एक साहित्यिक विमर्श – बूड़बक सिंह राजपूत

एक साहित्यिक विमर्श – बूड़बक सिंह राजपूत

दृश्य-एक
प्यारे दर्शकों! यह आधुनिक हिन्दी साहित्य का मंगलाचरण है। आइये देखें-
यह मिस्टर ‘क’ का आलीशान बंगला है। उनका वेतन लाखों में है। उनका गार्डन हरा-भरा रहता है। सप्ताह में तीन दिन माली इनके बाग की देख-रेख करने आता है। घर में एक नौकर, एक ड्राइवर। इनके घर अंग्रेजी के अखबार आते हैं। इनके बच्चे महंगे पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं। पर ये आपसी संवाद के लिए हिन्दी में बातें करते हैं। हिन्दी फिल्में देखते हैं, हिन्दी सिरियल्स देखते हैं। मगर इनके बुक-सेल्फ में हिन्दी की किताबें नहीं हैं। अलबत्ता अंग्रेजी बेस्ट सेलर किताबों की भरमार है। इन्हें नहीं पता कि हिन्दी में लेखक नामक ‘जीव’ भी होते हैं और हिन्दी में साहित्यिक पुस्तकें भी प्रकाशित होती हैं। साहित्यिक पत्रिकाएं भी हैं।
मिस्टर ‘ख’ की कहानी बहुत अलग नहीं है। खाता-पीता घर है। ये हिन्दी का अखबार पढ़ते हैं और हिन्दी साहित्य सम्बंधी इनका सामान्य ज्ञान इतना भर है कि प्रेमचंद के बाद ये किसी को नहीं जानते। हिन्दी में साहित्यिक पुस्तकें/ पत्रिकाएं लिखी व प्रकाशित होती हैं- यह जानकर इन्हे दुनिया का सातवां आश्चर्य होता है।
श्रीमान् ‘ग’ को सब-कुछ पता है, वे हिन्दी के प्राध्यापक हैं। इनके अच्छे से घर में एक मिनी लायब्रेरी सुशोभित है- हिन्दी में लिखी किताबें भी हैं मगर वे सब ‘दान’ में मिली हुई हैं। इनकी मजाल जो एक भी खरीदी हो। वे सब-कुछ खरीदते हैं- पान, पानदान, सुपाड़ी और कत्था-खैर सब-कुछ, पीकदान-थूकदान तक मगर बीस रूपए की हिन्दी पत्रिका नहीं! सौ रूपए की किताब का तो सवाल ही नहीं! श्रीमान् ‘ग’ की तादात् इस हिन्दी पट्टी में बेहिसाब है। ये स्वयं को समीक्षक, आलोचक, लेखक, बौद्धिक, ज्ञानी, महाज्ञानी और कर्मकांडी कहते हैं- मगर मुफ्त की किताबें पढ़ना इनका अधिकार है। ये पुस्तकें पढ़कर लेखकों पर उपकार करते हैं। पढ़कर गरदन ऊँची कर लेखकों को अपनी राय सुनाते हैं। अकसर ये लोग ही हिन्दी में पाठकों का रोना रोते हैं। वे कहते हैं हिन्दी में किताबें नहीं बिकती। लोग पढ़ते नहीं इसलिए खरीदने का सवाल नहीं।
उसी माफिक एक श्रीमान् ‘घ’ हैं जो हिन्दी साहित्य की किताबें खरीदना चाहते हैं मगर पुस्तकें/पत्रिकाओं का दाम आसमान चढ़ रहा है- इसलिए ये चाहते हुए भी खरीद नहीं पाते। पन्दह रूपए की पत्रिका इन्हें महंगी लगती है, दो सौ रूपये की एक कहानी संग्रह तो वे तब पढ़े जब दहेज में ससुरजी इन्हें उपलब्ध करवायें। इनके हिसाब से पत्रिकाएं मात्र पांच रूपए में और किताबें (150-200पृष्ठवाली) पच्चीस रूपये से अधिक की नहीं होनी चाहिए। ये एक आदर्श सोशलिस्ट हैं- नेहरू लोहिया के जमाने वाले जब फ्री का यूनीफार्म, फ्री का जूता और कोटे का सस्ता शक्कर – गेहूं खाते थे। भला ये महंगाई कहां झेलनेवाले, हालांकि मुंह में दस रूपये वाला सुगंधित पान घुल रहा है – जो एक-आध घंटे में थूक दिया जाएगा।
यह मिस्टर ‘ड’़ हैं, बेरोजगार। साहित्य पढ़ने का शौक है, बुक स्टॉल पर ही पत्रिकाएं उलट-पुलट कर लेते हैं। एक-दो पत्रिकाएं खरीदना भी इनके लिए एक बड़ी बात है। इनका जेब भरे तो अच्छी किताबों की भरमार लगा दें।
हिन्दी के लेखक भी खूब पढ़ते हैं- खासकर तब जब इनका पड़ोसी लेखक, मित्र लेखक या लेखिका की नयी किताब निकली हो। तब चोरी से पुस्तक प्राप्त करेंगे और इस भाव से पढ़ेंगे कि देखें किसने क्या लिखा है। यदि इनके प्रतिद्वन्दी ने कुछ अच्छा लिखा है तो वे चुप रह जाएंगे। इनका मुंह तब खुलेगा जब इनकी दृष्टि में रचना ‘कमजोर’ हो।
क्या आप इन्हे हिन्दी का पाठक होना स्वीकार करेंगे ? वो पाठक जिसे आम पाठक कहा जाता है और ज्यादातर गुप्त रहता है। हिन्दी साहित्यिक पुस्तकों का एक और पाठक होता है- इसे हिन्दी साहित्यिक गोदाम कहते हैं जहां साहित्यिक एजेंट प्रकाशकों से मिली-भगत कर पुस्तकों के छल्ले बिछाते हैं। बोरी की बोरी! इन सुगंधित पृष्ठों को बाद में दीमक बड़े चाव से पढ़ते हैं। इनकी तादात आज के समय सबसे अच्छी है और ये प्रकाशकों/आलोचकों/ (शायद इस कड़ी में लेखक शामिल नहीं है, वह पुस्तक प्रकाशित कराकर ही खुश है। ) एजेंटो का खूब भला करती हैं।
दृश्य -दो
पर्दा धीरे-धीरे उठता है। कुछ महाशय बैठे हैं। इस तरह बैठे हैं मानो कुर्सी तोड़ देना चाहते हों। बीच में एक बड़ा मेज है जिस पर कलम दवात रखी गयी है। और कुछ हांडीनुमा बर्तन में तरल पदार्थ सा कुछ। मेज के बीचो-बीच एक बूढ़ा धोती धारी, मलमल के कुरते में सजा-धजा है। वह पान चबा रहा है। जब उसे थूकना होता है तो अपने पछवाड़़े इशारा करता है- एक सेविका थूकदान लेकर प्रतीक्षारत है। अगल-बगल मोटे और छोटे चश्माधारी, सूट-बनियानधारी, कोट-टाईधारी, सिगार-सिगरेटधारी, महान कलमधारी लोग हैं। ये जो बाई और बैठे हैं ये हैं जनाब द्रोणाचार्य, जिन्होंने साहित्य का एक भी अर्जुन निर्माण किया नहीं मगर कई बिना अंगूठा वाले एकलव्यों का निर्माण किया है। साहित्यिक घी पीने में इनकी बराबरी नहीं। इस वक्त भी ये अपनी मजबूत जंघाओं में तेल पिजा रहे हैं। बगल में कृपाचार्य जी हैं- इनकी तेल मालिश में सहयोगी। ठीक सामने साहित्यिक सम्राट धृतराष्ट्र हैं जो अब भी मोटे लाल ग्रंथों में कुछ खोज रहे है। इन्हे सब-कुछ दिखाई-सुनाई पड़ता है। इन्हें संजय की आवश्यकता नहीं। ये स्वयं सब-कुछ देख लेते हैं। इन महारथियों के अतिरिक्त कुछ और अर्द्धरथि, रथि मौजूद हैं, मगर कुछ हटकर। कोई चप्पल में तो कोई बिना जूता। सब पता नहीं क्या ढूंढ रहे हैं। कोई किसी को देख नहीं रहा है। सभी स्वयं में खोए हैं। गलती से अगर इनकी निगाहें टकरा जाती हैं तो तत्काल ये अपनी आंखे चुरा लेते हैं। मानो कुछ देखा ही नहीं।
तभी द्रोणाचार्य अपनी कुर्सी से उठते हैं और पूरा का पूरा साहित्यिक घी पी जाते हैं। जोर की डकार लेते हैं। उसी वक्त कुछ साहित्यिक विद्यार्थियों का प्रवेश होता है- वे सब बीच में बैठे भीष्म पितामह के चरण छूते हैं। विद्यार्थी उनके पांव को सामने मेज पर फैला देता हैं, चरणां की धूलि अपने सर पर लगाता है। पांव दबाता है, बारी-बारी ये सभी ऐसा करते हैं। ये सभी साहित्य के महापांडव हैं। उधर युवा कर्ण को दरवाजे पर ही रोक दिया जाता है। उसके हाथ में फटी पुरानी पांडुलिपि है जिसे वह भीष्म पितामह को भेंट देना चाहता है। तभी एक शिष्य पोस्टर बिछाता है- ‘‘साहित्य के जरिए क्रांति’’ भीष्म पितामह उठ खड़े होते हैं- अब समय आ गया है कि साहित्य के जरिए समाज में क्रांति लाई जाए। आप सब लोग अपना विचार रखें।
सभी अपने साथ लाए पोथी में डूब जाते हैं। सब कुछ न कुछ ढूंढने लगते हैं।
एक महाशय चश्मा चढ़ाकर अपने साथ लाए गं्रथ पितामह की ओर बढ़ाते हैं – ‘‘इसे शिष्या सुन्दरी ने लिखा है। मात्र 22 की है। सात कहानियों का संग्रह। एक-एक कहानी सात दिशाओं को हिलाकर रख देंगी।’’
‘‘अबे हट! तू फटीचर यहां कहां—! ‘‘- एक महाशय साक्षात् अपनी शिष्या को आगे करते हैं- ‘‘इसे देखिए। इसने वो लिखा है जो अब-तक किसी ने सोचा भी नहीं—-।’’
‘‘बस—-बस! हम सब समझते हैं।’’- कृपाचार्य को डर है कि उनका विश्वविद्यालय पिछड़ न जाए। तभी द्रोणाचार्य जोर की डकार लेते है। आज उन्होंने खूब साहित्यिक घी पीया है। फिर जांघो को ठोकतें हैं। मगर कुछ कहते नहीं। विद्वानों के बीच झूमा-झटकी होती है। मेज पर रखी दवात की स्याही गिर जाती है। भीष्म पितामह तत्काल स्याही अपनी धोती से पोंछ डालते हैं। नाराजगी से कहते हैं- ‘‘सत्यानाश! लैटिन अमेरिकन और वेस्टर्न टेकनीक से बनी अति आधुनिक स्याही थी। सत्यानाश हो गया!‘‘ सभी विद्वान हाय! हाय! करने लगते हैं- प्रायश्चित स्वरूप पितामह की धोती पर झपट पड़ते हैं और गीली स्याही अपने-अपने बदन पर, चेहरे पर लगाते हैं। इस बीच पितामह की धोती खुल जाती है। सभी ताली बजाते हैं। पितामह नाराज होते हैं पर फिर बच्चों का क्षमा कर देते हैं।
थोड़ी देर में पितामह के समक्ष लेखनी का अम्बार लग जाता है। तभी एक अत्याधुनिक विद्वान को ख्याल आता है कि अरे! हमने तो इस महा-संघर्ष, महा-विवाद, महा-विमर्श में पाठकों की भागीदारी तो बनायी ही नहीं।
सभी चौंक पड़ते हैं। हां पाठक कहां है। पाठक कहां गया—-! मिस्टर पाठक—? तुम कहां हो—?
‘मिस्टर पाठक को तलब किया जाए।’ पितामह आदेश देते हैं।
शीघ्र ही दरवाजे से एक थुल-थुल, टकला, मोटे पेट वाला जिसके पेट पर एक खुली किताब है- महापांडव चारपाई पर श्रीमान् पाठक को उठा लाते हैं। पाठक जी जोर-जोर से खर्राटे ले रहे हैं। यह वो कुम्भकर्ण है जो कभी उठता नहीं।
‘इसे उठाओ।’- आदेश होता है। शिष्य-शिष्या लाख प्रक्रम करते हैं-अपने लिखे ग्रंथ पढ़-पढ़कर सुनाते हैं मगर पाठक अचेत हैं। खर्राटे से मंच संगीतमय है। सब थक जाते हैं तब पितामह एलान करते हैं- ‘रचयिता और रचना में क्या फर्क होता है ? ज्ञाता और ज्ञेय में क्या भेद ? लेखक ही पाठक है। अतः विमर्श आगे बढ़ाया जाए।’
सभी वाह! वाह! कर उठते हैं। क्या बात! क्या बात! बिल्कुल बजा फरमाया साहेब ने!
‘हां तो हम कहां थे……! साहित्यिक क्रांति! समाज में क्रांति!
विमर्श प्रारंभ हुआ। जिसके पास चप्पल था वह अपनी दोनों चप्पलें निकालकर फेंक मारा। सामने वाले ने इसका जवाब जूते से दिया। एक ने दूसरे की कमीज फाड़ी तो दूसरे ने तीसरे की धोती ढीली कर दी। कई तो दूसरे का लंगोट ही खोलने पर आमादा हो गये। अलकिस्सा ये कि खूब जमकर महाभारत हुआ। जब सब थक गये तो रिलैक्स होने के लिए किसी ने पान की गिलोरी मुंह में दबायी, कोई सिगार का धुंआ मुंह से फेंका, कोई तम्बाकू मलने लगा तो कोई सुरती नाक से पीने लगा। कोई किसी की ओर अब न देखते थे। सब एक बार फिर अपने-अपने में हो गये। पोथियां फट-फूटा गयीं। श्रीमान् पाठक अब भी छाती पर पुस्तक खोले खर्राटा मार रहा था। जब थोड़ी उर्जा मिल गयी तो एक युवा प्रबुद्ध जो स्वयं घोषित महाप्रबुद्ध और महाक्रांतिकारी था, अपने सामने सफेद बालों वाले ज्ञानी से पूछता है- ‘हमने विमर्श तो बहुत किया, अब थोड़ा परिचय हो जाए। श्रीमान् आप कौन ? कहां से आएं हैं ? आप क्या हैं ?’
बुजुर्ग ज्ञानी नाराजगी से कहते हैं – ‘जानते नहीं हमारा नाम! दो दर्जन ग्रथों के रचयिता। मैं हूॅ ओम स्वामी जी महाराज……।’
‘क्या। कौन स्वामी जी बजेराज—-!’ वह जानबूझकर नाम बिगाड़कर सम्बोधित करता है। ओम स्वामी जी गुस्से में चप्पल उठाते हैं। फिर से हंगामा शुरू होना चाहता है। तभी एक मनमोहिनी सबका ध्यान आकर्षित करती है। सबका ध्यान उसकी पोथी में नहीं, साक्षात् उसी पर टिक जाता है। युवा उत्सुकता से देखते हैं। प्रौढ़ चश्मे के भीतर से तो बूढ़े विद्वान सबके सामने अपनी धोती ढीली करने लग जाते हैं। सबकी एक ही कामना है कि जैसे भी, सुन्दरी उन्हीं की गोद में आकर शरण ले। पर सुन्दरी बड़ी चालाकी से बारी-बारी से सबके पास जाती भी है और छकाती भी है। वह सबकी होती भी है नहीं भी होती। हां और ना की अद्भूत मिसाल पेश करती है। वह किसी कलाकार की सधी रचना की तरह आधी हकीकत आधा अफ़साना नजर आती है।
सुन्दरी को लेकर आपस में भिडं़त होती है। हालांकि ग्रंथ अब भी उसके हाथ में है।
एक सज्जन जो सुन्दरी के करीब होने का जबरन प्रयास करते हैं- सामने वाले महापंडित ललकारते हैं- ‘खबरदार! तुम लाल हरा वाले हो, दूर रहो। सटे कि मरे। तुम्हारा मिडिल काट लूंगा।’
उनकी दाद देते हुए उनके चमचे उनका कंधा सहलाते हैं- ‘हुजुर का प्रताप! आपकी महिमा, ये चाहें तो सबके सामने तुम्हारी ले लें—!
खूब ठहाका लगता है। गुस्से में लाल रंग वाली पुस्तक को बंदूक की तरह तान देते हैं- ‘जानते हो बेवकूफों मैं कौन ? मेरा सटा कि तुम लोगों का फटा—-। समझे—-?’
तभी सुन्दरी नेपथ्य से धीरे-धीरे बाहर होती है। कई विद्वान साहित्यिक विमर्श छोड़ उसके पीछे भागते हैं -‘देवी जी! अपनी पोथी तो हवाले करती जाओ! हम सब किसके सहारे जीएंगे………!‘ वे रोने-चिल्लाने लगते हैं। एक रसिक विद्वान तो गम खाकर हिन्दी क्लासिकल गीत गाने लगते हैं- ‘याद किया दिल ने कहां हो तुम….. झूमती बहार है कहां हो तुम…..।’- तभी पाठक जी सपने में ही गाने का डूएट पूरा करते हैं- ‘प्यार से पुकार लो जहां हो तुम…..।’….सभी चौंक पड़ते हैं।
तभी दरवाजे से खून की धार बहते दिखी। सभी सतर्क हो गये। लोग चीखे- ‘क्रांति! क्रांति! हमारे विमर्श से क्रांति हो गयी। वो देखो………..रक्त की धार………।’
सब खुशी से पगला गये। क्रांति सफल रही….!
तभी द्रोणाचार्य उठकर कहते हैं- ‘‘तुम सब बूढ़बक हो। ई क्रांति का रक्त नहीं है, ई रक्त है हमारे एकलव्यों का……….अनगिनत अंगूठे काटने का रिकार्ड बनाया है हमारे साहित्यिक विश्वविद्यालय ने, समझे…….. फिर वे रक्त से अपने माथे पर तिलक लगाते हैं। उनकी देखा-देखी सभी ऐसा करने लगते हैं।
सब नेपथ्य से बाहर चले जाते है………..सिर्फ कर्ण अपनी पांडुलिपि लिये इधर-उधर घूमता नजर आता है। पाठक अब भी सो रहा है। परदा धीरे धीरे गिरता है।