लाला जगदलपुरी-संस्मरण-त्रिलोक महावर

लाला जगदलपुरी : सहज व्यक्तित्व के धनी साहित्यकार

लाला जी से मेरी पहली मुलाकात हुई तब वे पचपन के थे और मैं बचपन में। उन दिनों जगदलपुर एक बड़ा कस्बा था जो धीरे-धीरे शहर का आकार ले रहा था। प्रतापगंज मोहल्ले में पान वाले गुरू की दुकान से लगभग लगी हुई गनी आमीपुरी की दुकान थी, जहां वे कपड़ों पर इस्तरी करते थे। अपने कपड़े इस्तरी कराने मैं भी उनकी दुकान पर जाया करता था। गनी आमीपुरी उर्दू और हिन्दी में बेहतरीन रचनाएं भी किया करते थे। लालाजी अक्सर उनकी दुकान पर आते थे। हर रोज शाम 4.30 के बाद लंबी धोती का छोर पकड़े और बांये हाथ में छाता लिये लालाजी जगदलपुर की गलियों में विचरण करते थे। कई बार ऐसा होता था कि गनी आमीपुरी की दुकान से वे सीधे विश्वास हॉटल में समोसे और आधी चाय का आनन्द भी लिया करते थे। कई मौके पर गनी आमीपुरी और मैं उनके साथ होते थे। लालाजी कभी-कभी बिनाका होटल के समोसे पंसद करते थे तो कभी प्रेमजी भाई की दुकान से गांठिये और चाय का शौक पूरा करते थे।
1975 में भारत सरकार समाज कल्याण शिक्षा मंत्रालय ने एक काव्य रचना प्रतियोगिता रखी उसमें प्रतियोगियों की कविता की जांच पड़ताल लालाजी, जगदलपुर ने ही की थी, जिसमें मैं अव्वल रहा। तब तक लालाजी से कोई विशेष जान पहचान नहीं थी। उन्हें दूर से देखकर ही प्रणाम कर लिया करता था। उनके व्यक्तित्व में भारी भरकम विद्वत्ता का समावेश था जबकि वास्तविकता में वे बहुत ही सरल सहज व्यक्ति के धनी थे।
धीरे-धीरे लालाजी से प्रगाढ़ता बढ़ती चली गई और प्रायः हर शाम को जगदलपुर की गलियां नापने एक साथी उन्हें मिल गया। हम घन्टों गलियों में घूमा करते थे। मेरे हम उम्र मित्रों को आश्चर्य होता था कि उम्र के इतने अंतराल के बावजूद भी उनके साथ कैसे निभ जाती है। लालाजी मेरे पिता के भी अच्छे मित्र बन गये। अक्सर वे हमारी दुकान पर आकर बैठते जहां मेरे पिता उन्हें अदरक वाली चाय पिलाया करते थे।
लालाजी के साथ घूमते-घूमते मैने मोती तालाब पारा के ‘काला जल’ का रहस्य जाना और गुलशेर अहमद शानी से मुलाकात किए बगैर ही उनके बारे में बहुत कुछ जानने लगा। इसी प्रकार धनंजय वर्मा जैसे ख्यातनाम आलोचक का रास्ता भी लालाजी ने मुझे दिखाया था। एक अरसे बाद जब मैं इन दोनों से मिला तो उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुआ।
बस्तर के कई माटी पुत्र लालाजी की शुरूआती छांव में रहे जिन्हें उन्होंने बाद में बड़े साहित्यकार बनते देखा। बतौर साहित्यकार और विशाल व्यक्तित्व के धनी इंसान के रूप में वे छोटी सी झोपड़ी में डोकरीघाट पारा में पावर हाउस के पास रहा करते थे जहां बगल में राजाराम की बुलंद हवेली थी। कच्चे खपरैल की कच्ची मिट्टी की कुटिया मुझे अब भी याद है। मैं उनसे कहता, रहने के लिए पक्का मकान बनावा लें तो हंसकर टाल जाते। बस्तर के इस हिमालय को झोपड़ी में रहने से कोई गुरेज नहीं था। म0प्र0 के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व0 श्री अर्जुन सिंह हाल-चाल पूछने इसी झोपड़ी में आये तो बिखरी हुई किताबों के बीच एक साधारण सी चारपाई पर बैठे उस बुजुर्ग को पाया। उन्होंने लालाजी की प्रशंसा की। उनकी विनम्रता से प्रभावित हुए। उन्होंने लालाजी से इच्छा पूछी तो उन्होंने कहा सरस्वती पुत्र की क्या इच्छा हो सकती है।
लालाजी ने श्रीराम पाठशाला में प्रारंभिक तौर पर अध्यापन किया और बाद में चितालिया बंधुओं के बच्चों को घर में ट्यूशन पढ़ाया करते थे। फ्रीलांसर पत्रकार के रूप में फक्कड़, औघड़, निर्भीक और बेबाक बयानी के लिये वे हमेशा मशहूर रहे। बड़े से बड़े दबाव के आगे वे कभी नहीं झुके, जीवन भर कट्टर स्वाभिमानी रहे। कभी किसी से मांगा नहीं। जून 1984 तक जब तक मैं जगदलपुर में रहा उनसे निरन्तर मुलाकातों का दौर लगातार चलता रहा। जब मैं तरूण साहित्य समिति का सचिव था तब वे प्रायः गोष्ठियों की सदारत किया करते थे। ‘उद्गम साहित्य समिति’ के कार्यक्रमों में भी उनसे अक्सर मुलाकात हो जाती थी। 1970 के दशक में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में कैफी आजामी जगदलपुर आये तो लालाजी ने मंच पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उसी समय ख्वाजा अहमद अब्बास जगदलपुर आये थे शाम को श्री अवध प्रसाद शर्मा के घर पर एक संगोष्ठी रखी गई थी।
1984 के बाद मैं जब भी जगदलपुर जाता तो उनसे जरूर मुलाकात होती और घंटो बैठक। सुबह शाम वे दुकान आते और हम साथ में जगदलपुर, जो अब एक शहर हो चुका था, की गलियां नापते।
लालाजी ने बस्तर के बदलते स्वरूप को अपनी आंखों से देखा। जगतूगुड़ा को जगदलपुर बनते देखा और चक्रकोट से बस्तर रियासत की राजधानी को जगदलपुर आते देखा।
उन्होंने बस्तर की आदिम जनजातियों को बहुत करीब से देखा उनका जीवन, संस्कृति, लोकगीत, लोक कथायें, सुख-दुख उनकी रचनाओं में रच बस गये थे। परम्परागत आदिम जनजाति की जीवन शैली और अंगड़ाई लेकर 20वीं से 21वीं सदी की ओर बढ़ रहे बस्तर के अर्न्तद्वन्द को उन्होंने भली भांति जाना और परखा। बस्तर में सरई और सागौन के पेड़ों की कटाई में स्थानीय लोगों के शोषण और कदम-कदम पर उनके साथ होने वाले अन्याय को देख कर कभी चुप नहीं बैठ पाये। उन्होंने रचनाओं में इसे अभिव्यक्त भी किया। ‘मिमियाती जिन्दगी और दहाड़ते परिवेश’ काव्य संग्रह में उन्होंने इस पीड़ा को बहुत बारीकी से उकेरा। उनके बयान बहुत सरल और आसानी से समझ में आने वाले होते थे। एक जगह उन्होंने लिखा है- ’’वक्त बेहद खराब रे सुग्गे, थोथा इंकलाब रे सुग्गे’’
बस्तर की धरती पर बैलाडीला को रौंदकर लौह अयस्क निकाले जाने की घटना हो या बस्तर के तत्कालीन महाराजा का गोली कांड या फिर वर्तमान में बारूद से डरे सहमें बस्तर का दर्द उन्होंने अपनी रचनाओं में बखूबी उतारा है। अमावस की रात में अपने दर्द को उन्होंने इस तरह उकेरा है- ’’दर्द जब हद से गुजर जाता है बोझ आंखों में उतर जाता है’’
लालाजी कलम के धनी थे उन्होंने गजलें लिखी, गीत गाए, नई कविता का पाठ किया। निबंध आलोचनाएं और नाटक लिखे, मुहावरा एवं लोकोक्तियों को संकलित किया, जनजाति जीवन और घटनाओं पर तथा बस्तर के इतिहास पर उन्होंने किताब लिखी। बस्तर के साहित्य, संस्कृति, कला, लोक जीवन को बस्तर से बाहर पहचान दिलाई। वे एक अच्छे कहानीकार भी थे।
लालाजी के लेखन की सबसे बड़ी बात थी कि उन्होंने खटिया गिरदावरी नहीं की। बस्तर अंचल के कोने-कोने में गये और लोगों में रच बस कर बहुत कुछ समझा और फिर अपनी रचना में इसे जस का तस उड़ेल दिया। बस्तर के बारे में लालाजी को इतनी जानकारी थी वह शायद किसी और को हो। भाषा, कला, साहित्य, जीवन दर्शन, संस्कृति और न जाने क्या-क्या सब कुछ का नाम था लाला जगदलपुरी! बस्तर के प्रसिद्व साहित्यकार स्व0 रघुनाथ महापात्र जी ने कहा था कि यदि बस्तर देखना हो तो लालाजी से मिलो।
उनके घर पर बस्तर के बारे में शोध करने के इच्छुक लोगों के अलावा जाने माने लोगों का तांता लगा रहता था। उन्होंने किसी को निराश नहीं किया। लोग उनकी जानकारियों को बिल्कुल प्रमाणिक मानते थे। लालाजी ने बाल साहित्य का सृजन किया। प्रतापगंज में तरूण साहित्य समिति ने बाल कवि सम्मेलन का आयोजन किया तब लालाजी ने इसका बेहतर संयोजन किया। उनके छोटे भाई केशव को लिखने के लिए प्रेरित किया। उनके अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हुये।
1950 के दशक में जगदलपुर ने एक बहुत बड़ा साहित्य संगम देखा जिसमें लालाजी सहित देश भर के नामी साहित्यकारों ने शिरकत की। पूर्व महाराजा स्व0 प्रवीर चन्द्र भंजदेव के प्रयास से यह आयोजन हुआ था।
लालाजी के लगभग 75 वें जन्म दिवस के अवसर पर मैंने उन पर एक लघुवृत्त चित्र का भी निर्माण किया ’’माटी के गीत चिड़ियों के छन्द’’ जिसे देखकर लालाजी बहुत प्रसन्न हुए थे। उसकी शूटिंग के लिए बहुत मुश्किल से तैयार हुए थे। दलपत सागर की ऊंचे मेडनुमा बांध पर चलते हुए तो कभी महादेव घाट में इंद्रावती नदी के घाट पर सीढ़िया चढ़ते हुए तो कभी आसना के जंगल में घ्ूमते हुए उन्होंने अपने साहित्य सृजन की प्रक्रिया एवं रचना कर्म की विस्तार से व्याख्या की।
जगदलपुर के आकाशवाणी दूरदर्शन केन्द्र ने लालाजी की साहित्य साधना का भरपूर लाभ उठाया। रचना कर्म में किसी से समझौता न करने वाले लालाजी कभी-कभी संस्थाओं के अफसरनुमा लोगों से भिड़ जाया करते थे और अपनी बात मनवा कर ही दम लेते थे। लालाजी करूणा के धनी थे। यह करूणा उन्हें अपनी माता से मिली थी जिन्हें वे बहुत स्नेह करते थे। उनका बाल सुलभ हृदय उनके बाल साहित्य में झलकता है। आत्मीय लोगों से वे जितने प्रेम से मिलते उसकी कोई मिसाल नहीं थी। लालाजी साहित्य साधना के लिये अनेक पुरूस्कारों से सम्मानित किये गये। उन्होंने इन सम्मानों को भार से अपनी सहजता नहीं खोई। उन्हें उत्तरप्रदेश में ‘अक्षर आदित्य’ सम्मान से भी नवाजा गया। अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया। सरकारी और गैर सरकारी सम्मान उनकी साहित्यिक साधना के सामने बौने थे।
लालाजी से अंतिम बार मुलाकात उनके देहावसान के करीब डेढ़ महीने पहले हुई थी। तब मैंने लालाजी से काफी लंबी बातचीत की थी। फोटो सेशन, इंटरव्यू भी दर्ज किया। इसके पहले दो-तीन बार प्रसिद्ध गजलकार रऊफ खान परवेज के साथ भी लालाजी से लंबी मुलाकातें भी हुई। वर्तमान में हरिहर ने उनके रचनाओं को समग्र रूप से प्रकाशित कराने का कार्य किया है लेकिन अब भी बहुत सा साहित्य प्रकाशन के लिये बाकी है।
आज लालाजी नहीं हैं केवल उनकी यादें शेष हैं। जब भी जगदलपुर आना होता है तो ऐसा लगता है इन गलियों में घूमते हुए अकस्मात ही किसी मोड़ पर वे मिल जायेंगे।

त्रिलोक महावर
आयुक्त निवास,
गांधी चौक, अंबिकापुर,
जिला-सरगुजा (छ0ग0)
पिन – 497001
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