इंतजार
कालेज के वे दिन जब पहली ठंड ने दस्तक दी, बड़ा अच्छा लग रहा था, कालेज की पहली ठंडक बिल्कुल वैसी ही होती है जैसे किसी पौधे में फूलों का आना। मैं अपने दोस्तों रवि, निसिकांत के साथ कालेज में मजे से पढ़ाई करता हर प्रोग्राम डिबेट में भाग लेता, इस तरह यह कहें कि कालेज में लोकप्रिय हो गया था। कविता लिखना, पाठ करना मेरी आदत में शामिल हो गया था। पढ़ते-पढ़ते दूर ख्यालों में रोज कोई स्वपन देखता, पढ़ने में मैं कभी बहुत अच्छा नहीं था पर पता नहीं क्या था कि मुझसे ज्यादा मेरे दोस्त मुझसे अपेक्षा करते थे। जब परीक्षा के समय मैं किसी क्लास में जहाँ मेरी सीट होती मेरे अगल-बगल के सारे दोस्त सोचते अब पेपर आसानी से हो जायेगा, जबकि मेरी खुद क्या स्थिति रहती थी इसका अन्दाजा सिर्फ मैं कर सकता था, फिर भी पूरे उत्साह के साथ मैं अपने दोस्तों का मनोबल ऊँचा करता था। कभी इसी उत्साह का परिणाम यह होता कि मेरे दोस्त अपनी उपलब्धि का क्रेडिट भी मुझे देते, उन्हें मेरा साथ बहुत अच्छा लगता, पान, सुपारी, गुटका जिसका मैं सख्त विरोधी था तथा अपने दोस्तों को सदा मना करता। मेरे दोस्त जो इसके आदी होने पर मेरी इज्जत बहुत करते इस कारण कम से कम मेरे सामने कभी पान आदि खाकर नहीं आते। मेरी इन बातों ने कहीं न कहीं मेरे इस संकल्प को दृढ़ किया कि यदि आदमी खुद अच्छा हो तो वह लोगों को अच्छा कर सकता है। कभी-कभी कार्यक्रमों के दौरान मेरे विचारों से जुड़े शब्द-वाक्य इतने महत्वपूर्ण एवं तर्कपूर्ण होते जो मैं खुद नहीं समझ पाता कि यह कैसे हो गया पर मेरे दोस्त मेरी कला के कायल हो जाते।
वे छुट्टियों के दिन थे परीक्षा सर पर थी मैं परीक्षा की तैयारी के लिए किसी दोस्त की तलाश में था ताकि मैं अच्छी तैयारी कर सकूँ, उसी समय मेरी मुलाकात मेरे एक दोस्त अभिषेक से हुई, उसने मुझसे कम्बाइन्ड स्टडी के लिए अपने घर आने के लिए बुलाया मैं तुरन्त चल पड़ा, उसके घर आने-जाने का सिलसिला चलता रहा और हमारी तैयारी अच्छी होने लगी, हम साथ-साथ घूमते, खाते से हमारी दोस्ती काफी गहरी हो गयी।
इसी बीच उसके यहाँ मेरी मुलाकात एक लड़की से हुई जो शायद पहली लड़की थी जो न देखने में ही इतनी आर्कषक थी और न उसका रूप रंग ऐसा था कि उससे जुड़ने का कोई बाह्य कारण हो। हाँ वह अंग्रेजी विषय में अच्छा ज्ञान रखती, गृह कार्य में दक्ष थी, आई0ए0एस0 बनने का ख्वाब देखती थी, उसके चेहरे से उसकी योग्यता एवं उसकी महत्वाकांक्षाओं का पता लगाना आसान नहीं था। पर पता नहीं कब कैसे क्या हुआ हमारा एक-दूसरे से मिलना, घंटो बातें करना उसे मेरी कविता और उसमें शब्दों के चयन तथा गहराई पर बहुत आश्चर्य होता और वह हर कविता के पीछे छुपे मेरे भावों को जानने की कोशिश करतीं। शायद कुछ खोजती पर जब उसे कोई स्पष्ट उत्तर न मिलता तो कभी-कभी झुंझला जाती, उसे गुस्सा जल्दी आता था और जब उसे गुस्सा आता तो मुझे हँसी और यही उसके गुस्से का कारण बन खत्म होकर एक नये गुस्से का जन्म हो जाता और तब वह अपनी कोई किताब लेकर छत पर चली जाती, तब तक नहीं आती जब तक हम चले नहीं जाते। पर जब हमारी गाड़ी स्टार्ट होती वह दौड़कर छत के किनारे पर आती पर मेरी मुस्कान देखकर उसी आवेग में पुनः पीछे हट जाती। इस तरह हमारा लगाव बढ़ता गया, परीक्षा खत्म हुई मैं उससे मिलने पहुँचा पर वह किसी विषय पर मुझसे नाराज थी, हमेशा की तरह छत पर थी, वह चाहती थी कि कम से कम आज मैं उसे मनाऊँ पर ऐसा हो नहीं पाया, मैं काफी देर तक उसका इन्तजार करता रहा, पर वह नहीं आयी, उसे नहीं पता था कि हर शाम की तरह उस शहर में वह मेरी आखिरी शाम थी, पाँच बजे मैं उसके कमरे से निकला, सीढ़ियाँ उतरते हुए गेट पार कर जब मैंने अपनी मोटर साइकिल स्टार्ट की तो उसने हमेशा की तरह छत के किनारे आकर मुझे देखा, पर इस बार मेरे चेहरे पर मुस्कान नहीं विदाई के भाव थे, आँखो में कुछ मिले-जुले पनीले कण थे, शायद उसने मुझे रोकने के लिए अपना हाथ भी उठाया पर आवाज कहीं अन्दर दबकर रह गयी। आज वर्षो बीत गये उस घटना को पर मुझे विश्वास है कि आज भी वह छत पर मेरा इन्जार करती होगी।
शिशिर द्विवेदी
उपसंपादक मीडिया विमर्ष
बस्ती उत्तरप्रदेश
मो.-09451670475
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