लघुकथा-पवन तनय हरि-दादी की ममता

लघुकथा

दादी की ममता

चिलचलाती धूप पड़ रही थी, दोपहर के दो बजे का समय था। ऐसे में बूढ़ी दादी अपने पोते मयंक की प्रतिक्षा में खड़ी पसीन से भीग रही थी। मयंक प्रतिदिन इसी समय पाठशाला से लौटता है। दादी ही उसके लिए दरवाजा खोलती है। दरअसल पिछले दिनों दोपहर के समय उस कालोनी में हुई चोरियों की वजह से बेटे का कड़ा आदेश था कि दरवाजा बंद रखा जाए। ऐसे में मयंक की मां तबियत खराब होने का बहाना बनाकर बिस्तर पर लेटी रहती। दादी के भीतर पोते को लेकर इतनी ममता थी कि वह खुद ही समय का ध्यान करके उसकी प्रतीक्षा में फाटक के पास खड़ी रहती, ताकि पोते को धूप में खड़ा होकर फाटक खुलने का इंतजार न करना पड़े।
आज न जाने क्यों मयंक समय हो जाने पर भी पाठशाला से नहीं लौटा था। वैसे भी कल शाम से वह दादी से नाराज चल रहा था। पाठशाला जाते समय भी वह उनसे नहीं बोला-बतियाया था। कल जब खेलने के लिए वह कहीं बाहर जा रहा था तो दादी ने रोक दिया था कि आज उसे खेलने नहीं जाने देंगी। उसे पढ़ना होगा। नये विद्यालय में प्रवेश के लिए परीक्षा जो देना है। पोते को यह बात अच्छी नहीं लगी थी। उसने दादी को अपशब्द बोल दिये थे। दादी को बुरा तो लगा पर हमेशा की तरह सब सह गयी थी। पोते की मां भी अक्सर उसके साथ झगड़ते हुए अपशब्द बोलती थी। पोता क्यों न बोलता।दादी की नजर ने अचानक देख लिया कि मयंक जानबूझकर बराबर वाले मकान की छाया में खड़ा अपने दरवाजे की ओर देख रहा है। साफ था कि वह दादी से बात नहीं करना चाहता था। दादी ने झट से सांकल खोलकर उसे आवाज दी, पोते ने मुंह घुमा लिया जैसे उसने सुना ही न हो। दादी उसे लिवा लाने के लिए आगे बढ़ी, वह भाग खड़ा हुआ, दादी ने कोशिश की कि तेज कदम रखकर उसे पकड़ ले, इसी वजह से वह लड़खड़ाई और गिर पड़ी। गिरते ही उसकी बाजू टूट गयी।
दादी अपनी जगह पर पड़ी दर्द से बिलबिला रही थी, जबकि पोता उनके निकट से निकलकर मकान के भीतर जा चुका था।


पवन तनय अग्रहरि अद्वितीय
पुराना चौक, श्री देववाणी विद्यालय के सामने, शाहगंज
जौनपुर उ.प्र.
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