अब और क्या लिखूं!
लाला जगदलपुरी और बंशीलाल विश्वकर्मा जी की जुगलजोड़ी जो बस्तर के कला एवं साहित्य के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है इन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में जो मूलभूत कार्य किये हैं वे इस क्षेत्र की धरोहर हैं। वर्तमान में जितना कुछ भी कला एवं साहित्य के परिदृश्य में दिखाई पड़ रहा है वो सारा कुछ इन दो महानुभाओं का किया धरा है। इन दोनों की जलाई अलख ने वर्तमान को रोशनी से तर-बतर कर दिया है। बचपन से अभिन्न मित्र रहे दोनों ने निस्वार्थ भाव से कला को वो ऊंचाईयां दी है जो कि अविश्वसनीय हैं। न जाने कितने ही साहित्यकारों का कार्य लालाजी की प्रेरणा से प्रभावित हुआ और उन साहित्यकारों ने अपना नाम पूरे देश में रोशन किया। उनकी साहित्य साधना कबीर की तरह थी जो कि आम जन के लिए ही रची गयी। वे कबीर की ही तरह फक्कड़ मिज़ाजी थे साथ साहित्य के धुनी भी। उन्होंने जो काम साहित्य, लोक साहित्य, लोकबोली, लोक संस्कृति के लिए किया वह कईयों के जीवन के लिए प्रकाश स्तंभ बन गया। उनके रचे साहित्य से उन लोगों ने नाम कमा लिया और लालाजी एक योगी की तरह शांतचित्त से अपने कर्म में लगे रहे। गीता के वाक्य ‘कर्म किये जा फल की चिन्ता मत कर।’ को अपने जीवन का आधार बनाया और अपने रचे साहित्य को जीवन में उतारा। वर्तमान के ‘थोथा चना बाजे घणा’ को दूर से ही राम-राम कर दिया। आज के दौर में चलने वाली तकनीक, जिससे दो साहित्यकार एक दूसरे को स्थापित करने में लगे होते हैं उनसे कोसों दूर कुछ ऐसा रचा कि आज की दुनिया अचंभित है और उनके मूल्यांकन को आतुर है। समय पे मूल्यांकन न कर पाने की गलती का अहसास है। आईये हम कला के हिमालय से साहित्य के हिमालय के संबंध में कुछ और जानने का प्रयास करें जो अब तक राज ही रहा। ये जानने का प्रयास कर रहे हैं भरत कुमार गंगादित्य, जिन पर लालाजी का आशीर्वाद बना रहा।
भरत-दादाजी (बंशीलाल विश्वकर्मा) आपके लालाजी के साथ संबंध थे ये तो हम सभी भली भांति जानते हैं पर वे संबंध कैसे थे ? किस तरह से आप एक दूसरे से जुड़े हुए थे ? जरा विस्तार से बताएं।
बंशीलाल विश्वकर्मा जी-मैं और लालाजी बचपन के ही मित्र थे। हम दोनों ने अपना बचपन लगभग साथ ही गुजारा था क्योंकि जगदलपुर छोटी बस्ती थी और मेरा उनके मुहल्ले में और उनके घर की ओर आना-जाना लगा रहता था। उनके घर में हमेशा मैं पहुंच जाता था।। उनकी माताजी भी मुझे चाहती थीं। एक तरह से घरोबा था हमारे संबंधों में। बचपन की खेलकूद के बाद हम दोनों धीरे से कला और साहित्य से जुड़ गये। हमारी दोस्ती अब चर्चाओं में बीतने लगी। मैं भले ही साहित्य से सीधे तौर पर नहीं जुड़ा था परन्तु एक कलाकार हूं इसलिए मन से जुड़ा था। मेरे चित्रकार होने से लालाजी प्रभावित थे, वे साहित्यकार थे इसलिए मैं उनसे प्र्रभावित था। इस प्रकार हमारे बीच लगाव था।
भरत-उन्होंने साहित्य सृजन कब से शुरू किया और उनके लेखन का झुकाव किस ओर था, मसलन प्रेमगीत अथवा कहानी या फिर और कुछ ?
बंशीलाल विश्वकर्मा- मेरा उनका जब से परिचय हुआ तब से ही मैंने उन्हें सृजनरत ही देखा। वे लेखन के प्रति बेहद अनुरागी थे। दुनिया के तमाम जरूरी कामों की जगह वे लेखन को ही तरजीह दिया करते थे। इस कारण उनके घर-परिवार में भी खटपट होती तो वे उसकी चिन्ता नहीं करते थे। अगर मैं एक लाइन में कहना चाहूं तो यही कहूंगा कि वे लेखन के लिए ही इस दुनिया में आये थे और उन्होंने अपने रचनाकार, सृजनकर्ता का स्वप्न पूरा किया। उन्होंने सबकुछ रचा है परन्तु उनके भीतर की संवेदनशीलता हमेशा उन्हें इस क्षेत्र के आदिम जीवन की ओर खींच लेती थी इस कारण वे अपने आप को उनके बीच पाते थे। उन्होंने साहित्य संबंधी जो भी कार्य किया उसमें से बहुत कुछ बस्तर के संदर्भ में ही किया।
यहां की भाषा-बोली को लेकर उन्होंने बहुत कुछ संकलित किया। उनके पूर्व अन्य किसी ने ऐसा काम नहीं किया था, ऐसा मेरा मानना है। स्थानीय हल्बी-भतरी और गोंडी बोली के मुहावरे, व्याकरण, शब्दकोष तैयार किया। इन बोलियों में प्रचलित लोकगीत, कहानियों का संकलन किया। उन्होंने स्वयं भी अनेक लोकगीतों की रचना भी की। उनके द्वारा किये गये कार्य ही मूलभूत कार्य हैं जिनके आधार पर ही वर्तमान में अनेक शोधार्थी और भाषाविद् अपना शोध कार्य आगे बढ़ा रहे हैं। उन्होंने मुंशी प्रेमचंद की कहानियों का हल्बी में अनुवाद किया। हल्बी में भजन भी लिखे।
हिन्दी गीत-ग़ज़लों का तो जखीरा था उनके पास। उनका विशेषरूप से चर्चित ‘मिमयाती जिन्दगी दहाड़ते परिवेश’ ग़ज़ल-संग्रह है। मैंने अपने जीवन एकमात्र ऐसा व्यक्ति देखा जो रातदिन केवल और केवल साहित्य के लिए जीता था। साहित्य उनके लिए सांस की तरह था। वे हमेशा होने वाली गोष्ठियों में अपनी नई रचना ही सुनाना पसंद करते थे। आज मैं देखता हूं कि कुछ कवि तो दो-चार रचनाएं ही सुनाते रहते हैं। वे वर्तमान दौर की सोच से कहीं आगे थे। वे रचनाओं के माध्यम से क्रांति की अपेक्षा रखते थे।
भरत-लालाजी के समय कौन-कौन साहित्यकार गोष्ठियों में सम्मिलित होते थे ? क्या कभी उन्होंने कोई बड़ा कार्यक्रम किया था ?
बंशीलाल विश्वकर्मा-उस दौर के लगभग सभी साहित्य से जुड़े लोगों ने लालाजी का साथ पाया था। गंगाधर सांमत, , लख्मीचंद जैन, रघनाथ महापात्र, रऊफ परवेज़, लक्ष्मीनारायण पयोधि आदि। बस्तर का साहित्यिक इतिहास बड़ा ही सम्पन्न था। अपने यहां कई बड़े नामचीन साहित्यकार किसी न किसी कारण रह चुके थे जैसे-धनंजय वर्मा, नेमीचंद जैन आदि। शानी और उनका आपस का प्रेम तो जगदलपुर में शानी के सम्मान में दिखा था, जब शानी का सम्मान किया गया तो वे स्वागत हार लेकर लालाजी के गले में पहना दिये और दोनों गले लगकर अपनी और उपस्थित दर्शको की आंखें भीगो दिये।
उनके द्वारा बड़े कार्यक्रम का विरोध किया गया था। तरूण साहित्य समिति के माध्यम से एक बार अखिल भारतीय कविता एवं शायरी सम्मेलन का आयोजन किया गया। उस वक्त रऊफ परवेज़ साहब आयोजन कमेटी के अध्यक्ष थे। लालाजी एकदम से इस आयोजन के विरोध में आ गये और बोले इतने बड़े और नामचीन कवियों को बुलायेंगे, इस छोटी बस्ती में कैसे व्यवस्था होगी ? उनका हमारी अव्यवस्था से अपमान हो सकता है। ऐसे में हमें शर्मिन्दा होना पड़ सकता है।
यह कहकर कार्यक्रम की आयोजन समिति से नहीं जुड़े और कार्यक्रम में भी भाग नहीं लिया। वह कार्यक्रम बहुत सफल कार्यक्रम था। उस जमाने की उपलब्ध अल्प व्यवस्थाओं में भी जैसा कार्यक्रम सम्पन्न हुआ वैसा तो आज तक देखने को नहीं मिला।
वैसे लालाजी साहित्यिक गोष्ठियों मे लगातार सम्मिलित होत थे और वे लगातार होने वाली इन गोष्ठियों को साहित्य की जड़ मजबूत करने वाला मानते थे। उनके कथन में सच्चाई थी और है, तभी तो उस दौर की ‘उद्गम साहित्य समिति’, ‘तरूण साहित्य समिति’ और वर्तमान में ‘आकृति’ संस्था के लगातार प्रयासों से इस पिछड़े माने जाने वाले क्षेत्र में भी साहित्य की मशाल लगातार जल रही है। इन समितियों के माध्यम से न जाने कितने ही लोग साहित्य से जुड़े उनकी ठीक जानकारी नहीं है क्योंकि कई तो गोष्ठियों में अपनी उपस्थिति दर्शाते थे और कई यूं ही मिलजुलकर चले जाते थे।
भरत- लालाजी अपनी रचनाओं के प्रकाशन के संबंध में क्या सोचते थे ?
बंशीलाल विश्वकर्मा-इस मामले में वे बड़े ही संकोची थे। वर्तमान समय में देखता हूं तो सोचता हूं कि कुछ कवि ऐसे हैं जो खुद को आगे करने में न जाने किस-किस की कविताओं को, कहानियों को अपने नाम से छपवाकर आगे बने रहते हैं और एक लालाजी थे जो अपनी रचनाओं के प्रकाशन के संबंध में क्या कहते थे गौर फरमाईये-लिखता तो बहुत हूं। ढेरों रचनाएं पड़ी हैं घर में, जिन्हें कोई पूछने वाला ही नहीं है। अब और क्या लिखूं ?
इसके बाद मैंने कहा आप बस्तर के संदर्भ लिखिए हम ‘आकृति’ संस्था के माध्यम से प्रकाशित करेंगे आपकी पुस्तक। तब जाकर उन्होंने ‘बस्तर का लोकसाहित्य’ लिखा और हमने आकृति के माध्यम से प्रकाशित कर विमोचन करवाया। उनका मुख्य ग्रंथ था ‘बस्तर : लोककला एवं संस्कृति’।
भरत- लालाजी को आज वह सम्मान नहीं मिल पाया जो कि बहुत से छोटे-मोटे रचनाकारों को मिल गया। ऐसे में आप क्या सोचते हैं उनके लिए ?
बंशीलाल विश्वकर्मा-यह इस क्षेत्र की विसंगति है कि यहां के ख्यातिनाम कलाकारों और साहित्यकारों का मात्र उपयोग किया जाता है, उनकी कृतियों की चोरी और बदलाव के बाद अपने नाम से वाहवाही लूटी जाती है। साहित्यकार बेचारा चुपचाप अपने ही आगे अपनी कृतियों का ऐसा होना देखता रह जाता है। लालाजी भी इस नीति के शिकार हैं उनके द्वारा रचित साहित्य नष्ट हो रहा है, चोरी हो रहा है। बचे हुए साहित्य का संरक्षण किया जाना चाहिए। लालाजी की एक प्रतिमा इस शहर में लगानी चाहिए जिससे उनका सम्मान इस क्षेत्र में बना रहे, उनका साहित्यिक योगदान लोग न भूल पायें। कम से कम उनके नाम से शहर की एक सड़क का नामकरण होना चाहिए। मैं खुद भी चाहता हूं कि हम कलाकारों एवं साहित्यकारों के सहयोग से उनके नाम पर एक सम्मान भी शुरू कर सकें तो अच्छा हो। खैर लालाजी हमारे बीच हैं और रहेंगे।