अंक-4-बहस-कहानी प्रतियोगिता के बहाने

कहानी प्रतियोगिता के बहाने

बस्तर पाति कहानी प्रतियोगिता में आपका स्वागत है। इस नयी पत्रिका के लिए आप सबने अपनी-अपनी कहानियां भेजकर जो विश्वास पत्रिका पर दिखाया है उसके लिए आभार!
बस्तर पाति का जन्म, जैसा कि इसके अंकों में लगातार बताया गया है – वर्तमान हिन्दी-साहित्य से दूर होते पाठकों और मुख्यधारा के प्रकाशकों की इस ओर उदासीनता-इन पहलूओं को ध्यान में रखकर ही बस्तर पाति का जन्म हुआ था। अर्थात् पाठकीयता, वह भी गद्य के माध्यम से- विशेषकर कहानी विधा में अच्छे लेखन के साथ उन आम लोगों तक जाने का प्रयास जहां बड़े-छोटे प्रकाशक समूहों की न किताबें पहुंचती हैं न पत्रिकाएं! यही नहीं लेखन में परिमार्जन के साथ-साथ जहां तक संभव हो सके स्थानीय, क्षेत्रीय स्तर पर ही-इसके पाठकों का नेटवर्क तैयार करना। ये हमारा मूल उद्देश्य रहा और है। पर, बस्तर पाति के कुछ अंक निकलने के बाद हमें ये देखने को मिला कि कहानियाँ एवं अच्छे लेख का घोर अभाव हैं। हालांकि ग़जलें व कविताएं लगातार मिल रही हैं। इसी प्रक्रिया में यह विचार किया गया है कि क्यों न एक कहानी प्रतियोगिता रखी जाए। नये व पुराने, स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों के साथ-साथ पुराने मंजे लेखकों से भी रचनाएं प्राप्त की जाएं। जैसी आशा की नौजवानों को प्रोत्साहित करने के बाद भी उनसे जितनी रचनाएं प्राप्त होनी चाहिए थीं वह हमें नहीं मिलीं। शायद नौजवानों को संकोच है।
प्रत्येक कहानी पर पैनी दृष्टि रखी गयी है। पाठक की हैसियत से पहले बड़े चाव से पढ़ा गया है, त्वरित टिप्पणी (एक पाठक की हैसियत से) दर्ज की गयी-और बाद में पृष्ठों को उलट-पलट कर कहानी की भाषा, तकनीक, विषय इत्यादि पर गहन विचार किया गया है। तदुपरांत कहानी में रूचि रखने वालें की भी राय ली गयी है। सच तो ये है कि एक रचना, रचना ही होती है। कुछ रचनाएं प्रभावशाली होती हैं कुछ कम और कुछ ही कालजयी। ये सारा मामला भौतिक विषय नहीं, बल्कि एक रसायन बन जाता है। आपके पास मसालेदार सब्जी रखी है-अन्य चखते हैं और उसी आधार पर नमक, तेल, घी, मसाला और बनाने की प्रक्रिया इत्यादि के बारे में अपनी राय देते हैं। है न खतरनाक काम! रही बात पसंद-नापसंद की वह तो एक जबान पर चढ़ी होती है- ठीक है, बहुत अच्छी-क्या बात! पर यहां ये इतना आसान नहीं- अपनी व्यक्तिगत पसंद से, अपने पूर्वग्रहों से परे कहानियों पर तटस्थ विचार करना था। हम शत-प्रतिशत शुद्ध या तटस्थ होने का दावा नहीं करते, मगर ईमानदार कोशिश की है और अपना, बस्तर पाति के मद्देनजर किसी चयन पर कि क्यों अमुक कहानी को क्यों, किस कारण से पसंद किया गया- स्पष्टीकरण देंगे। जहां तक संभव हो, हम किसी रचना की गलतियों/कमियों पर टिप्पणी नहीं करना चाहेंगे, वैसे भी, गलतियों/कमियों को किस एंगल से देखा जाए ? शिल्प, तकनीक, भाषा, विषयवस्तु, सोद्देश्यता ?
प्रश्न पेचीदा है और रचनाकारों को आहत करने वाला हो सकता है। पर फिर भी, लेकिन, परन्तु…………….बस्तर पाति के अपने लक्ष्य हैं- वह मानती है कि पाठकों या हिन्दी साहित्य में रूचि जगाने के लिए सहज व पठनीय सामग्री आम लोगों के बीच जानी चाहिए। वह भी कहानी विधा के माध्यम से! आज मुख्यधारा की बड़ी पत्रिकाएं जिस गति से तथाकथित चर्चित एजेंडे पर धड़ल्ले से कहानियां रचनाकारों से लिखवा रही हैं – छाप रही हैं- बस्तर पाति उनसे परहेज करती है। बल्कि यह उन एजेंडाबद्ध प्राणहीन रचनाओं से दूर से ही तौबा करता है। हमारे पास वैसी ही रचनाएं अधिक मात्रा में आई हैं। शायद वे लोग बस्तर पाति के शुरू के अंको को नहीं पढ़े होंगे, अथवा हमारी मंशा नहीं समझ पाए होंगे वरना वैसी रचनाएं हमें भेजी ही नहीं जाती।
फिलहाल प्रसंगवश एक स्पष्टीकरण और देना चाहूंगा। हमारे लिए प्राणहीन, सांचे में ढली रचनाएं क्या हैं ? ये पल्प फिक्शन की तरह आज चारों ओर लिखी व छापी जा रही हैं। गौर करें-
स्त्री लेखन है तो उसका काम मर्दो को गाली देना, उसका बॉस, पड़ोसी सभी उसे ‘काम’ की नज़र भेंट करेंगे। गृहणी है तो उसका बेटा, पति, ससुर सभी उसे ‘कैद’ में रखेंगे। स्त्री एक दिन अपने बच्चे को लेकर घर से निकल जाएगी और ‘आजाद’ हो जाएगी। और ‘क्रांति’ घट जाएगी। उसी तरह आम आदमी है तो पटवारी या जमादार और स्थानीय नेता द्वारा प्रताड़ित होगा। जहां जाएगा, लात खाएगा। नेता झूठ बोलेगा, माल उड़ाएगा, स्विस बैंक में खाता खोलेगा। मजदूर है तो वह आंदोलन करेगा और सिस्टम को झुकाएगा। वोट के वक्त संवेदनशील इलाके में राजनीतिक गुर्गे दंगा करवाएंगे और लोगों की लाश पर चुनाव जीतेंगे।
सच ये है कि जीवन में यथार्थ इतना एक रैखिक नहीं होता। ऐसे यथार्थ किताबी हैं- ऐसी कहानियों से सामान्य पाठक कोसों दूर हैं। सिर्फ इनके पास एक सैद्वांतिक एजेंडा हैं- कि ये ‘सोद्देश्य’ हैं।
दूसरी परेशानी ये है कि इस एजेंडे को जरूरत से ज्यादा तवज्जो दिए जाने- फैशन बनाकर टोपी लगाने के कारण, लेखकों का ध्यान कहानी के कला पक्ष पर से पूरी तरह हट गया लगता है। जबकि एक आलू को दो तरीके से काटा जाए तो सब्जी के स्वाद में अंतर आ जाता है- कहानी के कला पक्ष से आधुनिक हिन्दी परिदृष्य मौन साधे है। वह एक शब्द का इस्तेमाल करता है- शिल्प-और आगे बढ़ जाता है- सिर्फ कहानी के विषय को धूनता रहता है।
उक्त दो बातें हमारे निर्णय में गहराई से शामिल हैं। इस हद तक कि हमें निर्भय कहा जाए। और इसके लिए हमारे एक भी, कोई भी लेखक, लेखिका जवाबदार नहीं हैं- वस्तुतः ये सारा दोष हमारे वर्तमान साहित्य के परिदृष्य का है, जिसमें दो लोग खासे जिम्मेदार हैं- पहले आलोचक, दूसरे संपादक! इनके सामने से मजलिस कब का उठ चला, और ये हैं कि आंख बंद किए ‘राग’ अलाप रहे हैं।
बस्तर पाति के अंको में कहानियों पर विशेष चर्चा होती रहेगी। यहां हम प्रतियोगिता में प्राप्त कहानियों -जिन्हें सर्वश्रेष्ठ या श्रेष्ठ की श्रेणी में रखा जा रहा है- के बारे में संक्षिप्त राय आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं-
कहानी ‘लिफ्ट’ लेखक श्रीमान् देवभण्डारी जी हैं जो अहिन्दी भाषी हैं- वे मूलतः नेपाली भाषा व साहित्य से जुड़े रचनाकार हैं। वे विशेषकर बधाई के पात्र हैं जो अहिन्दी भाषी होकर भी हिन्दी में लिखने का प्रयास किया, आपका बस्तर पाति की इस प्रतियोगिता में स्वागत है। पुनः आपकी इस रचना को सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी में रखा गया है। पाठक देखेंगे आपकी कहानी सरल, सहज अंदाज में खूबसूरत दृश्यों का निर्माण करती हैं- कहानी में प्रयुक्त संवाद बड़े आत्मीय और सबसे बढ़कर बिना कुछ ऊँचे स्वर में बोले, लेखक अपनी मंशा, अपना दृष्टिकोण छुपाए बड़े मनोरंजक तरीके से कहानी का अंत होते-होते पाठकों के समक्ष सुन्दर, चौंकाने वाला और अर्थ का एक विस्तृत स्पेस खोल देता है। पाठक अचंभित रह जाता है- एक मीठा अहसास, साथ ही देश की वर्तमान स्थिति या तथाकथित प्रगति के सन्दर्भ में अद्भुत् संकेत से विडंम्बनात्मक दृश्य प्रस्तुत करता है।
कहानी या कला का कोई भी रूप हो, वह जितना बताने की विधा है, उससे अधिक छिपाने की कला/कहानी के दृश्यों में, या पात्रों के संवाद या अंतःक्रिया द्वारा-अंततः विश्वसनीय पात्र व दृश्यों की रचना से भी एक कहानी आज की मुख्यधारा की रचनाओं से बेहतर होगी। कोई भी लेखक सिर्फ इन दो कला तत्वों पर ध्यान दे और हां, उनके पास आमजन को बताने को कथ्य हो।
आप स्वयं कहानी पढ़कर देख लें और विचार करें। अहिन्दी भाषी होने के कारण भाषा की बुनावट में जो नयापन दिखता है – वह दृश्यों और पात्रों के साथ पाठक को सीधा जोड़ता है। भण्डारी को बहुत-बहुत बधाई!
कहानी ‘खोया क्या ?’ – जय मरकाम जो युवा हैं और शायद उन्होंने अभी-अभी लिखना शुरू किया है। जय मरकाम जी की कहानी हमारे पाठकों के समक्ष इसलिए प्रस्तुत हो सकी कि बस्तर पाति प्रारंभ से ही स्कूल, कॉलेजों में जाकर पत्रिकाएं बांटने, युवकों/युवतियों के पढ़ने व लिखने को प्रोत्साहित करता रहा है। कुछ गोष्ठियां भी नारायणपुर, दंतेवाड़ा जैसे धूर इलाके में की गयी हैं। उसी धूर इलाके से आश्रम में रहकर पढ़ने-पढ़ाने वाले युवाओं के बीच से हमें यह कहानी प्राप्त हुई। सर्वप्रथम तो लेखक को इस सक्रियता के लिए बधाई। थोड़ी टिप्पणी कहानी पर-
कहानी आप-बीती की शक्ल में लिखी गयी है- एक युवा होते, स्कूल से कॉलेज की ओर जाती पीढ़ी की दास्तान है। कहानी सहजबोध, बिना किसी हिचकिचाहट या शब्दों के प्रदर्शन के फेर में पड़े लिखी गयी है। कहानी के पात्र एक तरफ गरीब किसान के पुत्र है जिन्हें सालभर में मुश्किल से एक-आध दफे पैसे का दर्शन होता है- वहीं उन कृषक विद्यार्थियों का मित्र भी है जिसका ताल्लुक व्यापारी घराने से है, जो आए दिन गल्ले से कुछ उड़ा लेता है। उस चोरी के पैसे से विद्यार्थी ऐश करते हैं। धीरे-धीरे यह एब बढ़ता जाता है। वे मजे में जी-खा रहे हैं मगर जीवन का यथार्थ है कि उन्हें झकझोर देता हैं। और जब उन्हें अपनी गलतियों का अहसास होता है- तब तक बहुत कुछ खो जाता है। जीवन मूल्य उन्हें हासिल होता है मगर बहुत बड़ी कीमत चुकाकर। ‘खोया क्या ?’ कहानी का शीर्षक यहां सार्थक हो जाता है। यह ग्राम, शहर सभी क्षेत्र में युवकों में पैसे व ऐश-पानी के प्रति बढ़ते रूझान और बदले में मूल्यवान चीज खो जाने की कहानी है। दरअसल यह कहानी उस ‘मूल्य’ पर अपनी उंगली रखती है जिसके बारे में युवा पीढ़ी को अंदाजा तक नहीं। अतः कहानी अत्यंत न सिर्फ सामयिक है, बल्कि अपने कथ्य में मानवीय मूल्यों को स्पर्श भी करती है। मरकामजी ने स्थानीय शब्दों का सुन्दर प्रयोग किया है- भाषा शैली में अनगढ़पन के बावजूद यहां ताजगी है। बधाई।
यह तो हुई विषय की बात। कहानी की तकनीक को लेकर लेखक चितिंत नहीं हैं, न ही वे किसी प्रचलित नुक्से की तरह यहां आजमाईश करते हैं। यहां उनका भोगा हुआ सच है और सब से बढ़कर-विश्वसनीय है। कहानी हो या फिल्म या कोई अन्य कला- यह विश्वास दिलाने की कला है। चाहे इसके लिए लेखक आप-बीती शैली का प्रयोग करे अथवा अन्य तरीके से, असल है कहानी या कला का प्रभाव! और यह प्रभाव विश्वसनीयता से आता है। पात्र निर्जीव तो नहीं, घटनाएं व परिवेश बेजान तो नहीं। कहानी में आया मोड़ अस्वाभाविक तो नहीं! पात्रों द्वारा बोले गये संवाद बनावटी तो नहीं। कहानी में आप बीती शैली अत्यंत सहज शैली है मगर कई बार लेखकों की कुंठा या अन्य कारणों से वह सिर्फ ‘जस्टीफिकेशन’ का जरिया बनकर रह जाती है। आत्म-प्रसार आत्मालाप में तब्दील हो जाता है। बस्तर पाति के पाठक देखें इस कहानी में ‘कहानी’ किस सहजता से प्रवाहित है और बिना-ताम-झाम के समाप्त!
मरकाम जी आप बधाई के पात्र हैं- उम्मीद है आप कहानी/ साहित्य खूब पढ़ेंगे-खूब लिखेंगे, और हां, एक दिन आप इतने सक्षम हो जाएंगे कि इस कहानी को कम से कम तीन तरह से लिख सकेंगे। इस छोटी सी कहानी को लघु उपन्यास में बदल पाएंगे। शुभकामनाएं।
अन्य सर्वश्रेष्ठ कहानियों में हैं श्रीमती बकुला पारेख की ‘काश…!’ प्रस्तुत कहानी में मध्यमवर्गीय युवाओं में विदेशी शिक्षा, विदेशी वैभव (खुलेपन के बाद यह लगाव अमेरिका के प्रति हो गया है।) के प्रति मोह की कहानी है। इस ‘मोह’ में घरवाले भी घी डालते हैं। अमेरिका जाने का स्वप्न! चाहे जैसे भी हो, योग्यता या और कुछ! आज के समय का बहुत बड़ा भ्रम कि कुछ करना है तो अपनी जमीन छोड़ दो। लेखिका ‘मैं’ की शैली में कहानी आगे बढ़ाती हैं- विदेशी सपनों को सच करने के रास्ते आयी पेचीदगियों का सार्थक समावेश करती हैं और अंत मोहभंग से होता हैं। पर यहां भी मोहभंग तब होता है जब जीवन की सबसे बड़ी कीमत चुकाने की बात सामने आती है।
दरअसल यह पूरी कथा अमेरिका में पढ़ने, बसने के सपने को लेकर है, मगर यह कहानी उसकी वकालत नहीं करती, बल्कि विदेशी सपनों के पीछे का कड़वा यथार्थ प्रस्तुत करती है-जैसे महाभारत युद्ध की कथा होकर भी सिर्फ अहिंसा और सामंजस्य की ओर संकेत करता है- ठीक वैसी ही कथा टेकनीक लेखिका ने अपनी कहानी ‘काश….!’ में किया हैं। यह विदेश में सपने सच्चे करने की कहानी न होकर उसके प्रति लोगों को, खासकर युवा पीढ़ी को विदेशी सपने के प्रति सावधान करने की कहानी है।
कहानी ‘मैं’ की शैली में है मगर उसके ‘मैं’ का प्रसार अपने ‘बेटे’ के सपने पर केंद्रित है। वह बेटे के सच को जानती है। उसका संवाद अपने पति से यदा-कदा होता है- वे सब उस सपने में हिस्सेदार हैं। कुछ पड़ोसी भी हैं जो अन्तःक्रिया कर कहानी आगे बढ़ाते हैं। भाषा शैली सरल व सहज है। लेखिका ने कहानी के प्रारंभ में ही सुन्दर वातावरण का निर्माण किया है व अपनी रचनात्मक शब्द-शक्ति का परिचय दिया है। कहानी का प्रारंभ अत्यंत महत्वपूर्ण होता हैं, यह कहानी इस ओर उल्लेखनीय है।
कहानी के अंत को रेखांकित करना चाहूंगा। लेखिका मोहभंग की स्थिति होने पर यह नहीं प्रतिक्रिया व्यक्त करती (पात्र के रूप में) कि यह स्वप्न ही दुश्वार था, यह बेकार था, बल्कि एक बीमारी (एड्स) के बारे में कि पहले पता होता तो डॉक्टर से टेस्ट करा लेते! और यही ‘काश…!’ बन जाता है। सटीक शीर्षक!
इस गंभीर बीमारी के लिए ‘काश…..!’ शब्द पर कहानी खत्म करना असल में उस मोह की तरफ इशारा करता है- वह मोह और कुछ नहीं बस एच0आई0वी0 पॉजिटीव है, लाइलाज! इस तरह कहानी संकेतों से बहुत कुछ स्पष्ट करती है। विदेशी मोह एड्स की तरह प्रतीत होता है-कहानी सामाजिक समस्या को उठाती है। आर्थिक उदारीकरण के बाद विदेशी मोह बढ़ता ही जा रहा है। कहानी का प्रवाह अंत तक सहज है। बधाई!
कुमार शर्मा ‘अनिल’ की कहानी ‘पुरस्कार’-यहां लेखक पति और पत्नी जो एक साधारण गृहणी है, के बीच लेखक की प्रेयसी/प्रेरणा के रूप में आयी ‘दूसरी’ की कहानी है। लेखक घर-बाहर के तनाव को न झेल पाने के कारण आत्महत्या कर लेता है। दुनिया और लेखक की वैधानिक पत्नी, सभी उस ‘दूसरी’ को इसका जिम्मेदार मानते हैं। कहानी का प्रारंभ साहित्यिक पुरस्कार समारोह के दृश्य से शुरू होता है जहां मरणोपरांत वह साधारण गृहणी अपने पति की ओर से पुरस्कार लेने आती है। गृहणी के मन में बवाल उठ रहे हैं, वह ‘दूसरी’ आकर बैठ जाती है और कथा के शीर्ष के पूर्व अपना मत प्रकट करती है। दरअसल यह मत/विचार उस प्रत्येक ‘दूसरी’ या ‘दूसरियों’ की मनोदशा को जस्टीफाई करती है-इस एंगल से एक नयी दृष्टि पैदा होती है और पाठकों के साथ-साथ कहानी के मुख्य पात्र की सोच में भी यू-टर्न आता है। और जो ‘पुरस्कार’ का शीर्षक है वह नाटकीय ढंग से यहां बदल जाता है। क्लाइमेक्स में एंटी-क्लाइमेक्स सा घटता है। और एक नयी संवेदना उद्घाटित होती है। लेखक ने कहानी में ‘फ्लैश-बैक’ टेकनीक का सटीक प्रयोग किया है, कहानी पाठकों को अपने साथ बहा ले जाने में सक्षम है। भाषा शैली सघन व रियलास्टिक है-पात्रों के मनःस्थिति की रचना वास्तविक सी लगने वाले दृश्यों और संकेतों में की गई है।
कहानी एक सवाल उठाती है कि प्रेम यदि सहज व स्वतंत्र है, उम्र या स्थिति का बंधन नहीं, अर्थात प्रेम जो उन्मुक्त करता है-फिर प्रेमी या प्रेमिका के प्रति समाज इतना जजमेंटल क्यों हो जाता है ? खासकर स्त्री प्रेमिका के लिए-घरतोडू या कुलटा, इत्यादि शब्दों से विभूषित करनेवाला समाज! शायद प्रेम जैसे विषय में उठने वाले सवालों के लिए न सिर्फ भारतीय समाज बल्कि विश्व समाज भी अभी बौद्विक या भावात्मक स्तर पर तैयार नहीं हो पाया है। लेखक इस साहसी प्रयास, सच-बयानी के लिए बधाई के पात्र हैं। पाठक देखेंगे कि कहानी ‘पुरस्कार’ का शीर्षक किन मायनों में अचानक पलट जाता है और संवेदना का एक नया कोण हमारे समक्ष बड़े नाटकीय ढंग से पेश करता है।
प्रसंगवश कहना चाहूंगा कि हमारे पारंपरिक मिथक व लोककथाओं में नाटकीयता के भरपूर तत्व होते हैं जो कहानी में मोड़ तो लाते ही थे, नया अर्थ भी पैदा करते थे और कहानी रोचक! लेखक ने इस तत्व का आधुनिक लेखन में कहानी में सुन्दर प्रयोग किया है। बस्तर पाति सदैव अपनी परंपरा में लुप्त हो रही चीजों के प्रति सावधान है। हां, वे परंपरायें हमारे आधुनिक संदर्भ में साधक हों बाधक नहीं। लेखक को बधाई!
माला वर्मा की कहानी ‘पीर पर्वत सी पिघलने लगी’ स्त्री मनोविज्ञान की कथा है। कहानी भावनाओं में बहती हुई प्रवाहित होती है। मां-बेटा, पति और नई बहु के बीच ( पति का रिश्ता तटस्थ है- कहानी के अंत में संयोजक की भूमिका में) जटिल संबंधों की कहानी। कहानी भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार की घर-घर की समस्या है- बिना किसी एजेंडे के एक स्वाभाविक कहानी। स्त्री मन की जटिल गांठ को खोलने का प्रयास । इसे प्रचलित तरीके से सहज शैली में लिखा गया है।
आज टीवी सीरियलों में एकता कपूर’ ब्रांड पात्रों के बीच प्रस्तुत कहानी स्त्री मन को अवश्य ठंडक पहुंचायेगी। मन की जटिलता को हल्का करने का सुन्दर तरीका है तथ्य या सत्य से सामना किया जाय। बेटे की मां जो नई बहू के आने को लेकर अत्यंत संवेदनशील और रिएक्टीव हो गयी है-अंधकार में जीने को विवश है। मन के गहन अंधेरे में वह तिरस्कृत व कुंठित होती रहती है। इन सबका कारण मन की सत्यता, मन के छलावे को न समझ पाना है। कहानी इसी बिन्दु पर उंगली रखती है-विषय नया नहीं अपितु चिरपरिचित घरेलु है-बिना शोर-शराबे के सामायिक। स्त्री विमर्श की बड़ी बातों से लाखों मिल दूर और प्रभावशाली।
लेखिका को बधाई। कहानी में शीर्षक ’पीर (दर्द) पर्वत सी पिघलने लगी’- ‘पीर’ और ‘पर्वत’ में अर्थात दर्द का पर्वत सा बताने का मानो प्रयास है- जो कहानी के अंत में ‘पिघलने’ पर राहतदेती है। शीर्षक में ‘पीर’ और ‘पर्वत’ शब्द बड़ी दूरी का अहसास कराते हैं मगर कहानी है अपने घर की। बड़ी करीब!
कहानी में बेटे की भूमका कुछ ज्यादा अस्वाभाविक गढ़ा गया है-शादी के पूर्व तक जवान बेटा मां के साथ सोने का आदी है। (बचपन की आदत गई नहीं।) संभवतः इस अतिशय व्यवहार के बिना भी कहानी उद्देश्य की कतई क्षति नहीं होती -ऐसा बस्तर पाति के सदस्यों का मानना है। पाठक विचार करेंगे। प्रसंगवश कहना चाहूंगा कि कहानी दो तरह की हो सकती है-एक जहां साधारण में से असाधारण बात निकले-पाठक कथा के अंत में कहे कि अरे! हमने तो ऐसा सोचा ही नहीं, दूसरे कहानी स्वयं ही असाधारण घटना या प्रसंग या दृश्य लिए हो। जैसे कोई अंतरिक्ष यात्री मंगल ग्रह पर गया और उसे वहां के लोग मिले, बस्ती मिली। वह पृथ्वी आकर लोगों को बताता है। उसकी प्रत्येक बात, विवरण, दृश्य कहानी बन जायेगी। कौतुक!
पर व्यवहार में असाधारण घटनाएं या व्यवहार या मनोविज्ञान की तलाश आसान होती है ? दूसरे वह ‘असाधारणता’ किस पहलू को लिए है-घटना स्तर पर या मनोजगत पर या दृश्य या और कुछ ?
सार ये कि सिर्फ असाधारण घटनाएं या मनोजगत उठाने से ही कहानी असाधारण होगी, कतई ऐसा नहीं होगा। कहानी के कहानी होने क अपने नियम हैं।
फिलहाल प्रस्तुत कहानी में बेटे की आदत को (जो कि सामान्य नहीं हैं।) को मां के द्वन्द दृश्य में ‘कन्ट्रास्ट करते है।-गहरी लकीर खींच कर। इस कन्ट्रास्ट की कितनी जरूरत थी सुधि पाठक विचार करें। कहानी में कहीं-कहीं अति भावुकता का समावेश है।
‘प्रेम के रंग’- मनजीत शर्मा ‘मीरा’ द्वारा रचित है। आपने लोक/मिथक कथा तत्व का प्रयोग किया है। बस्तर पाति लोककथा, मिथक या पौराणिक कथा तत्वों का प्रयोग आधुनिक कहानियों के सन्दर्भ में हो- को बढ़ावा देता है। कुछ लोग भ्रम-वश सीधे लोककथा भेज देते हैं- जबकि हमारा आशय है लोककथा टेकनीक का प्रयोग! इस पर बस्तर पाति विमर्श आगे करती रहेगी।
प्रस्तुत कहानी में प्रेम जैसे जटिल विषय को फिर से परिभाषित करने का प्रयास किया गया है और लेखिका इसमें सफल हैं। आज के सन्दर्भ में युवक-युवतियां जहां स्वांग/दिखावे को ही प्रेम मानते और समझते हैं वहां प्रेम बिना आहट के, मौन भाव में किस तरह आकर्षित करता है-प्रस्तुत कहानी बखूबी वर्णन (दृश्यों में) करती है।
बधाई!
अब कुछ उन कहानियों के सन्दर्भ में जिन्हें यहां किसी श्रेणी में नहीं रखा गया है। कुछ तो मंझे हुए परिपक्व लेखक थे मगर सांचे में ढली (एजेंडाबद्व) रचनाएं भेजी। रचना सोद्देश्य हो कथा में मानवीय सरोकार हों हीं मगर उसका प्रस्तुतिकरण हमारे लिए अहम है। साम्यवादी क्रांति के बाद ऐसी रचनाएं थोक में लिखी गयीं, खूबसूरत, फैशनेबल नाम दे-देकर। आज इन्हीं के तर्ज पर अस्तित्ववादी लेखन चल पड़ा है- स्त्री, दलित, पुरूष विमर्श इत्यादि। कितना अजीब है- किसी भी समस्या को फैशन के तौर देखा और लिखा जा रहा है। नये हिन्दी पाठकों को लगता है- यही हिन्दी साहित्य है। यहां प्रबुद्धजनों, विचारकों, लेखकों को थोड़ा ठहरकर विचार करने की जरूरत है। हमारी अपनी स्पष्ट सोच है- मानवीय संवेदना सर्वोपरी और किसी रंग के झंडे की तीमारदारी नहीं। आपने देखा हैं माला वर्मा की कहानी ‘परिवार’ तोड़ती नहीं, टूटने से बचाती है। भारतीय परिवार विश्व भर में अनूठा है। इस परिवार के विषय में कोई यूरोपीय या कोई भारतीय जो यूरोपीयन/ अमेरिकन चश्मा लगाए हुए है, वह क्या देख पाएगा ? ठीक वैसे ही हम अपने चश्मे से पश्चिमी व्यक्तिवाद को कितना समझ पाएंगे। साफ है- हम किसी फैशन के तहत ‘चीजों’ को नहीं देखना चाहते, रचना को रचना रहने दे और हां, मानवीय संवेदना, पर्यावरण, युवा वर्ग को सही दृष्टि से देखें, यही हमारी प्राथमिकता है।
इस प्रतियोगिता के बहाने एक सवाल नये-पुराने सभी रचनाकारों से कहना चाहूंगा कि वे हिन्दी साहित्य का भविष्य कुछ बेहतर हो- इसके लिए कभी कुछ तो सोचा होगा। हमारी सोच तो ये है कि सोलह वर्ष से लेकर चौबीस-तीस वर्षीय युवा-वर्ग को केंद्रित कर रचनाएं लिखी जाएं। हम इन्हें प्राथमिकता दें, उनकी सुनें, उनसे लिखवाएं व उनके अनुरूप विशेषकर वरिष्ठ साहित्यकार रचनारत हों। युवाओं को जोड़ना ही होगा- उन युवाओं को जो इंटरनेट, टीवी, मोबाइल, एक बाइक, एक वाईफ (शादी से पहले वाली अर्थात् गर्लफ्रेंड) और अमेरिका के सपने देखता है। काम आसान नहीं है। बस्तर पाति में ऐसी रचनाओं का स्वागत है। आप ऐसे पात्रों-परिवेश की रचना करें- रचना में स्वतः ताजगी आएगी, मगर क्या कहते हैं- यह जो प्याली चाय से पूरी तरह भरी हुई है- कुछ खाली हो तो नई बात के लिए जगह बने। इति्।