अंक-2-पाठकों से रूबरू-बुजुर्गों की इस हालत का उपाय

बुजुर्गों की इस हालत का उपाय

भारतीय संस्कार का चक्र एक ऐसी विधि है जिसमें प्रत्येक प्राणी की उपयोगिता एवं शक्ति के अनुसार कर्तव्य और अधिकार का बंटवारा किया गया है एवं उसके जीवन का, इंसान की उम्र के हर पड़ाव की क्या उपयोगिता हो सकती है और वे समय के रथ के पहियों के बीच किस स्थान पर गतिशील हो सकते हैं, वैसी जगह लगाया गया है। मेहमानों को निपटाने के लिए आजकल की सिविल इंजीनियरिंग बेडरूम को ही ड्राइंगरूम बनाने पे तुली है। जिसके रिश्तेदार हैं वही निपटे उनसे। मेहमान आते ही अपने रिश्तेदार के कमरे में घुस जाते हैं। बुजुर्ग को घुटना स्पर्श मिल ही जाता है। बुजुर्गों का सम्मान न हो, हर किसी की स्थाई सोच बनी हुई है। बुढ्ढा बड़ा ही उबाऊ है, झेलाता है, कितना गंदा है, बाथरूम की बद्बू आती है, आदि आदि जुमले, बुढ्ढों पर नजर पड़ते ही आप ही आप मुंह से निकल जाते हैं।
इस संस्कार चक्र का बारीक अध्ययन बताता है कि प्रत्येक जीव का अपना एक महत्व है उसका वजूद किसी न किसी कारणवश है। आधुनिक विज्ञान उसी से कुछ लेकर पर्यावरण चक्र की कल्पना किया हैं और सिद्धांत बनाकर पेश किया है, जबकि यह पर्यावरण चक्र, भारतीय संस्कार चक्र का एक छोटा सा हिस्सा भर है। आज इस भारतीय संस्कार चक्र की कमियां निकालकर, लतियाने के दौर में, हम इसकी अच्छाईयों के लिए आंखें बंद किये बैठे हैं। इस भारतीय संस्कार चक्र को हर धर्म ने सर्वमंगल कामना की प्रतिध्वनि समेटे मजबूत सहारा दिया है। न जाने कितने ही सौ-हजार साल का निचोड़ हम तक पहुंचा था, जिसे हम सहेजने की जगह, तहस नहस करने में लगे हैं।
आज के दौर में खुद ही बीमारी पैदा कर उसका इलाज करवाने का फैशन जबरदस्त प्रचलन में है। शिक्षा, जो नौकरी के लिए जरूरी है, उसने इसमें महती भूमिका निभाई है। सरकारी नौकरी की चाहत ने इस भारतीय संस्कार चक्र को उखाड़ने में अपना पूरा दम लगा दिया है। भारतीय संस्कार चक्र की शक्ति होता है परिवार और इस परिवार की शक्ति होते हैं आपसी विश्वास से ओतप्रोत सदस्य! इस परिवार की अवधारणा पर चरणबद्ध योजना के अनुसार होता हमला, स्वार्थी और गैर जिम्मेदार समाज तैयार कर रहा है। लगातार होते हमलों में विज्ञान भी परोक्ष रूप से सहयोगी बन गया है। अदूरगामी नीतियों के बदले तात्कालिक लाभ पाने वाली नीतियों से कानून बन रहे हैं। आज की जरूरत के नाम बनने वाले नए कानून विकृत शोध के चलते, अपना क्या योगदान देंगे, यह तो समय ही दिखाएगा।
प्रत्येक के लिए आर्थिक स्वतंत्रता के ढोल ने परिवार को बिखेर दिया है। बच्चे पहले झूलाघरों में पलते हैं फिर हास्टलों में। बूढ़े टीवी देखकर जीवन काटते हैं या फिर वृद्धाश्रम की शोभा बनते हैं। वृद्धाश्रम में मनोरंजक कार्यक्रम कराने वाले अपने घर के बुजुर्गों के प्रति कितने जागरूक हैं इसी बात से रेखांकित हो जाता है कि वे अपने मूल निवास स्थान से दूर बसे हैं। वे नौकरी करने वाले लोग हैं। सरकारी (गैर सरकारी) नौकरी ने परिवार में भेदभाव पैदा कर दिया है। परिवार का एक लड़का नौकरी करता है, उससे होने वाली आमदनी से परिवार के लिए कभी-कभार कपड़े लत्ते लाकर दे देता है। प्रत्येक पारिवारिक परेशानी में घर में रहने वाला लड़का परेशान होता है। तिस पर भी बाप की जायजाद पर, खेती की कमाई पर दोनों भाइयों का हक होता है। ये कैसा उपाय है ? परिवार से दूर नौकरी पर रहने वाला पारिवारिक जिम्मेदारियों से दूर स्वछंद हो जाता है। बहू, सास की रोक-टोक से दूर हो जाती है। बच्चे दादा-दादी की छांव से दूर हो जाते हैं। यह स्वछंदता, आपसी सामंजस्य की अवधारणा पनपने ही नहीं देती है। इसे नौकरी की मजबिरयों का अमलीजामा पहनाया जाता है। नौकरी का एक झटका भारतीय संस्कार चक्र से परिवार को काट देता है। जीवन के बहुत से गुण हैं जिन्हें व्यक्ति किताबों से जान सकता है पर उसकी सोच में, व्यवहार में आने के लिए सीखना जरूरी होता है। परन्तु आज के दौर में झूठ इस कदर फैलाया जाता है कि वह सच बन जाता है। लोग अपनी सुविधानुसार अपनाने में देर भी नहीं करते। टी.वी., इंटरनेट के जमाने में यह बहुत जल्दी ही असरदार हो जाता है। जीवन के परम सत्यों को छिपाकर कुछ और बताने वाले माध्यमों का प्रभाव इस कदर पड़ रहा है कि अच्छे-अच्छे आत्मविश्वासी भी डिग गये हैं। आभासी व्यस्तता ने परिवार को समय देने पर रोक लगा दी। परिवार ही सब कुछ होता है, वही एक दूजे का होता है, जानते हुए भी स्वयं को इकाई में बदल लेता है।
इस दौर में बच्चे सबसे ज्यादा उपेक्षित हैं, जबकि उनके लिए ही यह चक्र छिन्नभिन्न हुआ जा रहा है। व्यक्ति अपने पूरे न हुए सपनों के चलते, अपने जीवन में असंतुष्ट बना रहता है। उन अधूरे, छूटे हुए सपनों को बच्चों के दिमाग में थोपने-रोपने के प्रयास में, इस तरीके से उन्मादी हो जाता हैं कि उन बच्चों को संस्कार धारा से काटने में भी गुरेज नहीं करता है। बच्चों को ऐसे स्कूल में पढ़ाना जहां सुबह से शाम तक पढ़ाया जाता है, पैदा होते ही आंगनबाड़ी झूलाघर, किड्स स्कूल में भर्ती कर देना, स्कूल से आते ही ट्यूशन क्लास, उसके शौक को जानने समझने के बजाय, डांस क्लास, आर्ट क्लास, कंम्प्यूटर क्लास, न जाने कहां-कहां ढकेलता जाता है। डॉक्टर, इंजीनियर और आजकल सी.ए., एम.बी.ए.; इससे कम तो बच्चा होना ही नहीं चाहिए। दुनिया में सभी प्रकार के व्यक्ति जरूरी होते हैं तो फिर उन लाखों बल्कि करोड़ों बच्चों का दिल क्यों तोड़ा जाता हैं, जो अपने मां-बाप की सोच को पालता-पोसता, दौड़ में हार जाता हैं ? उनका नैराश्य और मां-बाप के प्रयास में लगने वाली ऊर्जा का अकारण और प्रकृति विरूद्ध विनाश नहीं है ? स्वप्रयास से एवं स्वरूचि अनुसार नदी को बहने देना उसे स्वच्छ और शीतल बनाये रखता है। वहीं तटबंध बनाकर, बांध बनाकर उस नदी को हमारी मर्जी के अनुसार बहाना, उसमें सड़ांध, गंदगी, और विष भर देता है। बच्चों के दिल में मां-बाप अपने लिए चेतना भरने का प्रयास करते ही नहीं तो वे कैसे अपने मां-बाप के लिए संवेदनशील होंगे ? शिक्षा के प्रति जागरूकता के अभियान ने लोगों को अपनी जड़ें काटने का बहाना दे दिया है। अपने सपनों की पूर्ति की चाहना में लोग ये भी भूलते जा रहे हैं कि वे जीवन के उस दौर से जरूर गुजरेंगे जब उन्हें अपने बच्चों की सख्त जरूरत होगी। उस बुढ़ापे के वक्त को शांतिपूर्वक जीना, सम्मानपूर्वक जीना उनका अधिकार है, इसके लिए वे अपने बच्चों का उपयोग कर सकते हैं या उनका यह प्राकृतिक अधिकार है। हम प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र बनाकर उसके अधिकारों की फेहरिस्त पकड़ाते जा रहे हैं पर कर्तव्यों को क्यों नहीं बताया जा रहा है ?
मनुष्य का प्राकृतिक स्वभाव है अपनों के बीच रहना। इस स्वभाव को बदलना असंभव है, वैसे भी ये कैसे संभव है कि अपने लिए अपेक्षा रखे बिना दूसरों के लिए राजमार्ग बनाना ?
अपने बच्चों के भविष्य के लिए सोचकर अपने से दूर करना इलाज नहीं है; बल्कि बीमारी की शुरूआत है। बच्चा एक खाली पड़त भूमि होता है, मां-बाप इस भूमि को खेती के लिए तैयार कर कुछ ऐसे बीज रोपते हैं जिनकी छांव में बच्चा भविष्य में आने वाली विपदाओं से बचा रहता है या फिर बच सकता है या लड़ने की क्षमता बनी रहती है। छाती से लिपटा बच्चा अपने पालकों से उनकी संवेदनाएं अपने भीतर समेटता है। उन संवेदनाओं के चलते ही बच्चा भविष्य में अपने मां-बाप से बिछड़ने पर दर्द महसूस करता है। कमाई के लिए मां-बाप का त्याग करने से पहले उनको अपने साथ कैसे रखे इसकी चिन्ता करता है, जिसे लोग ‘‘होम सिकनेस’’ कहकर मजाक उड़ाते हैं। बच्चों की अपने मां-बाप के बिना न जी पाने की कल्पना ही तो सच्चा प्यार है। बहुत बड़ा इंजीनियर या डॉक्टर बन कर समाज की सेवा करेगा और इधर मां-बाप उपेक्षित जीवन जीयेंगे, ये कैसी समाज सेवा है ? ये कैसा दायित्व का निर्वहन है ? ऐसा प्रचलन ही तो वृद्धाश्रमों की नींव बन चुका है। पर ये सब देखकर आश्चर्य लगता है कि लोग हंसते-हंसते खुद के लिए कब्र खोदते नजर आ जाते हैं। अपनी नकली नाक के लिए ऐसा समझाने वालों से झगड़ लेते हैं।
वर्तमान समय में व्यापारी वर्ग में अपने हार जाने का बोध व्याप्त हो गया है। बड़ी-बड़ी फर्मों के मालिक जिनके यहां दो सौ-पांच सौ कर्मचारी हैं, वो अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाकर नौकरी करवा रहे हैं। छोटे परिवार के चलते मां-बाप अपने एकलौते लड़के को अच्छा पढ़ा लिखाकर अपने जमे जमाए धंधे से अलग कर रहे हैं और उनसे नौकरी करवा रहे हैं। जबकि यह निर्विवाद सत्य है कि एक धंधे को जमाने के लिए एक पीढ़ी लग जाती है और उसी धंधे से अगली पीढ़ी मोटा माल काट सकती है। फिर भी ये अंधी दौड़ क्यों चल रही है ? न जाने क्यों इस दौर में पुरानी जीवनशैली को तोड़ने मरोड़ने को ही प्रगतिशीलता माना जा रहा है जबकि अच्छाई बनी रहे और बुराई से दूर बने रहें, यह सोच होनी चाहिए थी। अनिश्चित जीवन की नींव धरना फैशन बनता जा रहा है। भले ही जूता काट रहा है पर पहनने में मजा आ रहा है।
बुजुर्ग जिन्हें पहले अनुभवों की गठरी मानकर ढोने में शान समझी जाती थी अब वो व्यवस्था बदल गई है। आज के समय तो बुजुर्ग ही बच्चों को ढोते नजर आते हैं। तीस-पैंतीस में शादी तो पचपन में बच्चे की नौकरी की ढूंढाई। साठ की उम्र तक बाप के आते-आते बच्चा कुछ करने की सोचता है। नौकरी मिली तो ठीक वरना सीताराम। नौकरी लगते ही बच्चे फुर्र! बुढ्ढे-बुढिया, पड़ोसियों और नौकर के भरोसे किसी तरह जी लेते हैं। इस बीच यह प्रश्न उठना लाजमी लगता है कि साठ बरस की उम्र में नौकरीपेशा का रिटायर हो जाना उसे, उसके परिवार को और समाज को यह संदेश देना नहीं होता है कि अब तुम बेकार हो गये हो, किसी लायक नहीं हो। और क्या यह सच नहीं है कि रिटायर व्यक्ति जीवन में उपेक्षित होता जाता है ? तो क्या इस उम्र के बाद की उसकी उर्जा का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए ? या फिर रिटायर होने के बाद वास्तव में व्यक्ति ऊर्जाहीन हो जाता है ?
प्रत्येक जीवन ऊर्जा पिण्ड है। हमें उसकी ऊर्जा का उपयोग करना चाहिए। तो इसके लिए क्या किया जाए ? इस विडम्बना को नियति मानकर ऐसा ही चलने दें ? इस सोच को और पुख्ता करें ? क्या यह महसूस नहीं होता कि भारतीय चक्र को फिर से जीवित किया जाए। इस संस्कार चक्र में बुजुर्ग बच्चों की देखभाल वो भी सम्मान के साथ करते हैं। घर आने वाले मेहमानों को निपटाने का काम उन्हीं का होता था। घर की चौकीदारी, घर का हिसाब, निर्णय लेने का अधिकार आदि, दुकानदार हों तो गल्ला संभालना एक काम होता था।
आज बड़ी विडम्बना है कि ऊपर के समस्त कार्य करने के लिए नौकर रखे जा रहे हैं और घर का बड़ा बुजुर्ग उपेक्षित पड़ा किसी तरह जीवन काट रहा है। बच्चों को खिलाने के लिए आया है, घर की चौकीदारी के लिए गार्ड हैं (फ्लैट या कॉलोनी में), घर का हिसाब बैंक में है। निर्णय लेने के लिए टी.वी. के घटिया सीरियल हैं। दुकानदार हैं तो नौकरों को चोरी करते देखना मजबूरी है।
बुजुर्गों को उनके जीवन के अंत तक किसी काम में उलझाए रखना और उनकी ऊर्जा का उपयोग करना अत्यंत आवश्यक है। स्कूलों में बुजुर्गों के द्वारा कहानी, कविता सुनाने का एक पीरियड हो, रिटायर होने के बाद उसी ऑफिस में डिस्पेच रिसीप्ट का काम कम वेतन पर हो। कॉलोनियों, फ्लैट आदि में कुटीर उद्योग हां जो बुजुर्गों के द्वारा ही संचालित हों, इसकी मार्केटिंग सरकार करे, लोगों के बीच प्रचलन में लाया जाए। आधुनिकीकरण ने हमारी सोच में, किसी खराब चीज को सुधारकर उपयोग करने का ठेका गरीबों को ही दिया है, संपन्न लोग तो नए-नए आविष्कारों से जनित सुविधाओं का उपयोग करने लग जाते हैं। पुरानी चीज को फेंककर, उसे कभी याद भी नहीं करते। यदि आधुनिक समाज के अनुसार अपनी सोच विकसित करना मजबूरी है तो उसके रास्ते इस प्रकार निकाले जाए कि हम बुजुर्गों की ऊर्जा का सदुपयोग कर सके, उनके मान-सम्मान की रक्षा कर सकें, उनके लिए सोच कर सागर जैसे हृदय के मालिक न बनें बल्कि सोचें कि हम भी तो अमरफल खाकर नहीं आये हैं। हम भी बुजुर्ग होगें तब क्या होगा ? जड़ें ही सबसे पुरानी होती हैं जो तने को संभालती हैं और पत्तों को संवारती हैं।