साहित्य में सकारात्मकता
वर्तमान विकास व भविष्य के विकास की काल्पनिक तस्वीर कुछ ऐसा सोचने पर मजबूर कर देती है कि दिमाग हिल जाता है। व्यक्ति के जीवन में मशीनीकरण यूं बढ़ गया है कि व्यक्ति खुद मशीन हो गया है या यूं कहें कि उसे खुद मशीनों के सहारे जीना पड़ रहा है, कुछ विरोधाभास है यहां देखिए- चश्मा, कान की मशीन, बिजली वाला हाथ, पेसमेकर, बिजली वाली कुर्सी आदि तो व्यक्ति के शरीर में ही लगाई जा रही है। इसे विकास का अवदान कह सकते हैं पर इसी विकास ने विकलांगों को दोयम नहीं कर दिया है ? अनुपयोगी नहीं बना दिया है ? बुजुर्गों की भूमिका शून्य नहीं कर दी है ?
विकास के इस माडल ने जो घटनाक्रम बनाया है इससे तो दुनिया भर के जीव भयभीत हैं चाहे तो वह खेतों का रक्षक केंचुआ हो, या फिर बड़े और दीर्घायु वृक्षों की पारिस्थिति का रखवाला कौआ हो या फिर खुद मानव हो जो इस तंत्र का मुखिया है। विकास की वर्तमान आवधारणा तो बहुतों के लिए विनाश की अवधारणा है। एक बड़े बांध से मानव के लिए पानी बिजली मिलती है तो उसी बांध से भूकंप, जलवायु परिवर्तन, विस्थापन आदि आप ही मिल जाते हैं। निरापद विकास की संकल्पना क्या आधुनिक विज्ञान से संभव है ? बगैर पारिस्थितिक तंत्र को छेड़े, बगैर मानव जीवन को नुकसान पहुंचाये इस आधुनिक विज्ञान से संभव है ?
विकास के वर्तमान माडल ने साहित्य के भी चिथड़े उड़ा दिये हैं। वैसे तो यह कहना और सोचना असंभव है कि साहित्य से समाज बनता है, क्योंकि समाज के संस्कारों, रीतिरिवाजों और जीवनशैली से साहित्य का जन्म और निर्माण होता है, हमने तो इन्हीं मूल्यों को विकास के हवनकुण्ड में आहुति स्वरूप झोंक दिया है तो फिर साहित्य के बचे खुचे रहने की गुंजाइश कहां है ? इसके बाद भी हम सब उल्टीं गंगा बहाना चाह रहे हैं और साहित्य से समाज का निर्माण करना चाह रहे हैं। बिल्कुल खोवे से दूध बनाने की तरह या जीवनवृत्त के अनुसार आंकलन करके किसी व्यक्ति की जन्म कुण्डली बनाने की तरह।
भले ही उपरोक्त आंकलन विषय से भटका महसूस हो पर जुड़ा तो विषय से ही है। वर्तमान साहित्य में साहित्य के अतिरिक्त वो सबकुछ है जो साहित्य नहीं है, पर कुछ महापंडितों द्वारा लगातार साबित यही किया जा रहा है कि यही विकसित साहित्य है। कुरीति, बुराईयों से निकल सकने की समझ देने वाला साहित्य तो नजर ही नहीं आता है। विकास की दौड़ में स्त्री की आजादी का मुद्दा बनाकर उसका रूपचित्रण (पढ़े यौनचित्रण) करना ही साहित्य हो गया है। साहित्य के बाल की खाल निकालना ही साहित्य है। निराशा, हताशा और मुश्किलों के बीच फंसे व्यक्ति, परिवार, समाज का चित्रण (मात्र चित्रण) ही साहित्य है। असाध्य बीमारी से घिरे व्यक्ति का चित्रण ही साहित्य है। मानसिक/भौतिक नैराश्य को बढ़ावा देना और व्यक्ति की जीवटता को कमजोर करना साहित्य कब से बन गया है ? जहां इस देश की संस्कृति में किसी व्यक्ति की मृत्यु पर भी गीत गाकर दुख व्यक्त किया जाता है; वहां साहित्य को नैराश्य से भर दिया गया है। वर्तमान जीवन जितना सुविधा सम्पन्न हो गया है उतना ही दुख से भर भी गया है। हर परिवार का कोई एक सदस्य असाध्य बीमारी से जुड़ा है।
आज की सबसे बड़ी बीमारी है सड़क एक्सीडेन्ट! इस सड़क एक्सीडेन्ट में हर किसी का जीवन दांव पर लगा है, कोई भी अपनी मृत्यु के न आने के लिए आशान्वित नहीं है। कभी भी, कहीं भी दुर्घटना हो सकती है। अपंग होना या मर जाना संभव है। कैंसर, डायबिटीज, बीपी, हृदयघात ये अलग झपट पड़ने को तैयार खड़े हैं।
क्या ये सब विकास के चिन्ह हमने, खुद ने नहीं लाद रखे हैं ? इसके वजन से दोहरे होते जा रहे हैं और फिर होंठों पे मुस्कान है। ये कैसा साहित्य हैं ? ये कैसा चित्रण हैं ? जो हमें यह सच्चाई नहीं बताता है। सच का आईना नहीं दिखाता है। इन पर्यायों को ओढ़ने, पहनने से बचने का संदेश कहां है ? कहां है सही और गलत की समझ पैदा करने वाला साहित्य ? अभी तो बाजार में जनता को आदम हौव्या की काल्पिनिक दुनिया में घूमने का ही साहित्य उपलब्ध कराया जा रहा है ? नैतिकता का तो नामोनिशान ही मिट गया है। गनीमत यह है कि साहित्यिक पत्रिकाएं कम बिकती हैं वरना पूरा देश कपड़े उतार कर उन्मत हो चुका होता। मिट्टी से जुड़े लोग हैं आज भी।
बीमार और बीमारी का चित्रण और उससे जुड़े विवादित से प्रसंग कविता और कहानियों में लगातार छप रहे हैं। स्तन केंसर के आपरेशन के बाद स्त्री की संभावित सोच और पुरूष साथी की सोच का वाहियात चित्रण समाज को क्या संदेश दे रहा है ? अगर किसी के मन में उन रचनाओं में दर्शाये विचार नहीं भी उठ रहे हों तो भी उन्हें पढ़कर लोग जान समझकर जीवन दर्शन मान लें ? पाठक को सबकुछ जानना जरूरी है- सही और गलत! क्या पाठक के पास दिमाग नहीं है जो सही या गलत का फैसला कर सकें ? ऐसा पाठक जिसके पास विवेक नहीं है वो इंसान थोड़े ही हैं ? ये जुमले, जुगाली में लगातार चब रहे हैं।
देश की संस्कारित और समृ़द्ध परंपरा में रचे बसे लोग गीता के संदेश, कृष्ण के वचन, कोई किसी का नहीं है, सभी आत्मा अलग हैं, आदि को भूलकर अपने लोगों के दुख-दर्द में दुखी बना रहता हैं। ऐसे में कोई पुरूष अपनी स्त्री के बीमार होने पर और स्तन निकाल लिए जाने पर उससे विरत हो जायेगा ? या फिर वासनामयी खेल के न खेल पाने के लिए अपनी किस्मत को कोसेगा ?
नहीं! इस भारत भूमि में यह संभव नहीं हैं। अगर किसी ने इस पहलू को देखा है, समझा है तो वह स्वयं समझ ले कि उसे क्या कहें। इसी प्रकरण में स्त्री अपनी देह को टटोल कर अपने स्त्रीत्व को खोजती है। अपने को अधूरा समझती है। क्या ये सब बताना, दर्शाना, रेखांकित करना ही साहित्य हैं ? या फिर इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी उन पति-पत्नी की जीवटता में कमी न आना, बताना ही साहित्य हैं ?
नैराश्य चित्रांकन साहित्य की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह की तरह खड़ा है। इस कठोर और निर्मम समय में समाज तो विभाजित हो चुका है। परिवार के मायने पति-पत्नी और बच्चे बन गये हैं जिस पर अब पति और पत्नी को भी अलगाया जा रहा है। क्या इस आन्दोलन का प्रणेता साहित्य को बनना चाहिए ? साहित्य की ही देन है जो ‘पति-पत्नी’ युग्म के रूप में लिखे जाते थे वे अब पति और पत्नी के रूप में लिखे जा रहे हैं। परिवार का नाम लेते ही दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ आदि से भरा पूरा बगीचा नज़र आता था अब ‘परिवार और बच्चे’ कहा जाता है। परिवार यानि ‘पति और पत्नी’, बच्चे भी विलग गये हैं। पूछा जाता है ‘और भाई, परिवार का क्या हालचाल है ? बच्चे कहां पढ़ रहे हैं ? मां कैसी है ?’ ये तो हमारे देश के संस्कार नहीं हैं। हमारे यहां तो शब्द और उसके मायने एकदम स्पष्ट हैं तो फिर ऐसा साहित्य क्यों रचा जा रहा है ? किस-किस की सहमति है इसमें ?
इस नैराश्य भरे साहित्य के सृजन में आजकल यह प्रचलन जोरों पर है कि आसध्य बीमारी से ग्रसित व्यक्ति की मानसिक और व्यवहारिक (भौतिक) दशा का चित्रांकन! व्यक्ति किस तरह हौले-हौले मृत्यु की ओर अग्रसर है, कैसे उसके व्यवहार में चिड़चिड़ापन आता है। वह परिवार की हर बारीक गलती को ही ढूंढता है। उसे मालूम है कि उसे तो मरना ही है। अपनी जीवन शक्ति को समेटकर लड़ने की जगह खुद को मौत के हवाले कर देता है। वह अपने इस जीवन से कुछ भी अपेक्षा न रख खुद को अग्नि कुण्ड की सबसे तेज जलने वाली लकड़ी मानकर ही चलता है।
इधर उसका परिवार उसकी जिम्मेदारियों से परेशान है। डॉक्टर, महंगी दवा, तिमारदारी, बिगड़े बजट और सभी घरों में होने वाली सामान्य जवाबदारियों के बीच, सामंजस्य बैठाने का प्रयास तो दूर सामंजस्य बैठाना ही नहीं चाहता है। बीमार के प्रति ‘‘कर्तव्य’’ के भाव तो हैं ही नहीं बल्कि अहसान के भाव हैं। बेफालतू या बोझ उठाने के भाव पल-पल दृष्टव्य हैं। क्या यह हमारी संस्कृति है ? या फिर ऐसा होना जायज है ? यदि कोई व्यक्ति अपने परिवार के लिए ही समर्पण भाव नहीं रखता है तो ऐसे व्यक्ति से समाज और देश के प्रति निष्ठा संदिग्ध नहीं है ? ऐसे लोग ही देश को बेचने के लिए लाइन में आगे खड़े होने के लिए लड़ नहीं रहे हैं ?
हमारे किसी भी कार्य की सार्थक उपलब्धि क्या रही, ये सोचने/बताने कौन आयेगा ? जब हम साहित्य की मर्यादाओं को ही नहीं देखना चाहते हैं तो साहित्य से समाज को बदल देना बेमानी ही होगा! हम नैराश्य का वातावरण बनाने में अपना योगदान देकर क्या साबित करना चाहते हैं यही न कि इस विषय पर किसी ने नहीं लिखा, या फिर इस पर लिखने की हिम्मत चाहिए! क्या ऐसा नहीं लगता कि शायद ही ऐसा विषय हो जिस पर भारत के समृद्ध साहित्य ने अपना दृष्टिपात् न किया हो। पर वह दृष्टिपात् सार्थक व निरापद था। परिवार, समाज, देश पर नकारात्मक प्रभाव नहीं डालता था। हम अपनी संतान को ऐसी शिक्षा देकर खुद के लिए खाई नहीं खोद रहे हैं ? परिवार को ईकाई मानने से पहले इस देश में गांव को ईकाई माना जाता था और अब हम व्यक्ति को ईकाई मान रहे हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात कि साहित्य की प्रत्येक विधा में ‘‘हैप्पी इंडींग’’ से ‘‘तथाकथित महापंडित’’ लोगों को इस कदर तकलीफ क्यों है ? निराशा का वातावरण बनाने से फायदा क्या है ? ‘हैप्पी इंडीग’ व्यक्ति को परिस्थिति से लड़ सकने की क्षमता से लैस करती है। हर परिस्थिति में खुश रहने के तरीके ढूंढ लेने की क्षमता विकसित करती है। अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत बनाती है तो फिर हम इस संजीवनी बूटी को फेंककर खुश क्यों हो रहे हैं ? हैप्पी इंडींग और लेखक का बताया अंत भ्रमित लोगों के लिए रामबाण औषधी बन सकता है। भ्रम में पड़े समाज को और भ्रम में डालकर स्वयं को महान समझ लेने की सोच क्या सही हो सकती है ?
मृत्यु तो अवश्य संभावी हैं तो क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे हम ? मृत्यु दिवस की तारीख जिस दिन पता लगती है तो क्या उस दिन से ही अपनी मृत्यु मान लें ? या फिर उस दिन से अपना दूसरा और अलग तरह का जीवन मानकर कुछ सार्थक करने में लग जायें, जुट जायें। खुद के लिए और दूसरों के लिए भी मिसाल बनें। मृत्यु दिवस की तारीख जान लेने के बाद से मृत्यु दिवस तक का सफर कुछ यूं बितायें कि खुद की जिन्दगी खुद के लिए और दूसरों के लिए भी बोझ न लगे। ‘हैप्पी इंडींग’ मात्र स्वयं को भुलावे में रखने की वाहियात सोच नहीं है जैसा कि बताया जाता है, बल्कि सुदृढ़ परिवार और समाज की निर्माण भूमि है। इसके बाद परिवारों और समाज से देश भी तो बनता है। निराशा तो हमने ओढ़ रखी है। वर्तमान, विकास की डोर को थाम रखा है जिसकी मंजिल का स्वरूप बहुत कुछ हम देख रहे हैं फिर भी खुद को शिव मानकर गरल पीने का प्रयास कर रहे हैं। लिखे को सत्य मान लेने की सोच व्याप्त है तो फिर हम क्यों एक ऐसे समाज के निर्माण के भागीदार बने जो कमजोर से कमजोर होता जाए।
यह नहीं हो कि साहित्य के सृजन सभी कुछ अच्छा ही हो परन्तु कुछ तो हमारा विवेक हो। उत्कृष्ठ साहित्य ऐसा हो कि भले वह किसी को अच्छी प्रेरणा न दे रहा परन्तु किसी के लिए नुकसानदायी न हो। नये तरह के सृजन की अपेक्षा में ऐसा कुछ नया न रचने का प्रयास करें जो मानवता के मूलभूत सिद्धांतों की धज्जियां उड़ाता हो। दलित सृजन के नाम पर सवर्ण को गरियाना ही उसके उद्देश्य की पूर्ति करता है ? ये भी एक प्रश्न है जिस पर सोचना जरूरी है। मात्र बदला लेने के लिए कहानी के पात्र की कल्पना करना भी समाज में एक निराशा फैलाता है। ऐसी निराशा से बचकर चलने की वर्तमान आवश्यकता है। अतिरंजित चित्रण चाहे किसी भी पक्ष का हो माहौल खराब करता है क्योंकि ऐसे प्रकरण घटना बनकर जीवन में आते जरूर हैं परन्तु अपवाद स्वरूप होते हैं। हम और स्वयं विचार करें कि इस देश में यदि कैंसर का पता चलने के बाद कितने लोग मरीज को ईश्वर के भरोसे छोड़ देते हैं ? वे तो अपनी शक्ति के अनुसार पूरा जोर लगा देते हैं, उसके बाद भी अनुरूप परिणाम न मिले, वह बात अलग है।
आज नकारात्मक सोच को बढ़ावा देने के कारण अनेक समस्यायें परिदृश्य में आ रहीं हैं जो कि सामाजिक समरसता के लिए खतरे की तरह हैं। किसी कार्यालय जाने पर आरक्षित वर्ग का अधिकारी हो तो अनारक्षित वर्ग का व्यक्ति अपने काम के न हो सकने की पूर्ण अपेक्षा कर लेता है तो इसके विपरित भी घटता है। जबकि किसी एक-दो के साथ हुई घटना को आधार मान कर सभी को एक ही तराजु में तौलना कहां की समझदारी है ? इस अविश्वास के संकट के कारण वर्तमान साहित्य के ‘विमर्श’ हैं, जो लगातार व्यक्ति को वही दिखा रहे हैं जिससे आपसी विश्वास पर चोट पहुंचे और समाज का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जाये।
ऐसा नहीं है कि वास्तविकता का चित्रण ही बंद कर दिया जाये, चित्रण हो पर नकारात्मक न हो। विरोध के स्वर हिंसात्मक न हों, निराशाजनक न हों। किसी से बदला लेने के लिए हिंसा के स्थान पर अहसान का दबाव भी तो मारक हो सकता है। बीमार का चिड़चिड़ापन दूर करने के लिए उसे किसी काम में भी तो लगाया जा सकता है, उसके मन को शान्ति देने वाले उपायों से जोड़ा जा सकता है। पुरानी चौपाल वाली व्यवस्था शुरू की जा सकती है, घर में बंद करके टीवी के सामने बैठाकर बीमार बनाने वाली अपनी सोच बदलने का संदेश दिया जा सकता है।
एजेण्डाबद्ध कहानियों की थीम अपने परिवेश की समस्या पर जरूर है परन्तु नकारात्मक है। हम यदि कहानी में बताते हैं कि कालोनी का चौकीदार एक लड़की से रेप कर लेता है तो सारे चौकीदार बलात्कारी हो जाते हैं। इस कहानी के बाद सभी पत्रिकाओं में ऐसे ‘बलात्कारियों से जुड़ी घटनाओं पर कहानियों की बाढ़ आ जाती है। लगातार बढ़ते इस बलात्कारी पानी में बेचारे सज्जन चौकीदार जो कि निन्यानब्बै प्रतिशत से ज्यादा होते हैं, वे बह जाते हैं। समाज की सोच हो जाती है छोटा आदमी ऐसा ही होता है। वह प्रयोगवादी जिसने पहली कहानी लिखी थी वह प्रणेता बन कर खुशनसीब हो जाता है, समाज जाये भाड़ में। ऐसी स्थिति में चौकीदार भी स्वयं को बलात्कारी मानकर वैसा ही व्यवहार करने लगता है। हम सोचते हैं हमारा लिखा कहां सामाजिक परिवर्तन करेगा, पर करता है परिवर्तन।
समझौता करने की प्रवृत्ति, सहन करने की सोच, एडजस्टमेंट करने का धैर्य सबकुछ तो नष्ट होता जा रहा है। समाज का हर तबका एक दूसरे को शक की नजर से देख रहा है तो नारी घर में सास-ससुर देखना ही नहीं चाहती जबकि हर मां सास बनेगी। खुलेपन की बात में जो कुछ मशवरा देता है, वह एक ही पल में स्त्रीविरोधी हो जाता है। पर ऐसा नहीं है अब भी भारतीयता जिन्दा है, पर जरूरत है हमें अपनी कलम की ताकत को पहचानने की, उसकी मारक क्षमता समझने की।