कुमार शर्मा अनिल की कविता

फिजूलखर्च

मैं जब भी
मिलता था उससे
हर मुलाकात में
उसके होंठों से बचाकर
रख लेता था कुछ शब्द।

वह जब भी मिलती
जान ही नहीं पाती थी
कितना वक़्त है उसके पास
मेरे ऊपर खर्चने को
मैं चुरा लेता था
कुछ अधिक वक्त।

हर मुलाकात में
उसकी नजरें बचा
मैं छुपा लेता था
अपनी आंखों में
उसकी सुंदरता
थोड़ी सी हंसी
ढेर सी मुस्कान
वह इतनी सम्पन्न थी
कि उसे पता ही नहीं चलता था
कहीं कुछ कम हुआ है।
मैं चुराता रहा
शब्द, वक्त, सुंदरता
हंसी, मुस्कान……
कभी गया ही नहीं उसका ध्यान
इन मामलों में वह
मेरे प्रति
बहुत फिजूलखर्ची थी।

हर मुलाकात में
चौकन्नी रहती थी वह
सिर्फ अपने जिस्म के प्रति
उसकी सारी ऊर्जा
सिर्फ जिस्म को
दिखाने-छुपाने-ललचाने
चोरी से बचाने में
होती थी खर्च।
उसके जिस्म को पाने में
उसमें से कुछ चुराने में
मेरी रूची थी ही नहीं
यह बात कभी नहीं
जान पाई वह।

कब, कहां, कैसे,
क्या करना चाहिए खर्च
क्या बचाना है व्यर्थ
उसे बहुत देर बाद
तब पता चला
जब वक्त ने
धीरे-धीरे चुरा लिया
उसका रूप लावण्य सारी सुंदरता।

लड़कियों को
पता ही नहीं चलता
क्या है खर्चना
क्या है बचाना
कितना खोकर
कितना पाना
इन मामलों में लड़कियां
होती हैं फिजूलखर्च।

 

कुमार शर्मा अनिल
1192-बी,सेक्टर 41-बी,
चंडीगढ़
मो-09914882239
मुख्य सम्पादक
‘नवकिरण’