नई रैक
पढने-लिखने-गढ़ने का शौक भी अजीब शगल है। घर के सदस्य तो अब नीलाम्बर प्रसाद जी के इस शौक को ‘सनक की हद’ तक का नाम दे चुके हैं।
घर में पत्र-पत्रिकाओं, किताबों, अखबारी कतरनों आदि का इस कदर जमावड़ा हो गया है कि लगभग सभी कमरे की आलमारियों में इन्हीं का कब्जा हो गया है। उनका अध्ययन-कक्ष तो…भानुमती का पिटारा सा दिखता है। पत्नी तो उनके शौक से इस कदर आज़िज आ गयी हैं कि इसे उनका दिमागी फितूर मानके, इन पर एक पैसे भी खर्च करने को फिजूलखर्ची मानती हैं। हालांकि तब भी वो, उनसे बच- बचाकर….कोई-न-कोई नयी किताब या पत्रिका आदि महीने- पन्द्रह दिन में खरीद ही लाते हैं।
आलमारियों में बेतरतीबी से ठूंसी पड़ी किताबें, पत्र- पत्रिकाओं को रखने वास्ते क्या इन्तजाम किया जाय? नीलाम्बर प्रसाद जी कुछ समझ नहीं पा रहे थे।……‘अगर एक नई रैक बनवा ली जाये तो….सभी सामग्रियां करीने से रखी जा सकेंगी ?’….नीलाम्बर प्रसाद जी ने बैठे-बैठे एक दिन सोचा।
‘‘घर में कोई नई रैक-फैक नहीं आयेगी, न किताबें- कापियां और कोई मैगजीन्स ही। जो हैं…..इन्हीं में पढ़िये- लिखिये-गढ़िये, और अपना भविष्य संवारिये।’’
नीलाम्बर प्रसाद जी ने जब किताबें, कापियां, पत्रिकायें, डॉयरियां आदि रखने वास्ते….एक नई रैक बनवाने के बारे में अपने सुविचार पत्नी से साझा किये तो उन्होंने उनके प्रस्ताव को सिरे से ही खारिज करते, उद्घोषणा की।
‘‘बहुत हुआ लिखना-पढना-गढ़ना। ये लिखने-पढने का शौक, अभी ठण्डे बस्ते में डाले रहिये। ठेकाने से नौकरी कीजिए। एक उत्तम और कुशल गृहस्थ की भांति बाल- बच्चों-परिवार की जिम्मेदारी निभाइये। लोग पढ़ाई खत्म करने के बाद नौकरी करते हैं, और ई बड़का-भारी लिक्खाड़ की पोंछ बने हैं। लिखना-पढ़ना ही है, तो रिटॉयरमेंट के बाद अपने शौक पूरे कीजियेगा।’’
उम्मीद के अनुसार ही, नीलाम्बर प्रसाद जी पर उपरोक्तानुसार आप्त-वचनों….? के बौछार करते उनकी पत्नी ने अच्छा-खासा लेक्चर झाड़ दिया। पर वे भी मान गये हों, अपना सा मुंह लेकर रह गये हों, कहां सम्भव था? धुन के पक्के…..जो ठहरे। दिमाग में, एक ठो नई रैक बनवाने की सनक सवार हो गयी। धुन समा गयी, तो समा गयी।
अगले दिन, सुबह टहलने जाते वक्त, उन्होंने नुक्कड़ वाले कारपेन्टर से जाकर इस बाबत चुपचाप जानकारी हासिल की, और खर्चे का हिसाब- किताब लगवाया।
‘‘अगर किताबें- कापियां रखने वास्ते, चार-बाई-छः की शेल्फ युक्त, एक ठो रैक बनवायी जाये, तो कितना पैसा खर्च हो जायेगा?’’ कारपेन्टर की दुकान के सामने ही, बोरसी के इर्द-गिर्द बैठे तीन-चार लोगों को कउड़ा तापते देख कर, उन्होंने उनमें से एक से प्रश्न किया।
‘‘कितने खाने रहेंगे? और गहरान कितना रहेगा बाउ जी?’’ उनमें से एक, जो हेड-कारपेन्टर था, ने थोड़ी उत्सुकता दिखाते प्रति-प्रश्न किया।
‘‘अऽरे भाई…किताबें- कापियां रखनी हैं, ज्यादा से ज्यादा एक फुट…गहरान, और खाने भी लगभग एक-एक फुट के अन्तराल पर ही रहेंगे।’’ उन्होंने एक विशेषज्ञ सरीखे, समझाने के अन्दाज में, उसे समझाना चाहा।
‘‘ठीक है….मैटेरियल आपका होगा कि हमारा?’’ कारपेन्टर ने बात आगे बढ़ाई।
‘‘क्या-क्या मैटेरियल लगेगा, लिखा दो, तो मैं ही लेता आऊंॅगा।’’ नीलाम्बर प्रसाद जी ने मन-ही-मन सोचा…पता नहीं ये लोग कैसा मैटेरियल लगायें? वैसे भी वो अव्वल दर्जे के काम के पक्षधर हैं। मैटेरियल और काम में, कोई समझौता नहीं चाहते थे।
‘‘तो लिखिए।’’ कारपेन्टर ने भी मुस्तैदी दिखाई।
‘‘हां, पर लेबर-चार्ज कितना देना होगा?’’ रैक के लिए जरूरी सामग्री वगैरह लिखवाने से पहले वो पूरी तरह तसदीक कर लेना चाहते थे। इस बारे में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते थे, ताकि बाद में कोई झांय-झांय…चिक्-चिक् न हो। लेबर-चॉर्ज के बारे में उन्होंने विस्तृत जानकारी चाही।
‘‘बाउ जी, जितनी बड़ी आप बताऽय रहे हैं, उतनी बड़ी रैक की बनवाई डेढ़ हजार रूपये होगी।’’ रैक की लम्बाई-चौड़ाई के हिसाब से कारपेन्टर ने अपने मोबॉयल के कैलकुलेटर में गुणा-भाग करके लेबर-चार्ज बताया।
‘‘पर ये तो बहुत ज्यादा है?’’ नीलाम्बर प्रसाद जी ने चेहरे पर आश्चर्यमिश्रित, क्षुब्ध-भाव लाते, जिज्ञासा की।
‘‘आप कहीं भी जाकर पूछ लीजिए वॉर्ड-रोब बनवाने का यही रेट है।’’ कारपेन्टर ने उनकी जिज्ञासा का यूंॅ, सहज समाधान करना चाहा।
‘‘पर मैं कोई वॉर्ड-रोब थोड़े न बनवा रहा हूॅं? अऽरे…किताबों की एक ठो सिम्पल सी रैक ही तो है, जो आगे से खुली, और पीछे से बन्द होगी। मात्र….इतना सा ही तो काम है? ज्यादा से ज्यादा एक दिन का लेबर-चार्ज ले लीजिएगा।’’. नीलाम्बर प्रसाद जी ने कारपेन्टर को पुनः एक विषय-विशेषज्ञ की भांति, सहजतापूर्वक समझाना चाहा।
’‘देखिये, बाउ जी, ये काम इतना आसान नहीं है, जितना कि आप समझ रहे हैं। कहने और करने में जमीन-आसमान का फरक होता है। बात यहां सरल या कठिन का नहीं है। बात, मेहनत, कारीगरी और फिनिशिंग-टच का भी है। अऽरे…आप असली और नकली कारीगरी का फरक भी तो समझिये। आप जैसे बताऽय रहे हैं, हम लोग वैसे काम नहीं करते।’’
नीलाम्बर प्रसाद जी तो कारपेन्टर की वाक्पटुता पर हतप्रभ से निरूत्तर, उसे देखते ही रह गये। असली-नकली की उसकी इस व्याख्या पर उन्हें बरबस ही ये श्लोक याद आ गया।…‘‘हंसः श्वेतो वकः श्वेतो को भेदो वक हंसयोः। नीरक्षीरविभागे तु हंसो हंसो वको वकः।।’’
‘‘तो फिर कैसे काम करोगे?’’
‘‘हम लोग ठेके पर काम करते हैं….बाउ जी।’’
‘‘ठीक है। तो फिर वही बता दो, ठेके पर दिहाडी का क्या रेट है?’’ इस बार उन्होंने तनिक धृष्टापूर्वक पूछा।
‘‘देखिये…दिहाड़ी का रेट तो पांच सौ रूपये हैं। ठेके का रेट जान कर आप क्या करेंगे? आपको रैक बनवानी है कि ठेकेदारी करनी है? अगर बनवानी है, तो सौ-पचास रूपये, ऊपर-नीचे समझ लिया जायेगा। रैक हो या वॉर्डरोब, बनवाने में लेबर का बस्स् उन्नीस-बीस का ही फरक होता है।’’ कारपेन्टर भी सामने वाले को समझाने में मंझा हुआ उस्ताद था।
‘‘अच्छा तो…अब तुम ये बताओ कि मैंने रैक की जो साइज बताई है, वैसी रैक बनाने में तुम्हें कितने दिन लग जायेंगे?’’
‘‘बाउ जी…कल हमारा तिहवार है। हम लोग आज शाम को ही गांॅव चले जायेंगे। अगर रैक बनवानी हो, हमारे लेबर-चॉर्ज से संतुष्ट हों, तो आप आज ही मैटेरियल गिरवा दीजिए। रैक, आज के आज ही बन के मिल जायेगी।’’ कारपेन्टर ने उन्हें विस्तारपूर्वक समझाया।
‘‘फिर भी, क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम लोग, सिम्पल सी एक रैक की बनवाई, कुछ ज्यादा नहीं चॉर्ज कर रहे हो?’’ नीलाम्बर प्रसाद जी अभी भी बॉरगेनिंग के मूड में थे।
‘‘अऽरे बाउ जी महंगाई भी तो देखिये। आखिर, हमें भी तो खाने- पीने- धोने- निचोड़ने को कुछ चाहिए कि नहीं?’’
‘‘तो महंगाई क्या सिर्फ तुम्हीं लोगों के लिए है, हमारे लिए नहीं है?’’ बात-ही-बात में नीलाम्बर प्रसाद जी को भी ताव आ गया। ‘‘बेफालतू में बहसबाजी क्यों कर रहे हैं? कहा न! बाउ जी, सौ-पचास रूपये, कमती-बेसी…समझ-बूझ लिया जायेगा।’’ माहौल में बढ़ रही गर्मी को भांपते, कारपेन्टर ने सूझ-बूझ से काम लिया।
‘‘अच्छा तो ठीक है…फिर, क्या-क्या सामान-वामान लगेगा, लिखवा दीजिए।’’ नीलाम्बर प्रसाद जी ने जैसे राहत की सांस ली हो। उन्होंने जेब से एक पुर्जा और पेन निकाला।
‘‘लिखिये…दो बोर्ड आठ-बाई-चार के। छः-बाई-चार की एक प्लाई।’’
‘‘हूं…हूं…?’’
‘‘ढाई सौ ग्राम कील, डेढ़ इंची। ढाई सौ ग्राम कील, दो इंची। सौ ग्राम कील बिना मत्थे की, डेढ़ इंची।’’
‘‘हूं…हूं…?’’
‘‘पांच सौ ग्राम सरेश। पैंतिस फिट बीडिंग।’’
‘‘ये बीडिंग किसलिए?’’
‘‘अऽरे, खूबसूरती के लिये, अउर काऽहे लिए? रैक के किनारे-किनारे बॉर्डर भी तो लगवायेंगे कि नहीं?’’
‘‘उसमें कितना पैसा लग जायेगा?’’
‘‘अब बनवाऽय ही रहे हैं, इतना खर्च भी कर रहे हैं, तो पैसे का मुंह मत देखिये बाउ जी। ज्यादा से ज्यादा दो-ढाई सौ रूपये और खर्च हो जायेंगे।’’
‘‘भई देखो, इस काम के लिए मेरा बजट बहुत ज्यादा नहीं है। केवल जरूरी-जरूरी सामान ही लिखवाइये। ये सब मैटेरियल, ठीक-ठाक रेट में कहां मिल जायेंगे, आप लोगों का तो रोज का ही काम है, कोई ठीक-ठाक दुकान भी बताइये?’’
‘‘हमने उतना ही सामान लिखवाया है बाउ जी, जितने की जरूरत है, इसमें जास्ती एक सामान भी नहीं है। देखिये, जहां तक मैटेरियल की बात है, नाका और चौक बाजार वाले तो सिर्फ कहने को हैं। किराये-भाड़े में भी आपका पैसा खर्च हो जायेगा। आप ऐसा करिये, तिराहे पर चले जाइये। सामने ही ‘नौरंगी प्लॉई मॉर्ट’ की दुकान है। वहां ये सारा सामान आपको वाजिब रेट पर मिल जायेगा। वहीं, ये भी बता दीजिएगा कि सामान ‘गुड्डू पहलवान’ के यहां जाना है। वो खुद ही अपने ठेले पर लदवा कर सब सामान यहां गिरवा देंगे।’’ कारपेन्टर ने सड़क की तरफ आकर, हाथों के इशारे से रास्ता दिखाते, नीलाम्बर प्रसाद जी को विस्तार से समझाया।
‘‘ठीक है…मैं सामने के ए.टी.यम. से पैसे निकलवा लेता हूं। फिर आपने जो-जो सामान नोट कराये हैं, उन्हें नौरंगी लाल जी के यहां जाकर, ऑर्डर्स नोट कराए देता हूं। पर कोशिश कीजिएगा रैक आज ही बन जाए। अब मैं चलूं न…?’’
‘‘हां बाउ जी, ठीक है। सामान, जितना जल्दी भिजवा देंगे, काम उतनी ही जल्दी स्टॉर्ट हो जायेगा, और रेडी भी।’’ ‘‘ठीक है। मैं कोशिश करता हूं, जल्द से जल्द, सारा सामान भिजवाने की।’’ कहते नीलाम्बर प्रसाद जी ए.टी.एम. की ओर चल पड़े। ए.टी.एम. से रूपये निकाल कर, कारपेन्टर के बताये अनुसार, वो ‘नौरंगी प्लॉई मॉर्ट’ पहुंचे।
सुबह का समय होने के कारण दुकान में दिख रहे सज्जन, अभी झाड़-पोंछ में मशगूल थे। नीलाम्बर प्रसाद जी को देख कर उन्होंने जल्दी-जल्दी कोने में रखी, फ्रेम कराई गयी तस्वीर के समक्ष, एक अगरबत्ती सुलगाई। फिर पूरी दुकान के अन्दर चक्कर लगाते, अगरबत्ती घुमायी। तत्पश्चात् तस्वीर के फ्रेम में ही, अगरबत्ती खोंसने के बाद, नीलाम्बर प्रसाद जी से मुखातिब हुए।
‘‘हां…सर जी, नमस्कार। बताइये? क्या सेवा की जाये?’’ दुकानदार ने खींसे निपोरते कहा।
‘‘मुझे ये…सारे सामान चाहिए थे? आपके यहां मिल जायेंगे?’’ नीलाम्बर प्रसाद जी ने अपने हाथ में ली पुर्जी दुकानदार के सामने बढ़ाई।
‘‘जी हां, सब कुछ मिल जायेगा। कहां पहुंचवाना है?’’ दुकानदार ने पुर्जे में लिखी सभी सामग्रियों को सरसरी तौर, पढ़ने ंके बाद मुण्डी हिलाते उनकी तरफ प्रश्नाकुलता भरी निगाहों से देखा।
‘‘गुड्डू पहलवान कारपेन्टर के यहां। पर जरा रेट…ठीक-ठाक लगा लीजिएगा। उन्होंने ही आपकी दुकान का नाम सुझाया है।’’
‘‘आप निशाखातिर रहिए। खरीद वाला, वाजिब रेट ही लगाऊंगा। शिकायत का कोई मौका नहीं दूंगा। लिस्ट के हिसाब से सारा सामान तीन हजार सात सौ चालिस रूपये का पड़ेगा।’’ दुकानदार ने कैलकुलेटर पर हिसाब लगाते बताया।
‘‘कुछ और कम करिये। मेरा बजट इतना नहीं है।’’
‘‘देखिये सर जी, बोहनी के टाइम में आपको वाजिब रेट लगाया है।’’
‘‘थोड़ी और गुंजायश कीजिए।’’
‘‘ठीक है, आप राउण्ड-फीगर में सैंतिस सौ दे दीजिएगा।’’
‘‘ये लीजिए छत्तीस सौ, अब इससे ज्यादा नहीं दे सकता।’’
‘‘अब क्या कहूं आपसे? सिर्फ सौ रूपये की ही तो कमाई हो रही है इसमें। सुबह-सुबह आप लोग भी चिरौरी करवाते हैं। सौ रूपये तो ठेले वाला ही, माल पहुंॅचवाई का ले लेगा। खैर…लाइये।’’
‘‘लेकिन सामान जितना जल्दी हो सके पहुंचवा दीजिएगा।’’
‘‘अब आप निश्चिन्त होकर जाइये। बस्स आधे घण्टे में सारा सामान ‘गुड्डू पहलवान’ के यहां पहुंच जायेगा।’’ छत्तीस सौ रूपये चुकता करते, आश्वस्त होकर नीलाम्बर प्रसाद जी दुकान से बाहर आये।
नई रैक, बनने का ऑर्डर देने के बाद घर आकर नीलाम्बर प्रसाद जी जल्दी-जल्दी नहा-धोकर, नाश्ता करके ऑफिस के लिए निकल पड़े।
‘जंगल में मोर नाचा किसी ने न देखा…’ नीलाम्बर प्रसाद जी ऑफिस में अपने काम में व्यस्त थे, कि उनके मोबॉयल की ‘रिंग-टोन’ गूंजी। उन्होंने सामने दीवाल पर टंगी घड़ी की ओर देखा। उस समय शाम के पांच बज रहे थे। मोबॉयल की स्क्रीन में देखा, बिटिया का फोन था।
‘‘हां, हलो…बताओ…?’’
‘‘…’’
बिटिया ने उधर से बताया था कि कोचिंग-क्लॉस से छूटने के बाद वो अपनी सहेली के घर चली गयी है। ऑफिस से लौटते वक्त उसे, उसकी सहेली के घर से, लेते हुए घर जाना था।
‘‘ठीक है, मैं बस्स…निकलने ही वाला हूं। तुम तैयार रहना। मैं तुम्हारी सहेली के घर के सामने पहुंचकर ‘मिस्ड-कॉल’ करूंगा। तुम फौरन बाहर निकल आना।’’ नीलाम्बर प्रसाद जी ने बिटिया को आश्वस्त किया।
‘‘…’’
‘‘ओ.के. बॉय सी.यू.।’’
ऑफिस से निकलकर, नीलाम्बर प्रसाद जी बिटिया की सहेली के घर गये। वहां से उसे लेकर, वो कारपेन्टर के यहां पहुंचे। वहां पहुंच कर उन्होंने देखा कि…दुकान में एक किनारे, रैक बनकर तैयार खड़ी है, जो बहुत अच्छी तो नहीं पर…बहुत खराब भी नहीं लग रही थी।
‘‘हां, भई, गुड्डू पहलवान जी…रैक तैयार हो गई?’’ नीलाम्बर प्रसाद जी ने अति-उत्साहित हो कारपेन्टर से पूछा।
‘‘आपके सामने इत्ता बड़ा ढांचा तैयार खड़ा है, खुद ही देख लीजिए।’’ कारपेन्टर ने भी उत्सुकता से जवाब दिया।
‘‘हां, देख तो मैं भी रहा हूं। अच्छा अब एक दाम बता दो। इसकी बनवाई कितनी देनी है?’’ नीलाम्बर प्रसाद जी ने अंतिम रूप से रैक की बनवाई जाननी चाही।
‘‘बाउ जी, दो हजार रूपये हुए।’’ कारपेन्टर ने तनिक दृढ़तापूर्वक कहा।
‘‘लेकिन…लेबर-चॉर्ज तो डेढ़ हजार रूपये तय हुआ था? ये पांच सौ एक्स्ट्रा…काहे बात के लिए?’’ नीलाम्बर प्रसाद जी तनिक आवेश में आ गये।
‘‘अऽरे बाउ जी! हम, जुबान के पक्के लोग हैं। हम लेबर-क्लॉस जरूर हैं…बाकी बेईमान नहीं हैं। हमें आज ही गांव जाना है, इसीलिए…एक ही दिन में कुलाबें मिलाते, आपका काम दिन-भर में निबटा दिया। ठेके पर कराते तो कम-अज-कम, तीन दिन का था। हम तीनों भाइयों ने सारा काम छोड़-छाड़ कर आज सिरफ आपका ही काम किया है। देखिए, एक दम फस्सग्लॉस काम किए हैं कि नहीं?’’
‘‘तुम्हारे हिसाब से ही अगर देखा जाय। एक आदमी की दिहाड़ी पांच सौ रूपये हुई, तो तीन आदमी की दिहाड़ी पन्द्रह सौ रूपये ही तो बनते हैं न?’’
‘‘अऽरे बाबू जी जरा रैक की ड़िजायन…फिनिशिंग भी तो देखिये? कहीं कोई जोड़ नहीं दिखेगा आपको। हमनें एकदम लल्लन-टॉप काम किया है। कोई हमारे काम में रत्ती-भर भी नुख्श निकाल दे, तो जो कहिए, बाजी हार जायेंगे।’’ कारपेन्टर ने भी उनके तर्क की धार को यूं कुन्द किया।
‘‘अऽरे भई, मैं यहां तुमसे हारी-बाजी करने…नहीं आया हूं। अच्छा, ये लो पन्द्रह सौ रूपये। मैं बस्स्…इतना ही दे पाऊंगा। इस रैक के चक्कर में मेरा बजट पहले ही बिगड़ चुका है। इससे ज्यादा एक पैसा भी नहीं दे सकता।
‘‘क्या बाउ जी! आप लोग भी ऐसे कामों में जब कंजूसी करने लगते हैं न! तो अच्छा नहीं लगता। अऽरे, अगर इसे आप ठीक से ‘पेण्ट-वॉर्निश-पॉलिश’ करवा देंगे, तो ये पच्चीसों साल तलक चलेगा। चार लोग तारीफ ही करेंगे। हमारा काम बोलता ही नहीं, दिखता भी है। कम-अज-कम कुछ तो सोचिए?’’
‘‘अच्छा ये लो…तीनों लोगों के लिए सौ-सौ रूपये और रक्खो। कुल अट्ठारह सौ रूपये हो गये। मैं इससे ज्यादा और नहीं दे सकता। अब…इसे मेरे घर तक पहुंचवाओ?’’ नीलाम्बर प्रसाद जी ने जैसे अन्तिम फैसला दिया।
‘‘बाउ जी, अभ्भी, ठेलिया से पहुंचाए देता हूंं।’’
अट्ठारह सौ रूपये लेने के बाद कारपेन्टर ने वहां मौजूद अन्य लोगों की मदद से रैक को अपने ठेले पर लदवाया, और नीलाम्बर प्रसाद जी के स्कूटर के पीछे-पीछे उनके घर तक आया, और घर के सामने ही दुकान लगाने वाले बरेठा की मदद से…रैक को अन्दर कमरे में रखवाकर चला गया।
‘‘ये रैक कहां से उठा लायें? कितने की है?’’ चूंकि नीलाम्बर प्रसाद जी की पत्नी को, उनके इस… ‘इन्नोवेटिव- स्कीम’…? के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, सो नई रैक देखकर आश्चर्य-भाव पूछा।
‘‘अट्ठारह सौ रूपये की है।’’ बिटिया, जो नीलाम्बर प्रसाद जी के साथ ही घर लौटी थी, ने कारपेन्टर को रैक का लेबर-चार्ज देते समय उसने जो कुछ भी देखा था, अपनी मम्मी को वही बता दिया।
‘‘अऽरे वाह…अट्ठारह सौ रूपये में इतनी बड़ी रैक! ये तो बहुत ही बढ़ियां हैं।’’ नीलाम्बर प्रसाद जी ने महसूस किया कि उस नई रैक का दाम सुनकर उनकी पत्नी ने मधुरे-मधुरे मुस्कियाते…लगभग ठीक-ठाक ही रेस्पॉन्स किया था।
अब वो पत्नी को कैसे समझाते कि बिटिया ने तो सिर्फ कारपेन्टर को लेबर-चार्ज ही देते देखा था। बाकी, प्लाई- बोर्ड-कील-सरेश-बीडिंग आदि के चॉर्ज के बारे में तो उसने कुछ बताया ही नहीं? फिर बिटिया को इसके बारे में कुछ पता भी तो नहीं था?
चूंकि पत्नी ने आगे और कुछ पूछने की जरूरत नहीं समझी, तो उन्होंने भी इस ‘काकतालीय-न्याय’…? को स्वीकारते…मौन साध लिया।
खैर…। नीलाम्बर प्रसाद जी के इस काम से पत्नी बेहद खुश थीं कि वो कभी-कभी, ठीक-ठाक निर्णय भी ले सकते हैं। फिर…उनकी किताबों, कापियों, डॉयरी, पत्र, पत्रिकाओं, अखबार की कतरनों के बण्डल आदि को रखने वास्ते, घर में एक प्रॉपर जगह भी तो हासिल हो गयी थी।
‘‘अब आपके सारे कागज-पत्तर आदि इसी रैक में आ जायेंगे। कभी मौंका मिले तो थोड़े और पैसे जोड़ कर, इसमें लकड़ी के फ्रेम जड़े…शीशे लगे हुए एक जोड़ी पल्ले भी लगवा लीजिएगा।’’ पत्नी के मुखार-बिन्द से ऐसी बातें सुन उन्हें ऐसा लगा जैसे पत्नी ने उनके लिखने-पढ़ने के शौक का समर्थन करते…मान्यता दे दिया हो?
‘‘देखना, एक दिन मेरी कहानियां अवश्य छपेंगी, और इन्हें भरपूर पहचान भी मिलेगी।’’ पत्नी के अभूतपूर्व-उत्साह…? को देखते वो भी अपनी प्रगल्भता छुपा न सके। संवाद की कड़ियां जुड़ते देख, उन्होंने बात-चीत को आगे बढ़ाना चाहा।
‘‘हां-हां…देख रही हूं। जब से शादी करके आई हूं, तब से आपके ये कागज-पत्तर ही तो सहेज रही हूं। बेवजह के कागज-पत्तर इकट्ठा करने का क्या फायदा? इससे धीमें- धीमें इन पर धूल-गर्द ही तो जमा होती रहती हैं? कमरा भी कबाड़ जैसा दिखने लगता है।’’
‘‘हां, चाहता तो मैं भी हूं…इनमें से कुछ सामग्रियों को, जो काफी पुराने हो गये हैं, छांट- बीन कर हटा दूं। पर मौंका ही नहीं मिल रहा।’’
‘‘सोचती हूं, कि किसी दिन जब आप दफ्तर में हों, उसी समय किसी कबाड़ी वाले को बुलाकर, आपकी दिक्कत का समाधान मैं खुद ही कर डालूं?’’
‘‘अऽरे! नहीं-नहीं, भाग्यवान्, ऐसा कदापि न करना? मैं खुद ही किसी दिन समय निकालता हूं।’’ नीलाम्बर प्रसाद जी ने भी झट मरहम-पट्टी करते, पत्नी को अपनी जान मुतमैयन करने की कोशिश की।
अब वे पत्नी को कैसे समझाएं कि सृजनात्मकता, उतावलेपन का नहीं, बल्कि असीम धैर्य का काम है। सतत प्रयास करना पड़ता है। पचीसों सभा-गोष्ठियां-सेमिनार आदि अटेण्ड करने पड़ते हैं। पचासों स्वनामधन्य लोगों से मिलना-जुलना होता है। बीच-बीच में परम्परागत तो कभी प्रगतिशील विचारकों से भी सम्पर्क साधना पड़ता है। कभी फलदायक तो कभी बेकार की बात-बतकहियों में बहुमूल्य वक्त जाया करना पड़ सकता है। तब कहीं जाकर ढ़ंग की चार लाइनें…लिखने का हुनर आता है।
नई रैक बनवाने के गौरी-शंकर प्रयास के उपरान्त, उसमें जमा कर रखीं पत्र/पत्रिकाओं, किताबें आदि देखकर उन्हें वही सुख महसूस हो रहा था, जो किसी सेठ साहूकार को अपनी तिजोरी देखकर होता होगा।
चूंकि…नीलाम्बर प्रसाद जी नई रैक बनवाने में सफल हो गये थे, और अनजाने में ही, या कह लीजिए संयोगवश, घर में कोई अप्रिय स्थिति भी उत्पन्न नहीं हुई। अतः उन्होंने भी नई रैक की सही लागत के बारे में मौन साधना ही उचित समझा।
राम नगीना मौर्य
5/348, विराज खण्ड,
गोमती नगर,
लखनऊ-226010, उ.प्र.
मो.-9450648701,