वक्रदृष्टि-सनत सागर, संपादक बस्तर पाति त्रैमासिक

वक्रदृष्टि
दिनांक-5 सितम्बर 2021
(एक वक्र दृष्टिपात समाज के चरित्र पर )
लेखक- सनत सागर, संपादक बस्तर पाति त्रैमासिक

’अरे वो तेरी बुआ का लड़का तो इस बार भी रक्षाबंधन में नहीं आया! क्या हुआ क्या कोई बात हो गयी है ?’ रतना ने अपनी आंखें चौड़ी करके सुलोचना से पूछा।
’ऐसी कोई बात नहीं है, जाने क्यों उसे बड़ा घमंड है। रिश्ता नहीं रखना चाहता है तो न रखे।’ सुलोचना एकदम से नाराज हो गयी। अपने हाथ थामा बोन चाइना का महंगा डिजाइनर चाय का कप तुरंत ही टेबल पर रख दिया और फिर खिड़की के बाहर देखने लगी। उसे माथे पर उभर आयीं पसीने की बूंदें एयरकंडीशनर की सार्थकता को निरर्थक साबित करने पर तुल रही थीं। उसे अपना ये घर अचानक ही काटने पर उतारू हो गया था।
’आखिर हुआ क्या है बताओगी भी ? या यूं ही पहेलियां बुझाती रहोगी।’ सुलोचना के कंधे पर हाथ रखकर रतना पूछने लगी। रतना की हालत बता रही थी कि अगर सुलोचना न बताये तो उसकी यानी रतना की तबीयत न जान पाने के कारण टेंशन से खराब न हो जाये।
हालांकि कुछ ऐसी ही स्थिति सुलोचना की भी थी। अगर वह न बताये तो उसकी तबीयत खराब हो जाये।
’वास्तव में वो रिश्ता रखने लायक भी नहीं है। उसकी वजह से मेरे सगे भाई ने मेरे यहां आना छोड़ दिया है। वो भी अब रक्षाबंधन में नहीं आता है।’ ये कहकर सुलोचना सुबकने लगी।
शाम का धुंधलका बढ़ चला था इसलिये रतना कहने लगी।
’बता भी तो सही, हुआ क्या था ?’
रतना की अधीरता और समय की नजाकत को देखते हुये सुलोचना जल्दी-जल्दी कहने लगी।
’अरे, चार साल पहले मेरा भाई मेरे घर आया था। वह अपना मकान बनवा रहा था। लोन लिया था परन्तु उसे काफी कम लोन मिला था इस कारण उसका मकान का काम अधूरा ही रह गया। तीन दिनों तक रूका रहा। अपने जीजाजी से बात करके कुछ दो लाख रूपये उधार लेना चाहता था। तू तो जानती है आपस में पैसों का लेन देन करके अपने संबंध खराब करने से अच्छा है कि बहाना मार दो। इसलिये मेरे पति ने भी मेरे भाई से कह दिया। पिता जी से पूछ कर बतायेंगे। आखिर उन्होंने क्या गलत कहा था। भले ही मेरे ससुर जी बरसों से बीमार हैं तो क्या हम उनसे पूछ कर कोई काम नहीं करेंगे ?’
’तो फिर ?’
’तो फिर क्या, मेरी बुआ के लड़के ने मेरे भाई के कान भर दिये।’
’कैसे ?’ रतना को जानने की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी। और उसी के समानुपात में सुलोचना की बताने की!
’अरे, उसने मेरे भाई को ये कहकर भड़का दिया कि आज जरूरत के वक्त तेरी बहन काम नहीं आ रही है तो फिर भविष्य में क्या काम आयेगी। ऐसे व्यर्थ के रिश्ते ढोने से क्या फायदा। और मिट्टी का माधो मेरा भाई उसकी बात में आ गया। तब से नहीं आता है। एक बार बहुत जोर देकर बुलायी थी तो उसने कहा था-ऐसे रिश्तों से अच्छे तो दोस्ती के रिश्ते होते हैं। अगर जीजा जी मुझे कुछ पैसे न दे पाये तो तू तो दे सकती थी। करोड़पति घर की बहू है, दो-चार लाख तो तेरे पास ही रहता होगा। अपने पास से ही दे देती।
अब तू बता बहन रतना, क्या इस तरह से व्यवहार करना स्वार्थ भरा नहीं है ? अगर हम रूपये दे देते तो वह वापस करता भी कि नहीं ?
शायद उसने सच ही कहा था स्वार्थ के रिश्ते नहीं ढोने चाहिये। पर इस बुआ के बेटे ने तो हमारे संबंध में आग ही लगा दी। तब पर भी, अभी हमारे रिश्ते फिर से जुड़ जायेंगे। पर तू सोच कर देख कि अगर वह पैसे ले जाता और न देता तो रिश्ते तो हमेशा के लिये मर जाते।’ सुलोचना ने तुरंत ही अदृश्य भगवान को हाथ जोड़कर नमन किया और फिर बोली -’भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि मेरे पति बड़ी समझदारी का काम किया। रिश्तों को बचा लिया।’
पसीने की बूंदें माथे से अब तक सूख चुकी थीं।