बैंकों की लूट
न जाने कबसे देश का गरीब किसान और मजबूर महाजनों के चंगुल में फंसा रहा। ऐसा चंगुल, ऐसा त्रुटिहीन जाल जिसमे एक बार फंसे हुए आदमी का बचना नामुमकीन। ऐसी महाजनी व्यवस्था जो एक बार फंसे व्यक्ति को जोंक से भी बदतर तरीके से चूस कर तड़पाये। उस महाजनी व्यवस्था के कर्जे पीढ़ियों तक चुकाये जाते रहे तब भी खत्म न हुए। भूमिहीन होने के बाद अपने बच्चों को गुलाम बनाकर बेचे, उन्हीं महाजनों को बेचे तब भी उनके कर्ज खत्म नहीं हुए! ऐसी लूटमार वाली व्यवस्था में न जाने कितने लोग जानवर बने हुए पीढ़ी दर पीढ़ी जी रहे थे तब भी आवाज उठाने वाला कोई न था। इस व्यवस्था को आजाद भारत में भी चलते हुए कई साल बीत गये तब न जाने कैसे सरकार की आंखों की नींद पर डाका डाला और बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। अब लोगों को ऋण लेने के लिए एक और रास्ता खुल गया था। सूरज की उजली किरणों से गरीबों के घर रोशन हो रहे थे। पर क्या ऐसा हुआ! बैंक, महाजनों के सभ्य तरीकों से पेश आने वाले क्लोन नहीं बन गये ? महाजन कैसे अपनी सत्ता छोड़ देते वे ही तो घुसे हुए थे राष्ट्रीयकरण के वक्त। पहले महाजनों के एक्का दुक्का केस होते थे जिसमें वे लोगों को कर्जे के लिए उकसाते थे या परिस्थितियां गढ़ते थे। और अब! अब तो सारे आम बैंक लोगों को कर्जे में फंसाने का प्रयास कर रहे हैं। जिस भावना से बैंको का राष्ट्रीयकरण किया गया था वे आज उस भावना के ठीक विपरीत कार्य कर रहे हैं। ब्याज चक्र के साथ नये-नये कर्ज देते जाते हैं और फिर वही लाचार स्थितियां पैदा कर देते है। बैंको की बेईमानियों का कच्चा चिठ्ठा तैयार किया जाय तो महाभारत और रामायण सरीखे ग्रंथों की मोटाई भी पार हो जायेगी। उन बेईमानियों में से एक ताजा तरीन बेईमानी है- ATM की सुविधा! ‘बैंक अपने ग्राहकों को सुविधा देने के लिए प्रतिबद्ध है।‘ ‘हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ?’ ‘ग्राहक देवो भवः’ और न जाने क्या-क्या कोटेशनों से बैंक अपना मोटो बनाते हैं अपने बैंक की दिवारें रंगते हैं। वास्तव में ATM ग्राहकों को सुविधा देने का एक बेहतरीन तरीका है। इस सुविधा से बैंकों में लगने वाली लाइन से ग्राहक बच रहा है। ATM पर जाकर लोग आसानी से पैसे निकाल लेते हैं। जगह-जगह ATM खुलने से बैंक तक जाने का वक्त बच रहा है। इस तरीके से कुल मिलाकर लोगों का समय बच रहा है। पर क्या यह घोषणायें सही है ? यह दावा गर्वोक्ति सही है ? बैंक किस आसानी से लोगों को बेवकूफ बना रहा है सोचें। बैंक अपनी सुविधायें लोगों को दे रहा है या फिर खुद के लिए सुविधाजनक वातावरण बना रहा हैं ? बैंक अपने यहां कर्मचारियों की नियुक्ति न कर ग्राहक से ही काम करवा रहा है- कह रहा है अपने खातों का संचालन खुद करें। अपने खाते खुद खोले, खुद ही एफडीआर बनायें। ये बातें किस हद तक ग्राहकों के लिए सुविधायें हैं ? ये तो सरासर ग्राहकों का शोषण है। हमारे ही पैसांं से यानी ग्राहकों के पैसों से बैंक चल रहा हैं और ग्राहक को इन पैसों को जमा करने में परेशानी, निकालने में परेशानी, घण्टों समय खराब करके लोग बैंकों को पाल रहे हैं और बैंक है कि नये कर्मचारियों की भर्ती न कर, नये बैंक न खोलकर जनता को दूसरी ही तस्वीर दिखा रहे हैं। सरकार जनहित में कार्य करने का ढोंग करके उससे पैसा बनाने में लगी है। अगर बैंक लोगों से पैसे लेकर उस पैसे से कमा रहा है तो व्यवसाय है और गली के नुक्कड पर चाय बेचने वाला भी मुफ्त में पानी पिलाता है, चार ईट रखकर चाय पीने वालों के लिए बैठने की व्यवस्था करता है। तो फिर जनता को जोंक बनकर चूसने वालां के लिए कोई धर्म नहीं हैं ? न तो हर बैक में हर ग्राहक के बैठने की सुविधा है न ही पानी है। न ही फार्म भरने में मदद के लिए आदमी है न तो पेन दिया जाता है। इसके बाद भी हर मूलभूत सुविधा का चार्ज लिया जाता है। पासबुक 20-50 रूपया, गुमने पर ऍफ़ आई आर कराओ यानि पुलिस को दक्षिणा, खाता खुलवाने पर मिनिमम बैलेंस रखना जरूरी एटीएम सुविधा का 100 से 200 रूपया, एफडीआर रिन्यूअल नहीं कराया तो उस तिथि से आगे का ब्याज नहीं मिलेगा। ATM से पैसा निकालो तो पैसा कटेगा। उसी शहर की दूसरी ब्रांच से पैसा जमा करने पर चार्ज काटना। चालू खाते पर बैंक की सुविधा देखें, स्टेटमेन्ट लेने का पैसा, डीडी बनाने का पैसा, डीडी केन्सिल कराने का पैसा, मिनिमम बैलेंस कम होने पर पैसा काटना, फेहरिस्त लंबी होती जायेगी। इस आलेख का विषय है एटीएम, एटीएम के उदाहरण से जनता जाने कि बैंक किस तरीके से लूट मचा रहे हैं। बैंकों द्वारा हर साल अरबों खरबों कमाने के बाद भी उनकी कमाई कहां जा रही हैं ? खुद के लिए नये टेबल कुर्सी खरीदने में, खुद के लिए AC लगाने में, खुद के लिए केन्टिन खोलने में, खुद की तनखा बेहिसाब बढ़ाने में, खुद के लिए कम दर पर लोन दिलवाने में। नया बैंक यदा-कदा खुलता है। एटीएम धड़ल्ले से खोले जा रहे है। वे तो पुरानी मान्यताओं पर चलते हुए 63-64 के बाद से आज ब्याज वसूलने और ग्राहक की जेब काटने पर जरा भी विचार नहीं करते हैं तो फिर वे नई मान्यताओं के चलते अपने लिए सुख सुविधाओं का वातावरण क्यों बनाते हैं। वे भी रहे थे न पुरानी मान्यताओं के अधीन! जरा-जरा सी लगने वाली राशि दिन भर में ही करोड़ों हो जाती हैं। मान लो एटीएम से पैसा निकालने पर 30 रूपये लगते हैं। एक एटीएम से दिनभर में 100 आदमी औसत रूप से पैसा निकालते होंगे तो देश के 50,000 एटीएम के लिए सरचार्ज की राशि हुई – 30’100त्र 3,000 रूपये प्रतिदिन प्रति एटीएम! यानि एक माह की राशि 3000’30त्र 90,000रूपये। इसके बाद पूरे देश के एटीएम का हिसाब होगा 90000’50000त्र 450000000 रूपये।(मात्र पैंतालिस करोड़ रूपये)
बैंक नये बैंकों को खालने की राशि तो बचा ही रहा है और साथ में प्रति माह प्रचालन खर्चों को भी बचा रहा है। प्रति बैंक एक बाबू, एक मैनेजर, एक चपरासी का खर्च, बिजली, पानी, भवन किराया, केन्टीन का खर्च, अपने कर्मचारियों को दिये जाने वाले भत्तों का खर्च (होम अलाऊंस ज्।ण्क्। अखबार, कूरियर स्टेशनरी आदि) बचा रहा है जो कि प्रतिमाह कम से कम 1,50,000 रूपये होता हैं और अब उसकी लालची नजरें उपभोक्ताओं को लूटने पर लगी हैं। अपनी इस बात को उपभोक्ताओं को न बताकर वो बता रहा एटीएम की स्थापना के खर्चे, गार्ड का खर्चा, किराया, बिजली आदि। एटीएम से इस पैसे निकासी का, पैसा लेने को आधार बनाकर भविष्य में बैंक के भीतर जाकर पैसा निकालने का भी चार्ज लगाया जायेगा। जो कि करेन्ट अकाउंट में छोटे नोट लेने पर लिया जाता है। बार-बार यही ध्यान आता है कि हमारा ही पैसा और हमें सुविधा नहीं। हमारे छोटे-छोटे पैसों के आधार पर बड़े लोन बांटे जाते हैं। हमारे पैसों से ही यहां पैसों की तरलता बनी रहती है इसके बाद भी सेविंग अकाउंट वाले ही उनकी आंखों में खटकते हैं। और बैंक वाले हैं कि लोन लेने वालों को सर पर बैठाते हैं।