जाओगे ? मम्मी के लिए कुछ नहीं बचा कर रखोगे ? मम्मी अगर मर भी गई तो अब कोई फर्क नहीं पड़ने वाला…..?
सोचकर वे रो पड़ीं। मुश्किल से अपने को संयत कर बाहर निकली। अब वे हर पल बहू की नीचा दिखाने के फेर में रहने लगीं। इसी आक्रोश में शादी के बाद बेटे को हनीमून पर नहीं जाने दिया था। अभिनव के दोस्त हनीमून के लिए सलाह दे रहे थे। परंतु वे बिफर उठीं, ‘इतनी जल्दी क्या है, अभी नए-नए क्लीनिक में बैठे हो। बाद में जाना। पर्व त्यौहार भी नजदीक हैं।’
अभिनव भोला था। दूसरा कोई लड़का होता तो मां की बात काट देता। परंतु उसने तुरंत कहा था, ‘मम्मी ठीक कहती हैं अभी तो मरीजों की भीड़ है। मेरी पढ़ाई है। बाद में कभी चला जाऊंगा।’
पारूल मैके से अपने साथ नाईटी, सलवार-कुरता लेकर आई थी पर शारदा देवी ने इजाजत नहीं दी पहनने की। ये कहा कि यहां बड़े-बुजुर्ग आते रहते हैं……उनके सामने इन सब ड्रेसों मे जाओगी तो पीठ पीछे हमारी बुराई होगी। जब मैके जाओ तभी पहनना……’
पारूल ने चुपचाप अपना सलवार-कुरता सूटकेस में नीचे दबाकर रख दिया।
एक दिन सब्जी में नमक ज्यादा गिर गया पारूल से। तुरंत शारदा देवी ने टोक दिया ’मैके में कभी खाना नहीं बनाया था ?’ अभिनव ने हंसते हुए कहा, ‘मैं इसे रोज कहता हूं मम्मी से खाना बनाना सीख लो। खैरियत है सब्जी में नमक डाला था शक्कर नहीं…।’
पारूल एक तो ऐसे ही दुखी थी, ऊपर से पति की ठिठोली को आत्मसम्मान की प्रतिष्ठा बना रोते हुए उठ गई। शारदा देवी को बड़ा सुकून मिला। एक तो ये भी कहने से बच गई कि बहू को उनकी बात से तकलीफ पहुंची थी। अभिनव खाना छोड़ पारूल के पीछे लपका और थोड़ी देर बाद हाथ थामे वापस आ गया। शारदा देवी को महसूस हुआ जैसे वो जीत कर भी हार गईं थीं।
अचानक कानों में मंदिर की घंटियां बज उठीं। ये क्या….. वे सारी रात जागती रहीं थीं ? बालमुकुंद जी की बाहों में पड़ी अतीत खंगालने में लगी रहीं!
पति कुनमुनाते हुए पलंग से उठने की चेष्टा करने लगे। शारदा देवी ने उनका हाथ थामते हुए कहा ’अभी सुबह के मात्र चार बजे हैं, अभी से क्या खटर-पटर करना है….. चुपचाप लेटे रहिए। आपकी आवाज से दूसरे न जग जायें….. अभिनव कल देर रात तक हास्पिटल में था। उसे चैन से सोने दीजिए……..’
बालमुकुंद जी वापस लेट गए। स्नेह से पत्नी की पीठ सहलाई और कहने लगे ‘देखो एक बात पूछना चाहता हूं। ईमानदारी से जवाब देना। क्या तुम बहू को पसंद नहीं करती ? उसे अपनी बेटी नहीं समझती ? कभी-कभी मुझे लगता है कि तुम उसे जानबूझ कर लांछित करती हो। बहू हमारी बहुत सीधी सरल है। सिर झुकाए सब सुन लेती है और हां……! कल की बात बताऊं! अभिनव अपने कमरे में बहू से पूछ रहा था ‘तुम इतने सारे नए सलवार-कुरता, नाईटी लाई हो। मुझे भी एक बार पहन कर दिखाओ ना! सच कहता हूं मम्मी डैडी बहुत प्रसन्न होंगे। दादा-दादी के सामने मम्मी नाईटी पहन कर घूमती थीं। साड़ी से सिर भी नही ढंकती थीं। फिर तुम सिर ढंके क्यों घूमती हो ?’
बेटे की बात पर बहू ने कहा ’तुम्हारी मम्मी को पसंद नहीं कि मै ये सब ड्रेस पहनूं। सिर ढंकने के आदेश भी उन्हीं के हैं…… जब मम्मी को पसंद नहीं फिर क्यों उनका दिल दुखाऊं!’ मैं पास से गुजर रहा था सुन लिया। क्या सच में तुमने बहू को मना कर रखा हैं ?
पति की बात सुनकर शारदा देवी सकपका गई। उनकी चोरी पकड़ी गई। फिर भी आहत मन से कह उठीं, ‘हां, ये सच है कि बहू रूपवती होते हुए भी मुझे पसंद नहीं। उसने मेरे अभिनव को मुझसे चुरा लिया है। अभिनव सिर्फ मेरा था और मेरा रहेगा। देख नहीं रहे, बहू के चलते उसके दिन कैसे कट रहे हैं! मेरे पास थोड़ा वक्त नहीं देता। क्या इसी आशा में बेटे को पढ़ा-लिखा कर बड़ा किया था कि एक अदद बीवी के आते ही मां को दरकिनार कर दे। आपको पता नहीं कि मैंने बेटे को किस लाड़-प्यार से पाला-पोसा है। अभिनव के चलते मैंने आपसे भी शारीरिक दूरी बनाए रखी वरना आजकल के जमाने में कोई ऐसी औरत मिलेगी जो पति का संग-साथ छोड़ दे! मैंने इतना कुछ त्याग किया और आप बहू का पक्ष ले रहे हैं ? मेरी तरफ से एक बार भी नहीं सोचा आपने ? सिर्फ मेरा ही दोष देखते हैं ?’ कहते-कहते शारदा देवी सुबक उठीं।
‘अरे…. अरे ये क्या कर रही हो। अब तुम मां के साथ सास भी बन चुकी हो। जब तक लड़के को तुम्हारी जरूरत थी तुमने पूरी की। अब वह जवान हो गया है। शादी करके अपनी नई दुनिया बसाएगा। उसके अपने बाल-बच्चे होंगे। इस उम्र की अपनी एक शारीरिक मांग होती है जो बहू से प्राप्त होगी। शादी के बाद के कुछ वर्ष बड़े नाजुक होते हैं। एक अनजान लड़का-लड़की मिलते हैं। अपना सबकुछ एक दूसरे पर न्यौछावर कर जीवन भर का विश्वास तलाशते हैं। इस विश्वास को हासिल करने में शारीरिक सुख की सबसे ज्यादा महत्ता है। इस प्रक्रिया से उबरने में उन्हें वक्त लगेगा और यकीन मानो तो कहूं, जिस पल बेटा बहू दुनिया को नजरअंदाज कर असीम शांति की खोज में भटकते हैं। वही पल एक मां के लिए दुश्कर हो जाता है। ज्यादातर माताएं इसीलिए बहू से खिन्न रहती हैं कि अब बेटा निकला हाथ से….. किस कलमुंही ने आकर मेरे बेटे को हड़प लिया। बेटा मेरा था अब बहू के आदेशों पर चलने लगा….।’
‘…….’
‘और इसी भावना के तहत एक मां को बहू के सारे काम बेकार और फालतू लगने लगते हैं। वो बात-बात पर बहू के नुक्स निकालने लगती है। सुन्दर बहू कुरूप लगने लगती है। बहू का आजादी से रहना अप्रिय हो जाता है। उसका हंसना बोलना खाना-पीना, चलना सब बेढंगा लगता है…’
बालमुकुंद जी थोड़ा रूके फिर कहना शुरू किया, ‘सच कहो शारदा! अभिनव से दूर रहने की कल्पना मात्र से तुमने बहू को नीचा नहीं दिखाया ? उसके कपड़ों में पाबंदी नहीं लगाई ? तुम तो एक आधुनिक ख्यालों वाली नारी हो। फिर इस लड़की पर इतने कड़े नियम क्यों ? याद करो शारदा- आज से तीस साल पहले तुम मेरी पत्नी बनकर इस घर में आई थी। आज की तुलना में क्या वो जमाना पुराना नहीं कहा जायेगा ? फिर भी तुम घर में नाइटी पहनी और मेरे मां-बाबूजी के सामने सलवार-कुरता पहन कर घूमती रहीं। ईमान से कहना, कभी तुम्हारे सास-ससुर ने टोका था या अपना रोष प्रकट किया था ? वे दोनों तो इतने पढ़े-लिखे आधुनिक भी नहीं थे। फिर भी बेटा बहू की खुशी में ही अपनी खुशी समझी थी। शादी के बक्से से साड़ी के साथ तुम्हारी नाईटी निकली थी तब मां ने मुझसे पूछा था ’बबुआ ई कौन पहिनावा ?’ मेरे ये कहने पर कि ये ड्रेस सिर्फ रात में पहनी जाती है। उन्होंने जबरदस्ती अपने सामने तुम्हें नाईटी पहनने को कहा था और कितनी खुश हुई थी ये कहते हुए कि ‘बबुआ बहुत नीमन पहिनावा बा, ऐकरा में त पूरा देह तोपाइल रहत बा…. मच्छरवों ना काटी…’
मां की बात सुनकर हम सब कितना हंसे थे। तो ऐसी थी तुम्हारी सास। इस तरह बाद में तुम्हें सलवार कुरते के लिए भी कहा था। हमारे घूमने-फिरने पर भी कभी रोक-टोक नहीं लगायी। उल्टे अभिनव को घर में संभाल लेती और हम निश्चिंत घूमते। मां का हमेशा कहना था ‘दूनो आदमी हमेशा खुश रह…. हमरा कुछ ना चाही….’ तुम भी मां की तरह एक बार सच्चे दिल से उदार बन के देखो। खुद पर परखोगी कि त्याग करने से कितना कुछ पल भर में बदल जाएगा…।’
बालमुकुंद जी ने पत्नी की प्रतिक्रिया जाननी चाही। फिर आगे कहा, ‘कुछ दिनों से तुम अपसेट लग रही थी इसलिए कारण जानकर नसीहतों का पिटारा खोल दिया। जब अभिनव को अपना समझती हो तो उसकी पत्नी भी तुम्हारी बहुत कुछ है। घड़ी देखो पांच बज गए… अब मैं चलता हूं। क्लीनिक जल्दी जाकर सलटा दूंगा ताकि दोपहर में चैन से घर रह सकूं।’ कमरे मे अकेली शारदा देवी रह गई थीं। पति की बातें दिमाग में जैसे हथौड़े की तरह बज रही थीं। सहा न गया, दोनो हाथों से सिर थाम लिया। थोड़ी देर तक चुपचाप आत्मविश्लेषण करती रहीं। अतीत-वर्तमान-भविष्य की बातें उमड़ने लगी थीं। ऐसी विकट स्थिति से उबरने में उन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगा। बड़े हल्के मन से वे कमरे से बाहर निकल गईं।
बरामदा और आंगन सूना पड़ा था। उन्होंने नौकर से न कहकर खुद ही चाय बनाने की सोची। किचेन का दरवाजा खोला और लाइट जलाई। फ्रिज से दूध निकाला और दो कप चाय बनाकर जैसे ही बाहर निकलीं कि पारूल अलसाई आंखों और साड़ी में लटपटाई सामने खड़ी बदहवास सी पूछ रही थी, ‘मम्मी आप खुद चाय बना रही हैं ? सोहन दा को कहतीं या मुझे जगा दिया होता! इतनी जल्दी आप कैसे उठ गई ? तबीयत तो ठीक है न ?’
शारदा देवी की आंखे छलकतीं….. उसके पहले ये कहती हुई अपने कमरे में जाने लगीं, ‘पारूल…. बस नींद उचट गई थी और चाय के बिना तो अपना सूरज निकलता नहीं…. तुम जाओ सो रहो। इतनी जल्दी उठ कर क्या करना है….. और हां….. जन्मदिन मुबारक हो!’ पारूल आगे बढ़ी और सास का चरण स्पर्श किया।
पहली बार शारदा देवी ने बहू को उसके नाम से पुकारा था। बालमुकंद जी ने सब देखा, सुना। चाय पी और अपने काम में लग गए। शारदा देवी ने चाय का कप सिंक में डाला और नहाने धोने चली गईं। तैयार होकर निकली तो सभी जग गए थे।
फिर तो उसके बाद खाने-पीने की जमकर तैयारी होने लगी। नाना व्यंजनों से टेबुल अंटा पड़ा था। बहू के मैके से सात-आठ लोग थे। अभिनव के कुछ दोस्त पत्नियों सहित मौजूद थे। बहू की चार-पांच सहेलियां थीं। स्पेशल आर्डर देकर अभिनव ने जन्मदिन का केक बनवाया था। ‘हैप्पी बर्थडे’ के साथ पारूल ने केक काटा और सर्वप्रथम पास खड़े सास-ससुर को एक-एक टुकड़ा बढ़ाया। शारदा देवी ने उसे प्यार से देखा और पगली…. कहती हुई केक उसके मुंह में रख दिया।
जमकर खाना पीना हुआ। उपहारों के ढेर लग गए थे। मेहमानों की विदाई होने लगी। तभी अभिनव के एक डाक्टर दोस्त की आवाज आई, ‘क्या यार! कहीं तो हनीमून पर निकला नहीं ?’ ‘हनीमून की क्या जरूरत है। अपना शहर और अपना घर कौन सा बुरा है। सारा जीवन पड़ा है। चैन से घूमेंगे’ अभिनव ने जवाब दिया।
प्रत्युत्तर में दोस्त कुछ कहता तब तक शारदा देवी बोल उठी ‘बेटा तुम ही अभिनव के जाने का बंदोबस्त करा दो। इसे तो अपनी पढ़ाई और क्लीनिक से फुर्सत नहीं….. हाथ में टिकट रख दोगे तो चला ही जाएगा।’
‘आप ठीक कहती हैं मां जी। मैं कल ही फटाफट कुछ व्यवस्था करता हूं। ट्रेन की टिकटें तो जल्दी मिलेंगी नहीं। मैं हवाई जहाज की टिकट कराए देता हूं। गर्मी का दिन है इसीलिए तू सीधे कुल्लू-मनाली चला जा….. बोल कितने दिन का प्रोग्राम रखूं ? पंद्रह-बीस दिन या पूरे एक महीने ?’
अभिनव आगे बढ़ा और शारदा देवी के दोनों हाथ थाम आश्चर्य मिश्रित स्वर में कह उठा, ‘मैं मम्मी को छोड़कर भला इतने दिन बाहर रहूंगा ? ऐसे ही तो बात करने की फुरसत नहीं मिलती। जहां मेरी मम्मी हैं वही मेरे लिए सब कुछ है…. एक हफ्ता बहुत है। क्यों मम्मी इजाजत है न ?’
शारदा देवी को महसूस हुआ कि कहीं कुछ नहीं बदला था। टिकटें आई और सास ने बहू का सूटकेस सजाया। बस सलवार कुरते और नाईटी ही सजाये गये थे। उन ऊंची-नीची पहाड़ियों में छः गज की साड़ी का क्या काम! कहीं पैर उलझ गया तो ?
शारदा देवी के अंदर कुछ चिटकने लगा था। बेटा-बहू को आशीर्वाद देते हुए कह उठी ‘अगर वहां अच्छा लगे तो छुट्टियां बढ़वा लेना…!’
तीन महीनों की संचित पीर पर्वत सी पिघलने लगी थी।


माला वर्मा
हाजी नगर
24 परगना उत्तर
पश्चिम बंगाल
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