लाला जगदलपुरी-संस्मरण : भरत कुमार गंगादित्य

संस्मरण : भरत कुमार गंगादित्य

बात तब की है जब मैं ‘आकृति’ की कवि गोष्ठियों में नियमित जाने लगा था। ‘आकृति’ संस्था ने बस्तर में चित्रकारों एवं साहित्यकारों को आगे लाने में जो योगदान दिया है, उसे कभी नकारा नहीं जा सकता। ‘आकृति’ का गठन नगर के कुछ सुधिजनों ने किया, पर इसे मूर्तरूप श्री बंशीलाल विश्वकर्मा जो कि प्रसिद्ध चित्रकार हैं, दूसरे श्री सुरेश विश्वकर्मा ‘चितेरा’ जो कार्टूनिस्ट के रूप में अपनी एक सफल पहचान बना चुके हैं, ने दिया। ‘आकृति’ सभागार में प्रत्येक अवसरों में होने वाली कवि गोष्ठियों में प्रमुख कवियों के रूप में श्री लाला जगदलपुरी, श्री रउफ परवेज, श्री हुकुमदास अचिन्त्य की उपस्थिति होती थी। इनके अलावा शहर के अन्य कवि भी होते थे। चूॅंकि आकाशवाणी जगदलपुर से हल्बी लोक गायन, मैंने अपने कला समूह के माध्यम से स्वर परीक्षण उत्तीर्ण किया था, अतः गायन शैली में अपने स्वरचित छत्तीसगढ़ी एवं हल्बी गीतों को कविगोष्ठी में भी गाकर प्रस्तुत किया करता था। उम्र में भी छोटा होने की वजह से सभी का लाड व दुलार मिलना ही था।
बात यहां पर लाला जगदलपुरी जी जिन्हें मैं ‘दादा जी’ संबोधित करता था उनसे संबंधित है। अक्सर उनके द्वारा भी हल्बी की रचनायें प्रस्तुत की जाती थी, जिसमें विशेषकर बस्तर से संबंधित रचना ‘भूंई बस्तर आयं’ किया करते थे। मेरे पास सांस्कृतिक दल भी था, व इसी बीच कलाकारों के मध्य हल्बी छत्तीसगढ़ी के एलबम निकालने का दौर भी चल पड़ा था। अतः ‘आकृति’ में चर्चा के दौरान आकृति के अध्यक्ष दादा बंशीलाल विश्वकर्मा जी ने कहा कि ‘गंगादित्य, यदि इनकी रचनाओं की अच्छी धुनें बन जायें तो उस पर एक अच्छी कैसेट बन सकती है। सुनकर उन्होंने भी हामी भरी और कहा कि ‘मैं अपनी रचनाएॅं तुम्हें देता हूॅं, इसकी अच्छी प्रस्तुति करना, यदि रिकार्डिंग न भी हो तो अपनी मंचीय प्रस्तुति में इनका उपयोग किया करना।’ फिर उन्होंने शहर के स्मृति प्रिंटर्स से अपनी आंचलिक रचनाओं का प्रकाशन करवाया एवं प्रकाशन के उपरांत उसकी एक प्रति मुझे दी। मैंने उन रचनाओं को पढ़ा व गेय रचनाओं की धुने तैयार की। जब एक शाम ‘आकृति’ में उनके गीतों की एक संगीतमय प्रस्तुति हुई तो उस प्रस्तुति में मेरे गायन के साथ-साथ मेरे वाघ यंत्र के सहयोगी भी सम्मिलित हुये। इस प्रस्तुति में ‘आकृति’ के आयोजकगण के साथ-साथ मैंने लाला जगदलपुरी दादा जी के चेहरे पर भी एक अद्भुत खुशी देखी। उन्होनें ढेर सारा आशीर्वाद दिया। चरणस्पर्श के पश्चात सर पर हाथ रखा कहा कि ‘बहुत अच्छा है। मॉं सरस्वती की कृपा तुम्हारे साथ है। अपनी मंचीय प्रस्तुति आदि के लिए मेरी रचनाओं का उपयोग करने की तुम्हें भरपूर आजादी है। इसके साथ ही एक प्रयोग यदि कर सकते हो तो और करना, मेरे पास हिन्दी में लिखी गज़ले भी है, उनकी भी धुनें बनाना।’ यह कह अपनी हिन्दी गज़लों की किताब तो मुझे दी ही, साथ ही अन्य गीतिय रचनाएॅं-सरस्वती वंदना, कंकालिन वंदना, मॉं दंतेश्वरी प्रार्थना बन्दा बैरागी काव्यखंड व गुरू गोविन्द सिंह रचनाओं को भी प्रदान किया। तब से लेकर अब तक लोक कला प्रस्तुति के दौरान उनकी रचनाओं से कोई रचना चाहे मघनिषेध की हो, चाहे बस्तर माटी से संबंधित हो या अन्य दृश्य प्रसंग से संबद्ध हो, अपनी कला प्रस्तुति अवश्य करता हूॅं। एलबम बनाने की योजना तात्कालिक रूप से स्थगित कर दी गई, परंतु गीतों को यदि स्वर मिले एवं स्वर को श्रोता तभी गीतों की प्रस्तुति सार्थक होती है। इसी प्रकार उन्होंने सटीक गीत लिखे, एवं उनके लिखे हुए गीतों को श्रोता व दर्शकों तक पहुॅंचाना मेरे स्वर के माघ्यम से होता आया, इसके लिये मैं स्वयं को गौरवान्वित पाता हूॅं। अपनी नाट्य प्रस्तुतियों के बीच जब भी कोई मौका मिलता है, उस अनूठे कलमकार की रचनाओं को लोककला मंच में पिरोकर जब भी प्रस्तुत करता हूॅं तो देखकर या सुनकर दर्शक व श्रोता रोमांचित हो उठते हैं।
उनसे जुड़ी हुए यादों में और भी प्रसंग हैं। अक्सर उनके डोकरीघाट में स्थित कवि निवास में जब जाना होता था, तब वे अपनी यादों के संबंध में भी चर्चा किया करते थे। उन्हें जब पं. सुन्दरलाल शर्मा सम्मान मिला तब उन्होंने कहा था कि ‘देखिये, दो लोगों को ये सम्मान मिला है। एक और सज्जन है उनके द्वारा खुद के सम्मान के लिए नाम प्रस्तुत किया गया था जबकि हमने हमारा नाम प्रस्तावित नहीं किया, हमें यह सम्मान बिना मांगे ही सरकार द्वारा दिया जा रहा है। हमने कभी सम्मान की चाह नहीं की।’ उनकी निश्छलता व सरलता दूसरी चर्चा में दिखती है। जब वे इस सम्मान को लेकर आए तब उनसे मिलने मैं उनके पास गया, उस दरम्यान उन्होंने हॅंसते हुए बताया कि रायपुर में जब उन्हें ठहराया गया, तब उनके लॉज में जो शौचालय था, वह पाश्चात्य ढंग से बना था। तब उन्होंने आयोजकों से कहा कि जहॉं भारतीय ढंग का शौचालय हो, वहॉं मुझे ठहरायें तब उनके लिए उनके मन के मुताबिक लॉज की व्यवस्था हुई। मैंने शुरूआत में उन्हें अपनी लिखी कवितायें दिखाई थी, तब उन्होंने सराहना की व कहा कि ‘लिखना, निरन्तर लिखना।’ उनसे रचना धर्मिता के संदर्भ में जो मुझे प्रेरणा मिली, वह मेरा धन्यभाग्य। एक बात और जो मुझे याद आ रही है, वह है ‘आकृति’ के द्वारा उनका जन्म दिवस मनाया जाना। ‘आकृति’ ने उनका जन्म दिवस धूमधाम से मनाया एवं कवि गोष्ठी भी रखी गयी थी। उस अवसर पर भी मैं पूरे आयोजन में सहभागी बना था।
लाला जगदलपुरी जी के निधन की सूचना मुझे सनत भैया के एसएमएस से मिली। एक रचना संसार के धनी व्यक्तित्व के अंतिम यात्रा में सम्मिलित होकर उनके दाह संस्कार में मैंने देखा कि साहित्यक जगत, रंगमंच कला जगत व समस्त पत्रकारों ने अपनी श्रद्धांजली वहॉं उपस्थिति देकर प्रदान की। वह दुपहरी भुलाये नहीं भूलती, जहॉं एक अनूठा कलमकार, अपने जीवन से विदा लेकर चिर निद्रा मे लीन था। अंतिम विदाई तो उन्हें हम सभी ने दी परन्तु उनकी प्रेरणा, सादगी व नियमितता की प्रेरणा देती जीवन शैली एक बानगी के रूप में अपनी यादों के साथ हमारे जेहन में हमेशा रहेगी। साहित्य के इस धनी कलम के अदभुत चितेरे को इस पत्रिका ‘बस्तर पाति’ के माध्यम से श्रद्धांजली प्रदान करता हूॅ।

भरत कुमार गंगादित्य
जगदलपुर, छ.ग.
मो.-09479156705