लाला जगदलपुरी -संस्मरण : डॉ. धनंजय वर्मा

सृजन की अदम्य आकांक्षा के कवि लाला जगदलपुरी

आपने कभी किसी मकान के रौशनदान या किसी खण्डहर में दीवार को फोड़ पीपल या बरगद के पौधे को ऊगते-बढ़ते देखा है ? बार-बार पैरों तले रौंदी गई, गर्मी में सूख गयी बंजर-सी जमीन में से उगती-हरियाती दूर्वा पर कभी आपने गौर किया है?.. प्राणवंत बीज कभी हमवार ज़मीन और अनुकूल हवा-पानी का इन्तजार नहीं करता। वह प्रतिकूल परिस्थितियों के संग-ओ-खिश्त को फोड़ कर भी पनपता है और अपनी सृजनशीलता प्रमाणित करता है। भारतीय मनीषा ने पीपल-और-बरगद और दूर्वा को सृजन की अदम्य आकांक्षा का प्रतीक यों ही नहीं माना है।
सृजन की यही अदम्य आकांक्षा लाला जगदलपुरी की सृजनशीलता की प्रेरणा है। साहित्य और संस्कृति से ही नहीं, आधुनिक सभ्यता और आवागमन के साधनों से, बरसों तक, कोसों दूर रहे बस्तर का बयाबाँ परिवेश, उसके सुदूर अंचल में बसे छोटे से गॉंव-तोतर-में दीन बचपन के अभाव और विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करते, डायन रातों के सन्नाटें और अंधेरे की लम्बी होती परछाईयों से घिरे माहौल में साहित्य और कविता की कोई कल्पना ही कैसे कर सकता है ? लाला जगदलपुरी ने उसी अकल्पनीय को वास्तविकता में तब्दील किया है। प्रचार-प्रसार में उदासीन, उपेक्षा और लगभग तिरस्कार झेलता हुआ कोई रचनाकार कैसे सिर्फ अपनी अदम्य सृजन-आकांक्षा के बल पर इतनी लम्बी और अकेली काव्य-यात्रा कर सकता है, यह भरोसा, लाला जगदलपुरी के साहित्य को देख- पढ़ कर ही किया जा सकता है। ‘गीत धन्वा’ के गीत और मुक्तकों में भी उसी निष्ठापूर्ण और समर्पित काव्य-यात्रा के नुकुश आसानी से देखे जा सकते हैं।
कवि स्वीकार करता है कि जब-जब भूखी बिटिया-सी पीर जाग उठती है, वह उसे गा-गा कर बहलाता है। उसकी तमन्ना सिर्फ इतनी है कि लम्बी राह कट जाए, मजे से गुनगुनाता गीत मंजिल तक पहुॅंच जाये। उसकी कोशिश सिर्फ इतनी है कि नदी के कूल-सा, वह अपने हृदय में रह सके, जलधि के नीर-सा अपनी हदों में रह सके, स्वयं हर बार आपसे कुछ कह सके। इसीलिए उसने वरण किया है- राह अपनी, उसूल अपने, चाह अपनी, दुःख अपने, पीड़ाएं अपनी, और आह अपनी। चुनांचे उसका भरोसा है कि डूब गए खुद में तो देह का पता नहीं। सच भी तो है- मन है मन, कोई वस्त्र तो नहीं कि जब चाहे बदल लिया। कहना न होगा कि लालाजी ने अपने आत्म-संतोष के लिए स्वान्तः सुखाय ही इस कवि-कर्म का वरण किया। इसलिए उसका काव्य दर्शन ही यह है–सहज अनुभूतियों को, साधना के शब्द देकर, शिल्प जो गढ़ती, उसी लेखनी पर उसे भरोसा है। इतना कि जगत रूठे नहीं परवाह, पर मुझसे मेरी लेखनी न रूठे। वह तो उस सृजनधर्मी आग को कायल है जिसमें मूर्च्छित विश्वास भी चेतना सहेजता है। उसके भीतर जब दर्द की यह सृजनधर्मी आग जलती है तब वह पतझर में भी बहारों की गीत गाता है। उसके प्राण जब खून के घूँट पीते हैं, तब उसका गीत जन्म लेता है और दर्द जब बाँटे नहीं बँटता, तब वह उसे गा लेता है। वह जानता है कि बहुत से कथ्य ऐसे हैं, जिन्हें वाणी नहीं मिली, बहुत से दर्द ऐसे हैं, जिन्हें ईश्वर नहीं मिला। कवि ने ऐसे ही कथ्यों को वाणी दी है और ऐसे ही दर्द को सृजन का स्वर दिया है। इसीलिए पिरो लिए जो शब्द वो उसकी कलम के मोती हैं। उसका विश्वास–जो हृदय को छू न ले, वह आवाज़ क्या है ?
अपने युग के काव्य संस्कारों और उम्र के अनिवार्य स्थितिगत सच्चाई के तहत उसमें भी रूमान के भाव जागते हैं। प्रेम की इतनी मीठी कसक उसमें है कि नयन भी हृदय से इतनी दूर हो जाते हैं कि स्वप्न में भी वह प्रिय को बुला नहीं पाता। वह प्रेमिका को उलाहना देता है जिसने उसके मन के दर्द को चुरा लिया है और जो उसे बहलाने के लिए बहार तक ले आई है। इस प्रेम की सान्द्र प्रगाढ़ता इतनी है कि नयन ही मन की अनकही बात तक कह जाते हैं और यादों के देवता याद में पैबस्त रहे आते हैं। लेकिन………….बकौल फै़ज़ ‘और भी दुःख हैं, ज़माने में मुहब्बत के सिवा’…….. सो बहुत जल्द ही कवि जीवन-यथार्थ के अनुभव-संसार का साक्षात्कार करता है।
यहाँ मनु के बेटे अंतस् में अँधियार बिठाए हैं और यहाँ आदमी स्वयं से लड़ कर पराजित हो गया है। व्यष्टि से समष्टि तक यहाँ जाले-ही-जाले हैं। आँसुओं को भी आँसुओं का ग़म नहीं है। यहाँ तो अनावरण हो रहा है-सत्य की मौन मूर्तियों का, पर असत्य के अनावरण का साहस कोई नहीं करता। यहाँ करनी कितनी दुबली-पतली है लेकिन कथनी कितनी तगड़ी है। संवेदनशीलता यहाँ बहरी है, और चिन्तनधारा चिन्ता के घर ठहर गई है। यहाँ तो फन काढ़े, सर्वस्व समेटे, निश्शंक अँधेरा है और आशंका है कि जाने कब ले बैठे निजी सुरक्षा का पहरा! गरीबी-भुखमरी हावी कहीं है तो कहीं जनशक्ति को तूफान ले बैठा है। यहाँ घोंसला-सा अनित्य तन हैं; इसलिए जब कभी आत्मविश्वास दिवंगत हो जाता है, तब हृदयवती आशा विधवा हो जाती है। कवि देख रहा है कि हथकण्डे जाग रहे हैं और विवेक सो गया है। पौरूष पंगु हो गया है और वाणी मुखर हो गई है। मन गुलामी कर रहा है, बुद्धि रानी हो गई है। तृप्ति संग्रह के लिए मोहताज है; त्याग चुप है, स्वार्थ में आवाज़ है। सत्य ने उसकी प्रशंसा नहीं की, इसलिए झूठ उस पर नाराज है। अभिलाषाओं को परियों के पंख मिल गये हैं लेकिन आशाओं को चलने तक के लिए पैर नहीं हैं। उम्र थोड़ी है, मगर चाहें बहुत हैं। इस विपर्यय के बावजूद-हो न हो संकल्प पर राहें बहुत हैं।
इस जीवन में कवि को जो पीड़ा मिली है, उसे वन मनोराज्य की राजदुलारी और हृदय राज की राजकुमारी लगती है। धरती माता की यह क्वाँरी पीड़ा उसे कछुए सी सरकती रात की तरह लगती है क्योंकि परिस्थितियों के भौंकने श्वानों के बीच सहमी हुई पीड़ा उसे बरसात की तरह भिंगोती है। उसे तो अपनों की दृष्टि में भी परायापन फैला लगता है और रिश्तों का रोज मरण होता है। जब अपनों का अपनापा डूब जाता है, तब हृदय धन की पूर्ति भी खो जाती है, उदासी गहरा जाती है और अनवरत अश्रुओं की धारा थमने का नाम नहीं लेती। उसे जीवन टूटते सितारे की तरह खो गया-लगता है और नतीजतन ज़िन्दगी उसे वेदना-ही-वेदना लगती है। …….इस सबके बावजूद कवि में एक दुर्ददमनीय आशावाद है। उसके लिए असफलताएँ भी मार्ग सुगम कर देती हैं, मजबूरियाँ नये प्रतिमान बनाती हैं, विष के घूँटों में विश्वास पनपता है और निराशाएँ भी निराश हो जाती हैं। वह खुद से कहता है–ज़िन्दगी उदास न हो हमराही, आस्था हताश न हो, वक्त तो तिमिर के भाल पर भी उजले नखत पढ़ता है, संकटों को, जीत के वरदान मानता है और जानता है कि कंटकों का सामना करते हैं जिसके चरण, उसी के शीश पर फूल चढ़ते हैं। क्षणों में इतनी शक्ति है कि सुखद युग का सृजन कर सकें और कणों में इतनी शक्ति है कि अटल पर्वत खड़ा कर दें। उसकी संघर्ष चेतना यह जातनी है कि बूँदों की अपरिमित शक्ति को ही यह श्रेय है कि वे सागर बनाती है और तृणों में भी इतनी शक्ति है कि वह यम के दम्भ तक परास्त कर सकती है।
इसीलिए कवि ने जीवन की अम्लान आस्था के प्रतीक (दीप) पर कई मुक्त कहे हैं। यहॉं आरती के दीप ऐसे जलते हैं कि ऑंधियों तक की जीत नहीं हो पाती। उसने दीप को नये सिरे से परिभाषित किया हैः साधना में जो पले वही दीप है, आरती में जो जले वही दीप है, तिमिर में जो ज्योति का संदेश दे और जो अंधड़ों को भी जीत ले, वही दीप है। इस दीप से न सिर्फ रौशनी झरती है, बल्कि इससे कालिमा भी डरती है। यह न केवल सर पर आग धरे है, वरन यह रात भर सबकी भलाई भी करे है। सूर्य और चॉंद की तुलना में माटी के इस दीप की महता इसलिए भी है कि सूर्य तो दिन भर चमकता है लेकिन सांझ की सौगात दे कर चला जाता है। चॉंद चमकता है लेकिन काली रात दे कर बुझ जाता है जबकि दीप को हम रात का अंधेरा देते हैं लेकिन वह बुझता है तो प्रातः की रौशनी देकरः इसीलिए तम के दुर्ग को तोड़ने वाले और द्वार पर काली निशा को अपनी दिव्य ज्योति से परास्त करने वाला यह दीप कुटी मन से जोड़ता है। कहना न होगा कि दीप के इन मुक्तकों में कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के दीपक और महादेवी वर्मा की दीपशिखा के भाव-सरगम की गूंज और अनुगूॅंज आसानी से सुनी जा सकती है।
जीवन की इस अम्लान आस्था के नतीजतन कवि में एक संकल्प धर्मा संघर्ष चेतना जागृत होती है और वह चुनौती के स्वर में कहता हैः हम भी देखें कितना वक्त है कठोर! आकांक्षाओं की ठठरी के बावजूद उसकी कामना है कि बंधी रहे आकांक्षाओं की गठरी। उसे बॉंसुरी से अधिक प्यारा तूर्य लगता है कि इससे जीवन संघर्षो में जीवन का अभ्यास बढ़ता है। उसका मन अब रम गया है दुखों में, इसीलिए किसी भी सुख से उसकी कभी कोई सुलह नहीं होती। उसे तो अब नहीं देती सुनाई दर्द की आवाज और नहीं देता दिखाई कंटकों का ताज। निपट अंधे और बहरे पत्थरों के बीच उसकी जिन्दगी ने कर दिया जिन को नजरन्दाज। उसे तो अब कॉंटों का हार पहनने की आदत-सी पड़ गई है इसलिए उसमें यह संकल्प-राग जागता हैः मोड़ दे तू ऑंधियों को, अगर मन में ठान ले।… इस संकल्प धर्मा चेतना के स्वरों का उत्स माटी के वे सरोकार भी हैं जो कवि को अपने जन्म से ही मिले हैं। उसकी चेतना तो कहती है-जिसने मिट्टी ओढ़ ली, वही सृजनधर्मी मूल है। यही माटी सिर पर चढ़ कर बोलती है कि कनक-छड़ी मेरी ही थाती है। इस माटी के गीत अमर हैं, जिसमें लेजा, परब आदि शामिल हैं। माटी के इन्हीं सरोकारों की वजह से कवि का विश्वास है कि मातृ-भूमि का मान रखने के लिए, अपराजेय तत्व चुक सकते नहीं। धरती के दामन में भर दे जो हरियाली, उस नई जवानी से उसे प्रकाश की आशा है। कवि को बस्तर से इतना प्यार है कि वह उद्घोष करता है–बस्तर नहीं अब गूँगा, बोल अचानक उसके फूटे हैं। उसे महुए की बात, सिंगारिक परिधि के पहरूए की बात लगती है।
बस्तर का वन्य जीवन इन गीतों और मुक्तकों में जीवन्त हो उठा है। बस्तर के प्रसिद्ध जल-प्रपात–चीतरकोट का गर्जन-तर्जन उसे जन-आन्दोलन लगता है, तो इन्द्रावती नदी के बूँद-बूँद जल को वह अपने दृग-जल की भाँति जानता है। तेलिन घाटी उसे अपनी हर विपदा की सहचरी लगती है तो कोटमसर की गुफा, जीवन के तम का डेरा। बस्तर के रूपवान जंगल उसे धरती के बेटे और कांतर प्रकृति के हृदय-प्राण लगते है। वहाँ के झरनों में उसे जलतरंग सुनाई देता है और वन-वन में दौड़ रहे हिरन उसे स्वर्ण-मृग नज़र आते हैं। सुरम्य पहाड़ियाँ, वन पखेरू, सघन वन-झाड़ियाँ उसे अपनी आत्मीयता सहचरी लगती हैं और सारा माहौल पंछी-सा चहक उठता है। यहाँ ज़िन्दगी धूल सनी अलसायी-सी है और वन-फूलों की गंध आवारा-सी भटकती है। यहाँ मेड़ें बाँहों-सी और धरती–छाती-सी। यहाँ जब ढोल बजते हैं तब आठों दिशाएँ गरज उठती हैं। गाँव-गाँव, कुटी-कुटी महुए की गंध फैल जाती है और माटी के गीत, चिड़ियों के छन्दों में गूँज उठते हैं। उसे तो बस्तर का आदिवासी साक्षात् बीहड़ माटी का तन ही लगता है, जिसे उसने जब भी देखा, अपने में मगन देखा। तरूण कण्ठों में गीत यहाँ छलकते हैं और पूरा बस्तर वन देवी के घर की ओर धरोहर मालूम होता है। आदिम जातीय इस वनवासी माटी में नित्य मधुमास होता है और परब की तानें रसिकों के कानों में अमृत-धार ढारती हैं।
विकास के नाम पर बस्तर की आदिम जनजातीय संस्कृति और वन्य जीवन का नाश करने वाली तथाकथित आधुनिक प्रगति पर इस माटी-पुत्र कवि की चिन्ता स्वाभाविक है। वह पूछता है-कहो, कहाँ चले रामधन! प्रगति का कहीं पता नहीं चला। वह दुखी मन से व्यंग्योक्ति करता है–काट रहे जंगल, कल्याण हो गया, मर रहा वनांचल कल्याण हो गया। वह सजग करता हुआ कहता है–नाम तरक्की का ले-ले कर सिर पर मँडराता खतरा, हो जा बन्धु सतक जरा। विकास के नाम पर यहाँ जंगल के डैनों के पंख बिक गए, उधर माँदों के बाघ, बन गए बाघम्बर और पाँवों ने पहन लिए चीतर-साम्हर। वह देख रहा है–दुखद कुछ ऐसा बदलाव, छाँव भी अब लगती नहीं है छाँव। विडम्बना तो यही है कि बढ़े इतना, कि पीछे छूट गए, खा गए प्राण, रक्त घूँट पी गए। फिर भी कागज के नीचे उतरा नहीं कुँआ। क्या यह विकास की प्रवंचना नहीं है कि विकल हैं मछलियाँ, रक्षक है मछेरा। यहाँ तो वंचनाएँ मिल कर प्रभात करती हैं, इसलिए स्वस्थ आकांक्षाएँ आत्मघात करती हैं। कोई यह न समझे कि कवि प्रगति-या-विकास का विरोधी है–वह तो कामना करता- प्रगति हो, विद्रूपताओं से परे।
विकास की विसंगतियों और विद्रूपताओं के मद्देनजर कवि की व्यंग्य चेतना प्रखर होती है। हरशिंकर परसाईं के ‘भोला राम का जीव’ की तरह यहाँ रामधन का जीव है तो प्रभुता के तहखानों में फाइलों के अन्दर दबा हुआ है। आम आदिवासी की ज़िन्दगी जोर जुल्म सहन करती है और विकास या प्रगति का कहीं पता नहीं चलता। यहाँ तो लहकती हुई प्रभुता, जीभ लपलपाती है और दरकते कगारों-सी ज़िन्दगी किनारों पर खड़ी हाथ मलती है। वह देख रहा है-फन काढ़े, सर्वस्व समेटे, बैठा है निश्शंक अँधेरा। यहाँ करनी के सिर विष सागर है और भाग्यवान हैं शोर-शराबे। वह ढँके-मुँदे जीवन की सत्य कथा बाँचने का आग्रह करता है। यहाँ तो मोटी चमड़ी जिसकी, खास वह फरिश्ता है। उत्पीड़ित के साहस का हर कदम यहाँ बगावत कहलाता है। कंचन को यह गर्व कि उस पर निर्भर है सुन्दरता। आज तो, शेर बबर भी बन गए हैं खिलौने सरकस के। यहाँ तो सज्जनता छोरी को सुना रही लोरी दुर्जनता गोरी और पहरे में जाग रहे हैं आदमखोर। सितम यह है कि जाग रहे हथकण्डे, सो रहा विवेक। राजनीति का हाल यह है सिर्फ रैलियाँ हैं, नारे हैं, वक्तव्यों की चटखारें हैं, कथनी तक है देश का नाम, उनको अपने दल प्यारे हैं। अवसरवादी की यह शिनाख़्त कितनी अचूक है : न हाय-हाय, राम-राम, करो प्रकाश की धुन पर काम करो, पुनरोदय उसका निश्चित है, डूबते सूरज को प्रणाम करो। और ‘कमल’ पर इस व्यंग्य का भी ज़रा मुलाहिजा हो : कृपा कीचड़ की, कमल उपजा मगर, कमल बोला एक दिन, सुर रे भ्रमर, पंख अपने धो आ जा, लगी कीचड़ तेरे, देख मेरी पाँखुरी गंदी न कर। और हमारा नेतृत्व कैसा है : चमकते थे जो सितारे अँधेरे में, अचानक छिप गए हमको सुबह देकर, मगर उस त्याग की उपलब्धि की छवि को चला नेतृत्व संध्या की तरफ लेकर। आधुनिक सभ्यता पर यह व्यंग्य देखिए : दु्रमों के पत्र, छाया के लिए थे, किन्तु वन्दनवार मिले। और चमन के फूल जो अर्पण के लिए थे, गुलदस्तों में सजे मिले। यहाँ तो सफल हैं वो लोग जो समाज के रोग रहे हैं। शायद इसीलिए नई सभ्यता नचा रही पिछड़ेपन को।
कविवर केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता है : हम न रहेंगे, तब भी तो ये खेत रहेंगे। लालाजी भी कहते हैं : चलने दो बन्धु, कलम का हल चलने दो। वो गीतों की फसल खड़ी करना चाहते हैं ताकि आगामी कल लहलहा उठे। प्रेमचन्द को कलम का सिपाही कहा जाता है, लालाजी हैं–कलम के खेतिहर मजदूर। उनका समय यों कटा ज्यों ऋणी हलधर की फसल। इठलाती, बलखाती धान की फसल से उनका मन मयूर नाच उठता है। धान की बालियों को जब पवन छू कर गुजरता है तो उन्हें वह पायल झनकाती लगती है। झुक-झुक कर झूमती हसीन बालियों वाली धान की फसल को वह माटी की देन कहते हैं। फसल उन्हें कभी चिड़ियों-सी चहकती लगती है, तो कभी डोलती सी धान की फसल, गुमसुम कुछ बोलती सी लगती है। फसलों से गुपचुप बतियाता यह कवि फसल की सार्थकता का यों, साक्षात्कार करता है : पाकर हँसियों की धार कट गईं फसलें, कटीं-बिछीं तमाम और हट गईं फसलें। फसलों का यारो, यही हश्र होता है, रौंदी और मसली गईं, बँट गईं फसलें। …..फसल और श्रम में कार्य-कारण का सम्बन्ध है। इसीलिए कवि कहता है : जीवन में पग-पग पर भूजबल और श्रमजल का महत्व है। वह जानता है कि व्यर्थ गरज पड़ने से काम नहीं चलता, जो केवल बरसे उसी बादल का महत्व है। उसका विश्वास है कि सभी संभावनाएँ तोड़ देंगी दम, अरे निष्ठुर, उन्हें आँसू नहीं केवल पसीने की ज़रूरत है। उनके लिए यह पसीना स्वाभिमानी है, महादानी है, रमता जोगी, बहता पानी है, सुनाते-सुनाते इस ज़िन्दगी को नींद आ जाती, पसीने की बड़ी लम्बी कहानी है।
अपनी पीढ़ी के काव्य संस्कारों के तहत लालाजी में भी देशानुराग और राष्ट्रीय चेतना के स्वर मुखर है। उनमें कहीं शहीदोंं के रूधिर की राष्ट्रवाणी जागती है तो कहीं मनुजता के प्रति भक्ति-भाव गर्व में गूँजता है। कवि को यह अभिमान है कि यहाँ बहुत से ऐसे वीर थे जिनकी काँख में दशकंठ तक कैद था। वीरों का आह्वान करता हुआ वह उन्हें राष्ट्रधर्म और भक्ति के कर्तव्य पालन के लिए प्रेरित करता है। गाँवों में रहने वाले अपने हिन्दुस्तान पर जहाँ उसे गर्व है वहीं वह भारतीय स्वतंत्रता के सव्यसाचियों को प्रणाम करता है। अपने बाद आने वाली पीढ़ी के प्रति उसमें वात्सल्य-भाव है। गर्व के साथ अंधकार को पियो बेटो, ओ लाड़लो! न रोओ वक्त है नाराज, या बच्ची नई धरती नया आकाश देने का इरादा था कह कर वह अपनी पीढ़ी की स्थितिगत विवशता को स्वीकार करता है तो युवा शक्ति को वह प्रेरक उद्बोधन भी देता है–झंझावातों में पले युवा पीढ़ी, सैकत में फूले-फले युवा पीढ़ी, शाश्वत प्रतिभा-सी जले युवा पीढ़ी।
‘हृदय की मौन पीड़ा का स्वयंवर है’ के धनुष-भंग, जानकी और अगति के मत्स्य वेध के संकेतों में जहाँ मिथकीय चेतना का संस्पर्श है वहीं भरत के भ्रात-भाव और उनके त्याग के गायन में पौराणिकता की अभिव्यक्ति है। अपनी काव्य संस्कृति का स्मरण करता हुआ कवि तुलसीदास को काव्यांजलि समर्पित करता है। तुलसी से सम्बद्ध इन मुक्तकों में नारी की महिमा, रत्नावली के अवदान, तुलसी की साधना और उनकी कालजयी लेखनी को नमन किया गया है। ईसा मसीह अैर सुकरात की परम्परा में गाँधी को भी श्रद्धा सुमन अर्पित किए गए हैं।
इन गीतों और मुक्तकों की प्रकृति-खास तौर पर बरसात-के चित्र भी आकर्षक है। बस्तर में लगातार कई दिनों तक मूसलाधार बारिश का नजारा जिन लोगों ने देखा है वे इन चित्रों के सौन्दर्य पर अवश्य मुग्ध होंगे। वे सुरम्य पहाड़ियाँ, वह वन्यजीवन, वे सपनीली रातें और शबनमी सबेरे, नील नभ पर सुधाकुण्ड-सा चाँद और चमचमाती सुधाधार चाँदनी, सर्दी की वनवासिन रातें, दहकती दोपहरी, महक रहे बौर, ढीठ आसमान मार रहा अगिन बान, मेघों की डाँट-डपट बिजली का कोड़ा, धरती पर ढरकता मेघों का प्यार, आसमान पर गरज-घुमड़ कर घूमते आवारा बादल के अलावा दूध से नहा रही रात, सिर झुका तम का, काले-काले बादलों ने ढँक लिया आकाश को और काली घटा काजल-सी, छितराये कुन्तल-सी आदि प्रकृति चित्र बस्तर की छवि को मूर्तिमान कर देते हैं। …..लालाजी बस्तर की इस भूमि को नमन करते हैं : जन्मदात्री, खूब था जीवन तुम्हारा, खूब तुमने ही संघर्ष झेले। इस भाव सरगम में वे अपनी माँ का भी स्मरण करते हैं : माँ बिना भगवान सूने, पेट भूखा हाथ ऊँचा, कटि झुकी पर माथ ऊँचा, घुटती रहती थीं तुम तिल-तिल, कभी मटियाई, कभी गोबर सने, कमेलिन माँ के व्यस्त हाथों की याद करता हुआ कवि माँ को प्रेरणा के एक अमृत स्त्रोत की तरह प्रतिष्ठित करता है और यों उनकी माँ, सबकी माँ हो जाती है। कवि का बिम्ब-विधान उसकी समृद्ध कल्पना शक्ति का परिचय देता है। कल्पना है ही बिम्ब-विधायिनी शक्ति। कवि के भाव और मानस बिम्बों को यथावत् सम्प्रेषित करने की दृष्टि से बिम्ब-विधान, कवि-कर्म का केन्द्रीय सरोकार है। लालाजी के इन गीतों और मुक्तकों के कुछ बिम्बों का अवलोकन करें : किरनों के झटके से टूट गई/निद्रा की डोर/चुरा कर परात के रतन/चला गया काला चोर।-सूर्य की नाव डगमगाती है/सांझ आँखों में कुमकुमाती है/सुधियों में उभर रहा/मदिर-मदिर गाँव/खनक रहे हाथ और झनक रहे पाँव/गूँज रही बाँसुरिया/महक रहे बौर।-चूल्हा कब जले और/कब चढ़े पतीली/बार-बार बुझती है/माचिस की तीली/लकड़ी ने व्यथा कहीं धुँए की जबानी।-काले तख्ते पर ज्यों सुनहरी लकीर/खींचता-मिटाता हो एक होनहार/ढरक रहा धरती पर मेघों का प्यार।-इस बिम्ब से शमशेर बहादुर सिंह की ‘उषा’ का यह बिम्ब अनायास कौंध जाता है : बहुत काली सिल, ज़रा से लाल केसर से कि जैसे धुल गयी हो।
प्लेट पर आसमान की जैसे/एक रोटी परिश्रम की।
इस बिम्ब की सुकांत भट्टाचार्य के इस बिम्ब-‘पूर्णिमा चाँद, जन झल सानो रूटि’-का याद आना भी उतना ही स्वाभाविक है। और जापानी ‘हाइकू’ की याद दिलाते हुए इन ‘तीर-ए-नीमकश’ का भी मुलाहिजा हो :
बादल ज्यों घोड़ा/बिजली ज्यों कोड़ा/पवन घुड़सवारी/कर रहा निगोड़ा।
व्योम के तले/हँसुए संभले/खून न हो पर/कट गये गले।
आप इन गीतों और मुक्तकों को पढ़िए। मैं आस्वश्त हूँ कि आपका रंजन अवश्य होगा। मैंने तो इन्हें पढ़ने के दौरान सिर्फ अपने रेखांकन ही यहाँ प्रस्तुत किए हैं।

डॉ. धनंजय वर्मा

24 फरवरी 2011
द्वारा- डॉ. निवेदिता वर्मा
एफ-2/31,
आवासीय परिसर
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन 456010