लघुकथा-नरेश कुमार उदास

बाढ़

सुखिया की खपरैल की झुग्गी का नामों निशान मिट चला था। बुढ़िया इस दुनिया में अकेली थी। उसका एकमात्र पुत्र गत वर्ष दरिया की निर्मम लहरों में खो गया था। बहकर आती लकड़ी को पकड़ने के चक्कर में। वह सोचता था, लकड़ी लाकर मकान बनायेगा।अब रह गई थी सुखिया। इस साल बाढ़ ने कहर ही बरपा दिया। बुढ़िया के बर्तन तक बाढ़ की भेंट चढ़ गये। वह रोती-बिलखती पगलाई सी रह
गई। देखते-देखते पल भर में सब बह गया था।
सरकार राहत बांट रही थी। गांव का मुखिया सरकारी कारिन्दे को साथ लिए घूम रहा था।
’’सुखिया! यहां अंगूठा लगा दे। सरकारी आदमी आया है तुम्हें पांच सौ देगा।’’ बुढ़िया ने सिर पर दुपट्टे का घूंघट खींचकर चुपचाप मुखिया के आदेशानुसार अंगूठा लगा दिया।
बुढ़िया क्या जाने कि उसने 500 रूपये लेकर एक हजार की रकम पर अंगूठा लगा दिया था।

विचार विमर्श

दो साथी आपस में विचार-विमर्श करते-करते गर्मागर्मी पर उतर आये थे। एक साथी ने कहा-’’सारा दोष हमारी संकीर्णता का है हम पिछले साठ वर्षों में जात-पात के चक्करों से छूट नहीं पाये तो तरक्की क्या करेंगे भला?’’
दूसरे ने जोश में भरकर कहा-’’यही विविधता तो हमारी पहचान है।’’
पहले ने प्रश्न दागा था-’’जात-पात, ऊंच-नीच के भेद खत्म होने चाहिए। हमें मात्र भारतीय कहलाने में फख्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र अनुभव होना चाहिए न कि जातिमूलक शब्द जोड़कर।’’
दूसरे ने भड़क कर कहा था-’’यह हमारी प्राचीन संस्कृति का चलन है। हमारे वंशजों का गुणगान निहित है। इन उच्च जातियों के सम्बोधन में।’’
’’यही भेदभाव हमें पीछे ले जा रहे हैं। हम पिछड़ रहे हैं, जबकि जापान, चीन बहुत आगे निकले जा रहे हैं।’’ पहले ने पुनः उसे तर्कसंगत भाव से समझाया।
‘‘तुम मुझे हिन्दू ही नहीं लगते ?’’ दूसरा आग उगलने लगा था।
‘‘हां……हां, मैं न हिन्दू हूं, न मुसलमान हूं, और न ही ईसाई। मैं तो मात्र एक इंसान हूं। सच्चा भरतीय।’’ पहले साथी ने भावावेग से भरे-भरे कहा था।


नरेश कुमार ‘उदास’
आकाश-कविता निवास
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