एक और यशोदा
बचपन की जब भी याद आई एक चेहरा साथ में जुड़ा पाई। वो चेहरा है चौकीदारीन का। हां यही कह कर हम लोग उसे बुलाते, कभी असली नाम जानने की जरूरत महसूस नहीं हुई। जब हमारा मकान बन रहा था तो उसकी देख-रेख के लिये एक चौकीदार रख लिया था। सदाशिव नाम था उसका। उसकी पत्नी को ही हम लोग चौकीदारीन कहने लगे।
चौकीदारीन एक औसत काठी की 50-55 वर्ष की ठेठ देहातन थी। मौसम और वक्त में तपा, कड़वे तेल से चुपड़ा कुछ-कुछ लम्बोतरा चेहरा। माथे पर बड़ी सी लाल बिन्दी और दूर तक सिन्दूर से भरी चौड़ी सीधी मांग। टखनों से ऊपर बंधी साड़ी, छींट का पोलका, मेहनत से खुरदरे पैरों में सांटि, हाथों में ढेर सारी रंग-बिरंगी मोटी-मोटी कांच की चूड़ियां, बीच-बीच मेंचांदी दो पाटले और मुरकु। गले में चांदी के सिक्कों की माला, हंसली। कमर में चार लड़ की करधन, बाहों में नाग मोड़ी और दोनों हाथ की ऊँगलियों में ताँबे-पीतल, गिलट और चांदी के बड़े छोटे छल्लें। सुतवां नाक में सोने की बड़ी बेसर और कान में सोने के फूल। माथे, कनाटि, ठोड़ी, बाँह और पैरों में गोदनों के निशान। जब हम पूछते यह क्यों किये, सो हंस कर जवाब देती कि मरने के बाद यही गोदने उसके साथ स्वर्ग जायेंगे। सोने चांदी के गहने यही रह जायेंगे। गहनों की ललक औरत मर कर भी नहीं छोड़ पाती।
अक्सर घर के अन्दर बाहर के काम में मशगूल रहती कभी-कभी गुनगुनाती पर अक्सर उदास लगती। जब कभी खिलखिला कर हंसती तो नीम की दातून के घंटो मांजे गये दांत दपदप करते। हम सब से बहुत प्यार करती, यहां तक कि घर के कुत्तों के जब नहला कर खाना देती तो गा-गा कर खिलाती या अगर कुत्तें नहीं खाते तो ऐसे बात करती मानों कोई बच्चों को फुसलाकर खिला रहा तो जैसे- ‘‘चल-चल पप्पी जल्दी खा, देख बबा की गाड़ी आवत है, तोला घुमाये बर नई ले जाहीं।’’ और हम लोग सब हंसते। हम बहुत छोटे थे जब अम्मा का इंतेकाल हुआ। जब हम रोते तो वह हम दोनों बहनों को अपने दोनों तरफ सुलाकर छत्तीसगढ़ी के लोक गीत सुनाया करती और बीच-बीच में समझाती जाती और तब तक सुनाती जब तक हम दोनों सो नहीं जाते।
उसके चेहरे को देख कर कोई भी अन्दाजा नहीं लगा सकता था कि उसनें अपनी जिन्दगी में कितनी तकलीफ पीड़ा, अवहेलना, तिरस्कार और अपमान झेले हैं। दुखों की भट्टी में तपकर वह एक ठोस मुकम्मल औरत बन गई थी। बहुत साल पहले शायद उसकी शादी के चार-पांच साल हो गये थे, पर उसकी गोद सुनी ही रही थी। बहुत देहाती इलाज करवाये, गुनिया, बेगा, जादू-टोना, टोटका, देवी-देवता, मन्नत-मुराद, पूजा-अर्चना सब किया गया पर उसकी गोद हरी न हो सकी। उसके माथे पर बांझ का ठप्पा लग गया। फिर उसने गांव के बच्चों से अपना दिल बहलाने की कोशिश की. पर जैसे कि गांव वालों का विश्वास कि बांझ दूसरों के बच्चों को खा जाती है सो कई बार उसकी गोद से बच्चे छीन लिये गये। वह फूट-फूट कर रोती, कभी-कभी तो इस कलंक को धोने के लिये ही वह मन्नत मानती कि सिर्फ कुछ दिनों के लिये ही सही उसकी गोद हरी कर दे चाहे फिर उसके बाद उस बच्चे को वापस ले ले। माँ न बनने के गम से ज्यादा उसे बांझ कहे जाने की पीड़ा थी।
उसे कहीं छट्टी छिल्ला में नहीं बुलाया जाता। अगर गर्भवती स्त्री के सामने पड़ जाती तो वे झट अपना पेट आँचल से छुपा लेती मानों अजन्मे बच्चे को उसकी नजर लग जायेगी। अगर किसी के घर उस वक्त पहुँच गई जब उसका बच्चा खाना खा रहा हो तो बच्चे की माँ की त्योरियाँ चढ़ जाती और फौरन बच्चे को आड़ में कर लेती। चौकीदारीन ये अपमान झेलती भोगती और दौड़कर अपने घर पहुँच कर मुँह में कपड़ा ठूँस कर बिलख पड़ती, पर वहाँ कोई नहीं होता उसके आँसू पांछने वाला। खुद ही अपने आँसू पोंछकर गाँव वालों को हजार-हजार गाली देती और दैनिक कार्य में जुट जाती।
शुरू में पति उसे तसल्ली देता पर इतने साल गुजर जाने के बाद वह भी शायद हताश और निराश हो गया था। अब तो कई बार वह चौकीदारीन की शिकायत पर खीज उठता- बार-बार वही बात क्यों दोहराती है किस-किस से जा कर लडूं ? किस-किस का मुँह बंद करूँ? कई बार तो झुंझलाकर जोरदार पिटाई भी कर देता जमीन पर पड़ी-पड़ी देर तक रोती रहती, फिर, जब थक जाती तो अपने आप शांत हो जाती, न कोई मनाने वाला और न ही कोई दिलासा देने वाला। आँसू पोंछकर रसोई में घुस जाती और बुझती आग पर पड़ी राख फूंक कर हटाती मानों पति के लात घूसों को फूंक मारकर अपने शरीर से झाड़ रही हो और फिर जुट जाती खाना बनाने उसी पति के लिये जिसके दिल में उसके लिये अब कोई हमदर्दी नहीं थी और जिसने अभी-अभी उसके जिस्म पर अपनी क्रूरता के नक्शे का बना दिये थे। खाना पका कर दरवाजे की आड़ से अपराधियों की तरह उसे खाने के लिये पुकारती। यही आये दिन का किस्सा था।
चौकीदार सदाशिव सोमवार के भोर होते ही शहर चला जाता, जहाँ उसका काम चलता था और फिर शनिवार की शाम लौटता अपनी हफ्ते भर की मजदूरी और जरूरत का सामान ले कर। इधर हफ्ते भर चौकीदारीन क्या-क्या झेलती इसका उसे गुमान तक नहीं था ? और न ही चौकीदारीन उसे अब बताती, जानती थी बताने से कोई फायदा नहीं। पति एक दिन रहता और फिर चल देता हफ्ते भर के लिये। चौकीदारीन भी गाँव में मजदूरी करती और अपना खाली वक्त पति के इन्तजार में गुजारती।
शनिवार की एक शाम, गोधुली की बेला, गाँव के सारे जानवर चारा चर कर लौट रहे थे। कच्ची पगडन्डी पर जानवरों के चलने से उड़ी धूल के बादल, घन्टियों की टुन-टुन और रम्भाने की आवाज और थका हारा लाल डूबता सूरज। ऐसे सम्मोहित वातावरण में इन्तजार बड़ा कठिन हो जाता है, आज चौकीदार आने वाला था। उसने सारा घर, आंगन लीप पोत कर चकाचक कर दिया था। और हाथ मुँह धोकर चौखट पर बैठकर शाम के लिये भाजी तोड़ रही थी और पति का बेसब्री से इन्तजार। हाथ भाजी तोड़ रहे थे और आँखे पगडन्डी के उस मोड़ पर टिकी थी जहाँ से उसे हमेशा सदाशिव आता हुआ नजर आता था।
जब काफी देर तक वह नहीं आया, और अंधेरा घिर गया, तब उठी, भगवान के आगे दिया जलाई और बड़ी श्रद्धा से हाँथ जोड़कर मन ही मन न जाने क्या कामना की फिर चिमनी जला कर ताक पर रख ही रही थी कि जानी पहचानी कदमां की आहट से उसके बुझे मन में खुशी की लहर दौड़ गई। मुड़कर देखी नीम उजाले में उसने चौकीदार को पहचान लिया। पर आज बड़ा बना संवरा लग रहा था। नई धोती, कुरता और कांधों पर नया गमछा। अभी वह आगे बढ़ कर उसके हाथ का झोला लेने वाली ही थी कि उसकी नजर चौकीदार के पीछे सर पर टिन की फूलदार पेटी लिये एक औरत पर पड़ी। इससे पहले कि वह कुछ सवाल करती, चौकीदार ने उस औरत से कहा- ‘‘ये तेरी दीदी हैं’’ वह औरत पेटी नीचे रख कर आगे बढ़ी और अपना आँचल दोनों हाँथों से पकड़कर झुककर चौकीदारीन का पांव पड़ ली। वह हक्की-बक्की रह गई। कुछ देर तो वह इस नई समस्या को समझ ही नहीं पाई और जब समझी तो बुक्का मारकर जमीन पर बैठ रोने लगी। दोनों का अनाप शनाप बकने लगी, ‘‘तौर जव्हर हो जावे, मोर छाती ऊपर मूंग दरे बर सोंत ले आयहस।’’ वे दोनों सर झुकाये चुपचाप चौकीदारीन की गालियाँ झेलते रहे। सदाशिव और वह औरत जिसका नाम सोनबती था इस परिस्थिति के लिये पूरी तरह तैयार थे। सोनबती एक कोने में जाकर बैठ गई। जोर-जोर से रोने की आवाज से अड़ोस-पड़ोस के लोग जमा हो गये। कुछ तो अन्दर ही आ गये और कुछ बाहर से ही ताँक-झाँक करने लगे। घर में नई औरत को अपराधियों की तरह बैठी पैर से जमीन कुरेदती देखकर माजरा समझ गये। सब को मालूम हो गया कि सदाशिव दूसरी औरत घर ले आया है और यह रोना इसी का विरोध हैं।
मर्द तो सारे वापस हो गये तब औरतों ने गांवों संभाला। ‘‘काय करबे मरद जात के भरोसा नाहि, द्वारी ले बाहर जाये ता ओकर नियत बदल जाथे। ले जब असन रोय ले कुछ फायदा नाहि, अपन कलेजा ऊपर पत्थर रख ले, अऊर दुन्नु ला माफी दे दे, जो होइस ता होइस।’’ उसके बाद एक-एक कर के चल दिये। सबके चले जाने के बाद चौकीदार अपनी चौकीदारीन के पास गया और फुसलाने की कोशिश करने लगा- ‘‘देख ये तौर छोटी बहनी जसन रही, तें जसन चाहबे वसने रहौ, तौर सेवा करही अरूर दुन्नों मिल कर मजूरी करूहूँ.’’ वगैरा वगैरा। चौकीदारीन का उबाल भी खत्म हो गया। उठकर रसोई में जा कर चूल्हा जलाकर दालभात, आलू का भुर्ता बनाई, फिर उन दोनों को खाने पर बुलाई, दोनो आकर बैठ गये। पहले तो चौकीदारीन मुंह फुलाई रही पर सोनबती के मनुहार पर वह भी खाने बैठ गई। लेकिन कौर उसके गले से नहीं उतर रहा था। इतना आसान नहीं था अपना एकाधिकार किसी के साथ बाँटना।
कुछ दिनों के बाद जिन्दगी फिर उसी ढर्रे चलने लगी। पहले तो सदाशिव हफ्ते के हफ्ते आता और सोमवार के पौ फटते काम पर चल देता। पर कुछ महीने बाद वह सोनबती को भी खाने-पीने की तकलीफ बताकर अपने साथ ले गया। चौकीदारीन का गुजारा गांव में भी मजदूरी कर के चलता रहा।
अभी कुछ महीने ही बीते थे कि सदाशिव और सोनबती वापस गाँव आ गये। उन्हें देखकर चौकीदारीन अपने मन की भड़ास निकालने ही वाली थी कि सोनबती की स्थिति देखकर उसके भीतर का गुबार शांत हो गया। सोनबती मां बनने वाली थी इसीलिये चौकीदार उसे छोड़ने लाया था। चौकीदारीन अपना सारा स्नेह जब उस पर लुटाने लगी, खूब सेवा करती। उसका उत्साह देखकर लगता मानों सोनबती नहीं चौकीदारीन मां बनने वाली हो। और एक दिन सोनबती ने एक नन्हें से जीव को जन्म दिया जिसे दाई बच्चे की गुदड़ी में लपेटकर चौकीदारीन की गोद में दी तो वह निहाल हो गई और खुशी से उसकी आँखों से आँसुओं की धार फूट पड़ी- ‘‘मेरी कोख न सही, मेरी गोद तो भर ही भगवान ने। सारे गांव में करी के लड्डू बंटें।
बच्चे की सारी सेवा जतन दाई से न-करा खुद करती। अब उसे दम मारने की फुरसत नहीं थी। सुबह उठते ही पानी छिड़ककर बुहारती फिर गन्दे पोतड़े, गुदड़ों, चादर ले जा कर गांव के तालाब पर ले जाकर धोती, फिर खुद नहाकर घर आती, कपड़े सूखने डाल कर चूल्हा लीप कर चाय बनाती। तब तक सोनबती भी उठ जाती। उसे भी चाय दे-दा कर वह बच्चे की तिमारदारी में जुट जाती। कड़वे तेल से मालिश करती, कन्डे की हल्की आँच से सेंकती फिर कपड़े से अंगोछ कर काजल लगा कर, कपड़े पहनाती। इस दौरान वह नन्हा भी अपनी बड़ी माँ के ममतामयी हाथों का खूब पहचान गया था। सारे क्रिया क्रम के चलते हूँ हाँ करते रहता।
सोनबती भी खुश रहती अपने बच्चे पर उसकी इतनी ममता देखकर, वह सिर्फ दूध पिलाने की मालकिन थी। ढेरों हिदायत दे कर चौंकीदारीन मजदूरी के लिये निकल जाती। शाम को लौटने की इतनी जल्दी रहती कि दो पल ठहर किसी से बात नहीं करती। गांव वाले तरह-तरह की बातें करते वह एक कान से सुनती दूसरे से निकाल देती -‘‘जलते हैं सब मेरी खुशी देख कर।’’
पर उसकी खुशी ज्यादा दिन नहीं चली। जैसे ही सोनबती चलने फिरने लायक हुई, सदाशिव आया और दोनों माँ बच्चे को शहर वापस ले गया। बेचारी चौकीदारीन, बीच चौराहे पर ठगी सी खड़ी रह गई। वह तो सोच बैठी थी कि सोनबती और मुन्ना अब उसी के पास रहेंगे, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। चाहकर भी वह उन्हें रोक नहीं पाई। मुन्ने को सोनबती के हाथों में देते समय उसे ऐसा लगा मानो अपने शरीर से कलेजा ही निकाल कर दे रही है आज उसे पहचान हुई कि दूसरों के बच्चों को चाहे कितना भी दिल से लगाओं पर अपना नहीं बनता।
उन लोगों के चले जाने के बाद वह बहुत रोई। उस दिन उसके घर चूल्हा नहीं जला। चुप-चाप आँसू बहाती जमीन पर बोरा डाले पड़ी रही। रात भी भूखे पेट सो गई। सारी रात आधा सोई, आधा जागती रही। कई बार नींद में लगा मुन्ना रो रहा है और उसका हाथ उसे थपकी देने के लिये उठा पर खाली बिस्तर पर पड़ते ही उसकी नींद टूट गई। एक बार फिर आँसुओं का बांध टूट गया और सारी रात आँखों में ही कट गई। सुबह उठी तो थोड़ा सहज हो पाई। दैनिक कार्यो से निपट आई तब तक जोर की भूख लग गई। यह पापी पेट है जो आज आदमी को हर गम भूलने पर मजबूर करता है चौकीदारीन भी कल का बचा पेज खाई, घर को व्यवस्थित किया उसके बाद भी लगा आज कितना खाली समय बचा है और फिर वह मजदूरी पर निकल आई। वहाँ भी रह-रह कर मुन्ना याद आता रहा। फिर अपने ही दिल को तसल्ली देती–‘‘उँह, किसी के बच्चे पर अपना क्या जोर ?’’
साल नहीं बीता था कि सदाशिव सोनबती को दोबारा छोड़ गया। इस बार चौकीदारीन झुंझला उठी। उसे सिर्फ सेवा करने वाली दासी ही समझ रखा है दोनों ने। मतलब पड़ा तो चले आये और मतलब निकल गया तो पलट के नहीं पूछा कि कैसे जी रही हैंं। वाह रे भाग्य।
इस तरह तीन बच्चे हुये। दो लड़के और एक लड़की। लड़की जब चार माह की ही थी कि एक दिन जवान सोनबती अपने बूढ़े पति को छोड़कर किसी प्रेमी के साथ भाग गई। सदाशिव ने उसे वापस लाने की बहुत कोशिश की। उसके तीनों मासूम बच्चों का वास्ता दिया पर वह निर्मोही वापस ही नहीं आई। आखिर थक हार कर एक बार फिर वह चौकीदारीन की शरण में ही पहुँचा। पहले तो उसने उन्हें अपनाने से ही इंकार कर दिया। दोनां को मन भर कर बुरा भला कहा, खूब रोई। दोनों भाई सहमें हुये सूखे मुंह से चौकीदारीन के फैसलों का इंतजार कर रहे थे। उनके गालों पर बहे आँसू की धार अभी भी नजर आ रही थी। बिन माँ के मासूम बच्चों का मुँह देखकर उसके दिल पर जमी बर्फ पिघल गई। और जैसे मुर्गी खतरा देखकर उसमें चूजों को परों में समेट लेती है, उसी तरह उसने भी उन्हें अपनी ममता के आंचल में समेट लिया।
वह दिन है और आज का दिन है किसी ने भी पलटकर गुजरे वक्त की याद नहीं किया। आज चौकीदारीन ही उन बच्चों के लिये सब कुछ थी। अगर चौकीदार किसी बात पर चौकीदारीन पर बिगड़ता तो सारे बच्चे मां की तरफ ही जाते। चौकीदारीन गद-गद हो जाती। अब उसे अपने बांझ होने का दुख तो दूर ,एहसास ही नहीं होता था। दूसरे की कोख से जन्में उसके इतने अपने हो जायेंगे उसने सपने में भी नहीं सोचा था। कौन कहता है ऊपर वाले के पास इंसाफ नहीं है कहां तो वह बेचारी इस एक बच्चे के लिये तरस रही थी और कहाँ उसकी झोली उम्मीद से ज्यादा भर गई।
दोनों लड़के पढ़ लिखकर पास की फैक्ट्री में नौकरी करने लगे और छोटी बहन का ब्याह कर दिया। सारी तनखा लाकर दोनों बेटे माँ के हाथ में दे देते, मां काला पीला कुछ भी करें, उन्हें सरोकार नहीं था और चौकीदारीन एक-एक पैसा दांतो से खींचकर रखती। उसे अपने बेटों की शादी जो करनी थी। और वह शुभ घड़ी भी आ गई जब धूम-धाम से चौकीदारीन के घर दो सुन्दर बहुयें आ गई।
बहुयें भी चौकीदारीन को वैसा ही मान सम्मान देती जैसे उनके पति देते। चौकीदारीन के प्यार की गागर तो हमेशा छलकती ही रहती। रोजमर्रा के काम चौकीदारीन अब भी करती, बहुयें उसके हाथ से काम छीन लेतीं पर वह कहती– ‘‘अगर तुम लोग काम नहीं करने दोगे तो मैं बहुत जल्दी मर जाऊंगी जो मैं नहीं चाहती। मैं तो अभी अपने पोते पोतियों को खिलाऊंगी और इतने साल जीऊंगी कि तुम लोग मुझे टोकनी में ढांक सको। पर उसका यह अरमान पूरा नहीं हो सका। एक दिन सुबह-सुबह जब वह आंगन लीप रही थी उसका पैर गोबर पर पड़ा और वह फिसल गई, सर पत्थर से टकराया, बस मौत को बहाना मिल गया और चौकीदारीन बेहोशी की हालत में ही चल बसीं। बाप बेटों ने उसे बचाने की बहुत कोशिश की पर मायूसी ही हाथ लगी।
जब अर्थी उठी तो बेटे, बेटी, बहुओं और रिश्तेदारों का रो-रोकर बुरा हाल हो गया। कुछ बुजुर्ग महिलायें उन्हें समझानें लगी –‘‘अरे तुम सब रोते क्यों हो, चौकीदारीन तो बड़ी भाग्यवान थी जो सुहागन मरी। अपने पीछे भरा पूरा परिवार छोड़ कर जा रही हैं।’’ देखा। कल तक जो बांझ, डायन और न जाने किन-किन नामों से बुलाई जाती थी आज उसे ही लोग भाग्यशालिनी परिवार वाली कह रहे थे। चौकीदारीन की तपस्या, त्याग, सेवा और ममता ने उसके बांझपन के कलंक को धो डाला था।
श्रीमती खुर्शीद बानो ख़ान
जगदलपुर