पछतावा
एक शाम पिता की निरीह आंखें राह देख रही थीं। वृद्धाश्रम में दरवाजे की ओर टकटकी सी लगी थी। बेटे की प्रतीक्षा में वह वृद्ध आंखें एक आस लिए जिन्दगी की शाम गुजर न जाये।
तभी अचानक सामने देखा कुछ सकुचाता हुआ बेटा आकर खड़ा हुआ देखकर, पलकें बंद हुईं। एक गहरी सांस के साथ अंतिम सांस थी बस यही आस थी।
बेटे को फिर सारी बातें याद आती चली गईं। बचपन से लेकर आजतक किस तरह मां की मृत्यु के बाद मां की कमी महसूस नहीं होने दी और माता-पिता दोनों बन कर बेटे की परवरिश की। पढ़ा लिखा कर काबिल बनाया, फिर विवाह भी करवा दिया। इसके बाद वे पारिवारीक कलह के चलते अपने बेटे से दूर होते गये।
फिर एक दिन बोझ समझकर वृद्धाश्रम लाकर छोड़ दिया गया। फिर कभी सुध न ली गई। अब आंखों में आंसू के साथ पछतावा ही तो साथ रह गया।
निर्णय
उषा की मां को बीमार पति और बेटी के ब्याह की चिन्ता है। पति पेशे से वकील हैं पर पिछले कुछ माह पूर्व ही उन्हें लकवा मार गया और वे बिस्तर पर पड़ गये। बायां अंग पूरी तरह से काम करना बंद कर दिया था।
तीन बेटियों की शादी हो चुकी है और कुछ जमा पूंजी से बेटे की इंजीनियरींग की पढ़ाई चल रही है। वह पढ़ने को बाहर गया है।
उषा मां और पिताजी तीनों चाचा-चाची के साथ रहते हैं। चाचा के दोनों बच्चे भी बाहर पढ़ते हैं। उषा ग्रेज्युएट है और घर पर ही कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती है साथ ही नौकरी भी तलाशती है। वह जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़े होना चाहती है और अपने परिवार की जिम्मेदारी लेना चाहती है ताकि चाची के रात दिन के तानों से मुक्ति पा सके। आज सुबह ही मां ने बताया कि बुआजी ने फोन करके बताया कि कल लड़के वाले उषा को देखने आने वाले हैं। जब किचन में उषा आई तो चाची कहने लगी-अब शादी के पैसे कहां हैं, पैसे के पेड़ पर फलते हैं जो जिठानी शादी की रट लगाये है।
उषा कहती है-मैं अभी शादी नहीं करूंगी। अपने पैरों पर खड़ी होऊंगी।
कु. चंद्रकाति देवांगन
स्व.श्री संतप्रसाद देवांगन
महादेव घाट पारा
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जिला-बस्तर, छ.ग.
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