खाली हथेली
तुम कुछ मांगती नहीं थी – न तुम्हें चाहिये था, फिर भी तुम चाहती थीं हर वस्तुस्थिति में मेरा होना। घर में, दीवारों में, कारों में, आंगन में, दालान में जहाँ भी जरा टूट फूट होती तुम्हें मेरे होने की प्रत्याशा रहती थी, जो मैं कभी पूरा नहीं करता-क्योंकि करना नहीं चाहता था। पता नहीं कोई वितृष्णा की गहरी लकीर थी जो तुम्हारे और मेरे बीच लक्ष्मण रेखा सी उदीप्त रहती। मैं इस रेखा के अंदर आता तो शायद जल जाता। मैं भस्म होना नहीं चाहता था। आम लोग जिसे पहले दिन बिल्ली मारना कहते हैं, पर बिल्ली मारते – मारते स्वयं ही बलि चढ़ जाते हैं, अपना-आप भूल कर विसर्जित हो जाते हैं – एक पावस भीगे आलते से रंगे पांवों के नीचे, किसी की रूनझुन पायल की कुहुक के साथ बंध जाते हैं। मैं स्वयं को इस तरह शहीद नहीं होने देना चाहता था, मैं स्वयं को जीवित रखना चाहता था।
उस पर तुम सहस्त्र पंखों वाली स्वछन्द तितली बन कर उड़ने में विश्वास रखने वाली और मैं खिड़कियां, दरीचे, दहलीजें बंद रखने की कोशिश करता-तुम फिर उड़ जातीं। यह आदत तुम्हारी कॉलिज में भी थी। कॉलिज में तुम मुझे बहुत सताती रही। उड़ी-उड़ी फिरती-कभी इस डाल तो कभी उस डाल। कभी इस मंडली की चहेती तो कभी उस मंडली की। मैं जानता था कि तुम्हारी अनन्य सुंदरता, अनूठी चाल पर सारा कॉलिज दीवाना था और इसी का लाभ तुम उठाती थी मुझे चिढ़ा कर – यों अंदर से मैं आश्वस्त था कि तुम मेरी हो, सिर्फ मेरी- और कहीं तुम भी उसी शिद्दत से यह जानती थी।
हम ने विवाह भी इस लिए किया क्योंकि हम एक जोड़ी के रूप में जाने जाते थे। हमारे घर तक में इसकी स्वीकृति हो चुकी थी। सभी इस को स्वीकार कर चुके थे कि एक ही क्लास के दो डाक्टर-बुरा भी क्या है। मुझे याद है- जब तुम फाइनल में प्रथम श्रेणी लेकर आई तो मेरे प्रति तुम्हारी बेरूखी बढ़ गई थी – क्योंकि तब तक तुम मेरा उद्देश्य जान गई थी कि मैं तुम्हारी हेकड़ी तोड़ना चाहता हंू। और एक दिन तुम्हारी एक नकारात्मकता का खुल कर बदला लूँगा – तभी से हमारे बीच एक गाँठ पड़ गई-जिसने मेरा पशुत्व और प्रभुत्व दोनों जगा दिये। तुम नहीं चाहती थी यह विवाह हो और इसके लिये तुम ने प्रयत्न भी किये पर वह समय और था। घर वालों के सामने और मेरे सामने तुम्हारे किसी तर्क ने काम नही किया। आज जिस हथेली में मैं तुम्हारा कोमल हाथ थामे बैठा हूँ उसी में तुम्हे दबोच-कर अट्टहास भरी हंसी हँसता रहा। शायद मैं ही एक ऐसा पुरूष हूँ जिस के अंदर का जानवर सदैव जीवित और बुलंद रहा। यह जानवर होता तो सारे पुरूष वर्ग में है पर कभी-कभी या शुरू-शुरू की नवेली चूमा-चाटी में पुरूष एक पालतू चौपाया बन कर अपनी दानवी-प्रवृत्ति को दबा लेता है और सारी उम्र हिनहिनाते हुए जिंदगी बिता देता है या शनैः शनैः अपना रूप बदलता रहता है -कभी खूंखार-तो कभी पालतू खरगोश।
लेकिन मैं जब तुम्हें यहाँ लाया तो लगा जैसे सारा अमेरिका- मेरी इस कुव्वत का एहसान मानता है। यहाँ तक कि तुम्हारा सारा कुनबा तुम्हारी सहेलियां भी-तुम्हारे भाग्य पर इतराती थी। केवल नहीं मानती थी तो तुम ! और यही मैं मनवाना चाहता था। क्योंकि तुम मेरे साथ आयी थी। मेडिकल कालेज में जहां हम पढ़ते थे- तुम मुझसे आगे ही रहती थी। पर जानती हो मैंने कभी उस बात को कोई तरजीह नहीं दी। मेरे मन में, मेरे घर में -मेरे आसपास यह इतना बुलंद था कि मैं पुरूष हूँ और तुम्हारा दर्जा या किसी भी लड़की का दर्जा मुझ से छोटा ही रहेगा। याद है जयमाला के समय मुझसे कितनी शिद्दत से मनवाया गया था कि तुम्हारे सामने सर नहीं झुकाना-नहीं तो सदा के लिए निकम्मा गुलाम हो जाऊँगा। दोस्त-मित्र भी चिल्ला-चिल्ला कर, उचक-उचक कर न झुकने की सलाह दे रहे थे। आखिर तुम्हारे भाई ने तुम्हे तनिक उठा कर – जयमाला मेरे गले में डाल दी थी। मैं अंदर ही अंदर अपने दोस्तों का कितना आभारी था कि मुझे झुकने से बचा लिया। मुझे लगता मैं कहीं शिखर पर बैठा तुम पर गोलियां दागूं और उम्र भर दागता रहा। तुम सुबह सुबह उठ कर मेरा और बच्चों का नाश्ता बनाती। भाग-भाग कर उन्हें तैयार करती और फिर भाग-दौड़ में अस्पताल के लिये निकलती। कई बार तुम्हें देर हो रही होती तो मैं कार लेकर निकल जाता – बिना यह सोचे कि तुम कैसे जाओगी-कैसे पहुँचोगी-क्योंकि अस्पताल की ड्यूटी से पहले तुम्हारी क्लास भी होती थी। तब हमारे पास एक ही कार थी। पर मैंने कभी पता नहीं किया कि तुम उस दिन कैसे पहुंची। तुम्हारी ड्यूटी या क्लास भी कैसे हुई बस मैं अपनी धुन में था। ‘‘मैं‘‘ बस ‘‘मैं‘‘ मेरे आसपास दुनिया घूमती थी और मैं चाहता था-तुम्हारी दुनिया-तुम्हारा वजूद भी बस मेरे आसपास घूमें। मैं हूँ और यही सर्वोपरि है। पर तुम्हारी ओर से नकार की भावना मुझे और भी अक्खड़ और जिद्दी बनाती रही। मैं तुम्हारी थकान, तुम्हारी टूटन, तुम्हारी व्यस्तता ओर से जिम्मेवारी को नकार कर चाहता कि रात को तुम्हें उसी तरह मरोडू-मसलंू और अपनी प्यास मिटाऊँ और तुम बस मेरे पास बिछी रहो-मेरी प्यास बुझाती रहो-तब तक जब तक मैं न थक जाऊं। तुम ने वह भी सहा और शिकायत नहीं की। यद्यपि बच्चे कभी-कभी आकर कहते-पापा। आज मम्मी रो रही थी। मैं चुप्पी लगा जाता। सब जानते हुये भी सब कुछ अंदर घुटक जाता ओर पहले से भी अधिक अहमी और आक्रामक हो उठता।
मैं जानता था तुम्हें बाहर खाना, बाहर जाना, संगीत -सिनेमा-कॉनसर्ट, ड्रामा आदि बहुत पसंद थे-कभी तुम जाने की इच्छा जताती तो मैं झटका देता और तुम्हें उन के हानि-लाभ पर भाषण देने लगता और तुम्हारे परोसे हुये खाने पर नुक्ताचीनी कर के तुम्हें रूआँसा कर देता तुम चिल्लाती नहीं थीं। तुम प्रतिकार नहीं करती थी। तुम किसी बात का विरोध नहीं करती थी पर तुम्हारी यह नकार, यह उपेक्षा मुझे और भी भड़का देते और मैं अपना गुस्सा-दरवाजों को झटाक से खोलने-बंद करने, गुसलखाने में जोर से पानी खुला छोड़ने और बच्चों पर झल्लाने में निकालता था।
एक दिन मेरे एक साथी ने सुझाया-यार! तुम्हें अपने भाई को यहाँ बुला लेना चाहिये-भाभी देख लेगी सारा काम और तुम्हें बाहर जाने के लिए साथी मिल जायेगा। वह दोस्त भी मेरे तरह का दम्भी और पुरूष वर्चस्व का हामी भरने वाला था। मैंने न आव देखा न ताव और भाई के कागज पत्र तैयार करने में लग गया। मैंने तुमसे भी इस बारे में कोई बात नहीं की। जब पता चला था तो तुम बहुत तिलमिलाई थी। इस लिए नहीं कि मैं क्यों बुला रहा हूँ बल्कि इसलिए कि मैंने तुम्हें घर का सदस्य तक नहीं समझा। भाई छह आठ महीनें में यहाँ आ गया। उस के पास कोई कामगार डिग्री नहीं थी, इसलिये मैंने उसे मेक्डॉल्ड में लगवा दिया। हर समय खाने को मीट, पहनने को वहाँ की यूनिफॉर्म-साफ-सुथरा वातावरण-आस पास चहकती गोरी बालायें भाई को तो स्वर्ग मिल गया। शाम को घर आकर हम खूब चहकते, हॅसी-मजाक करते। लड़कियों के लिए श्लील-अश्लील जुमले गढ़ते और उन्हें बोल-बोल कर अपनी हवस पूरी करते। क्या मिलता था हमें मालूम नहीं पर एक तरह का तुम्हे जलाने के लिये यह एक विशेष ढब अवश्य बन गया था। यूँ कह सकता हूँ कि हम ने अपने पाँचों इंद्रियों को बेलगाम छोड़ रखा था ओर वह जिस दिशा में दौड़ना चाहती-दौड़तीं-कुदती-फांदती और हमें एक अलग ही तरह का सकून दे जातीं।
तुम्हारे चेहरे पर गुस्से की तरेर देख कर मन कहीं बहुत गहरे आहलाद से भर जाता। यों मैं एक बहुत ही चुप्पा किस्म का आदमी समझा जाता था पर कोई नहीं जानता था कि मेरे अंदर का एक नरकासुर विराजमान है जिस की आसुरी भूख औरत को सता कर मिटती है। मेरा मन न जाने किस मनोविकार से ग्रस्त था कि अपना सुख पाने के लिये-औरत को कीड़े-मकोड़े की तरह मसल सकता था। जब हमारी छोटी बेटी पैदा हुई भी तो तुम्हारा बड़ा आपरेशन हुआ यानि सिजे़रियन। तुम नितांत निष्क्रिय और निहत्थी सी हो गई थी। यह एक तरह का तुम्हारा दूसरा जन्म हुआ था। कुछ देर के लिए-मैं निहायत ही कोमल-हृदय, दयानतदार -सहानभूति पूर्ण डाक्टर बन गया। पर उसी क्षण यह सोच कर कि तुम ने फिर से लड़की पैदा कर दी मेरी सारी सहानभूति जाती रही। और मेरे अंदर का वह पुरूष फुत्कार उठा। यद्यपि साइंस तय कर चुकी है कि लड़का पैदा करने का दायित्व केवल पुरूष के क्रोमोज़ोन तय करते हैं पर सारी दुनिया आजतक इस बात का ठीकरा-औरत के माथे पर फोड़़ती आई है तो अब क्यों नहीं। मैं डॉक्टर होते हुए, सब जानते हुए भी इस ठीकरे को जोर-जोर से तुम्हारे माथे पर फोड़ता रहा और तीसरे ही दिन तुम्हें बच्ची के साथ अकेला छोड़ कर बाहर पांच दिनों के लिए किसी मेडिकल केम्प में चला गया। तब तक तो अभी भाई भी नहीं आया था। वह चोट तुम्हे उम्र भर सालती रही। तुम अब तक मेरी सारी अवज्ञायों, सारी उपेक्षायों को समाज में चले आये रीति-रिवाजों, घर में देखे हुए बुजुर्गों के सर मढ़ती रहीं और तुम ने अपनी इस गुलाम-धारणा से समझौता कर लिया था कि औरत को ऐसे ही जीना पड़ेगा और उसे भी जीना है। कहीं अपने अंदर तुम्हारा डॉक्टर होने का खि़ताब अवश्य तुम्हे जीने के लिए थपथपाता रहा होगा- पर यह चोट और उपेक्षा तुम्हंे असहनीय थी।
आज जब मैं हथेली में तुम्हारे हाथ को लेकर सहला रहा हूँ तो मुझे लगता है- तुम किसी भी क्षण इस हाथ को झटक कर – छुड़ा लोगी। लेकिन नहीं आज भी तुम चुपचाप अपने हाथों को मेरे हाथों में दिये चुपचाप आँखें बंद किये पड़ी हो। कभी कभी देख रहा हूँ – तुम्हारी बंद आँखों में नमी उतर आती है- तो क्षणांश के लिए मैं भी भीग जाता हूँ। याद करता हूँ कितनी शिद्दत से तुम्हे चाहा था और पाने की भी हर युक्ति ढूंढी थी पर आज क्या कर रहा हूँ। फिर एकाएक न जाने क्या हो जाता है कि मैं अपने-आप को कोसने लगता हूँ और कहता हूँ क्यों भीग रहा हूँ। और मुझे क्यों कर भीगना चाहिए तुम्हारे लिए। अब जो मैं तुम्हारी हथेली हाथ में लिए बैठा हूँ तो वह भी कहीं घर, बच्चों और दुनिया के सामने एक दिखावा ही है। इसी लिए शायद तुम्हारे शरीर के विज्ञान से जितना मैं पढ़ सकता हूँ। कोई आभार का चिन्ह दिखाई नहीं देता और इससे मेरी झुंझलाहट और बढ़ जाती है। तब मेरी तुम्हारे प्रति उठी करूणा, अपना उम्र भर का पश्चाताप (जो कभी कभी मैं करना चाहता हूँ) न जाने कहाँ तिरोहित हो जाता है। मैं फिर अपने खोल से निकल आता हूँ – वैसा का वैसा – जानवर-नृशंस-नरकासुर कहते हैं मेरी राक्षस योनि है- बहुत पहले किसी न बताया था। आज लगता है किसी ने सच ही कहा था।
मैंने एक हिकारत सदैव तुम्हारी आँखों में देखी है, बच्चों की आँखों में भी उसकी तरेर है और इसलिए मेरे अंदर के सांप की थूथनी फूल-फूल जाती है और फुत्कारती है। जब से तुम इस तरह निष्क्रिय पड़ी हो- मुझे लगता है यह तुम्हारी सायास योजना है -तुम मुझसे बदला ले रही हो। तुम्हारे अंदर का प्रहरी- मेरी सारी हरकतों, इन क्रियाकलापों और दिनचर्या को स्वयं उठ-उठ कर घटते हुए देख रहा है और अट्टहास कर रहा है। मेरे अंदर के भेड़िये को उकसा रहा है। चलो मैं मान लेता हूँ कि उसी नृशंसता के वशीभूत हो कर मैंने कई बार तुम्हारा गला घोटना चाह है। चाहा ही नहीं एक दो बार प्रयत्न भी किया- पर तुम न जाने कैसे मेरा हाथ रखते ही चीख सी पड़ती। तुम्हारे गले से अजीब – अजीब घर्र-घर्र की ऊँची-ऊँची आवाजें निकलने लगतीं और तभी दूसरे कमरे से दोनों बेटियां भागी-भागी आती है।
क्या हुआ पापा ! क्या हुआ।
कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं।
पर यह तो मम्मी की अजीबो गरीब आवाज़ थी पापा। यह आवाज़ तो तब आती है जब मम्मी को कहीं बहुत दर्द होता है।
मैं हक्का-बक्का हो कर उन्हें देखता- और कहता देखो कुछ भी नहीं है। अब बिल्कुल शांत है। जाओ तुम लोग सो जाओ। कोई बात होगी तो मैं बुला लूँगा।
वे चुपचाप पीछे मुड़ कर देखती हुयी अंदर चली जाती और मैं अपनी हथेलियों में अपनी कुंठा को पीसता रह जाता। अपने पर कभी-कभी बहुत ग्लानि भी होती- कि क्या मैं इंसान हूँ। क्या मैं मानव जाति के अंतर्गत आता भी हूँ कि नहीं और इसी उधेड़बुन में कई बार मुझे रातभर नींद भी नहीं आती और मैं अपनी किसी अव्यक्त पीड़ा में जलता रहता। मुझे विश्वास होता चला गया कि वास्तव में- मैं राक्षस योनि का ही हूँ। क्योंकि कहते हैं राक्षस योनि के व्यक्ति दिखने में शांत-स्वभाव-कुशल-मधुर व्यवहार के धनी होते हैं और राक्षस की तरह अपना वार सोच-समझ कर-पूरी तरह साध कर चलते हैं। मैं वही तो कर रहा हूँ। वरना डाक्टरों ने ब्रेन ट्यूमर के रिपोर्ट और आपरेशन के बाद बतलाया था कि ट्यूमर अपनी चौथी स्टेज में है और इन का समय अधिक से अधिक तीन चार माह का बाकी है। क्या मैं इतनी भी प्रतीक्षा शान्ति से नहीं कर सकता।
मेरा भाई, मेरा भतीजे, मेरा मौसा और उनका बेटा जिन्हे मैंने बाद में बारी-बारी यहाँ बुला लिया था कहीं दबे-घुटे मेरे तुम्हारे प्रति तेवरों की निंदा करते और साथ ही अपनी हिंदुस्तानी ढंग से-अपनी मेहमान-नवाजी की भी अपेक्षा रखते। तब इस सब के बीच तुम टूट रही थी। बिखर रही थी। आये दिन तुम्हारा स्वास्थ्य गिरने लगा था। तुम सहेलियों से ज्यादा घुलने-मिलने लगी थी और तुम्हारे व्यवहार में एक अवज्ञा-पनपने लगी थी और तुम्हारी वही सदियों पुरानी स्वछंद उड़ने वाली तितली उड़ान-कहीं तीव्र होती दिखायी देने लगी थी। मैं और भी सतर्क और भी कठोर होता चला गया।
एक दिन याद है मुझे-बड़ी कड़ाके की सर्दी थी। बाहर माईनस बारह डिग्री तापमान था। तुम्हारी कार स्टार्ट नहीं हुई। सुबह-सुबह तुम्हे जल्दी थी। तुम हड़बड़ाई हुई अंदर आई और तुमने दूसरी कार की चाबी उठाई और मुझे सुना कर बोली-मैं तुम्हारी बी.एम्. डब्ल्यू. ले जा रही हूँ – मेरी कार स्टार्ट नहीं हो रही…….।
तुम जानती थीं – मैं पैसों की चाहे जैसे बरबादी करता-अलग-अलग बै्रंड-नेम की कारंे खरीदना (सेल पर) कपड़े, सूट, स्वेटर इकट्ठे करने की भी मुझे जैसे बीमारी रही है पर मैंने तुम्हे अपने आमदनी में से कभी-कुछ नहीं दिया। जो दिया बेटियों को दिया।
कार गैराज में पड़ी थी। वह कार मैं आफिस नहीं ले जाता था। वह विशिष्ट पार्टियों के लिए रखी थी-मैं झटके से उठा और तुम्हारे हाथों से चाबी छीनने को झपटा – तुम भौचक्क-हतप्रभ और हैरान खड़ी जैसे वहीं पत्थर हो गई थी। चाबी को घुमा कर तुमने मेरी तरफ इतनी जोर से फैंका कि मेरे होठों से खून बहने लगा और तुम उसी झटके से बाहर लौट गई।
तुमने टैक्सी बुलाई और चली गई। आज भी सोचता हूँ तो कहीं अपने पुरूषत्व पर गर्व होता है। पर साथ ही एक ग्लानि कि मैंने अपनी नृशंसता की सीमा इतनी बढ़ा ली थी कि तुम्हे भी इस हिंसा तक उतार लाया। तुम मेरे समक्ष खड़े होने की कोशिश कर रही थी। ईंट का जवाब पत्थर से-वाली मुद्रा में। पर मैं वैसा नहीं चाहता था। मैं चाहता था तुम वैसी ही भीगी बिल्ली बनी रहो और मेरे अत्याचार सहती रहो-पलट के कुछ न कहो-कुछ न बोलो।
कहते हैं परम्परा का पालन करना ही धर्म होता है, तो मैंने तो आज तक केवल परम्परा का पालन ही किया है। इसी फलस्वरूप हमारे बीच बात न कर पाने का कुहाँसा फैलता गया था। एक चुप्पी, एक किनारा सा बना रहता था जैसे पानी के आसपास उसे रोकने के लिए झाड़ियों की फैन्स बन गयी हो और बाकी केवल सन्नाटा पसर गया था। हर हृदय में कोई एक कोना उदास एवं सूना होता रहता है, किसी ने न आने से पर न पहचाने जाने पर। इस होने या न होने के बीच का खलाव ही दिलों को सालता रहता है और हम उस खाली जगह पर हाथ रख कर बिसूरते रहते हैं। जब कभी कोई नया आंधी का झौंका आता है तभी उसी क्षण हमारा हाथ सीधा दिल पर जाता है उस खाली जगह को सहलाने के लिए। कोई माने या न माने-कहीं वह वह खाली कोना मेरे अंदर भी था।
तुम्हे ब्रेन ट्यूमर हुआ है, मेरे लिए एक बड़ा झटका था। शायद मुझे होश में लाने के लिए ऊपर वाले की कोई तीरन्दाजी – मैं एक बारगी जड़ हो गया। पर उस दिन जब तुम अर्द्ध-चेतनावस्था में भी मुझे नकार कर अपने भाई के साथ अस्पताल गई, मैं आहत हुआ। सोचा तुम्हारे सोये हुए मष्तिस्क के स्नायूयों में भी मेरी क्रूरता गहरी पैंठ गई है। जब मैं उस धक्के से संभला तो फिर सम्भल कर अपने चौखटै में वापिस आ गया। तुम मुझे नकार कर भी छिटक नहीं सकोगी। तुम निहत्थी हो कर मेरी हर बात मानोगी।
अंदर से मैं आहत था और चाहता था अपनी अब तक की करनियों का प्रायश्चित करना – पर कितने दिन यह विचार रहा। आखिर कलई तो उतर ही जाती है। मैं अपने खोल में जल्दी ही वापिस आ गया। लोकाचार के गणित से मैं एक अच्छा पति बना रहा। किन्तु अंदर ही अंदर मैं तुम्हारे विरूद्ध षड्यंत्र रचता रहा। जब मैं तुम्हारे पास होता तो डॉक्टर की हिदायतों में मनमाने हेर फेर कर लेता। जैसे थैरेपी महीने में चार बार होनी चाहिए तो वह दो बार ही होती। जो दवाई दिन में तीन बार देने वाली होती-वह एक बार या दो बार ही दी जाती- किसी तरह बेटियों की नजर से बचता-बचाता पार कर जाता रहा सब कुछ। आज तुम्हारा हाथ पकड़ कर अपने गुनाहों की माफ़ी मांग रहा हूँ या सारी पुरूष जाति के अहम पर चोट कर रहा हूँ। पर यह बस मैंने तो नहीं चलाया-सदियों से यही चला आया है और पारम्परिक-पाटी पर चलना बुरा नहीं है। आज समय करवट ले रहा है और तुम ने भी कई बार करवट लेने का उपक्रम किया पर तब मैंने अपनी लोमड़ी चालाकी से-तुम्हे दुलराया, आश्वासन दिया, तुम्हें बाँहों में भरा और तुम्हे भी लगा होगा-जैसे युगों से पागल औरत को लगता रहा है -कि सब ठीक है-पति लौट आया है। गाँवों में आज भी औरत पर हाथ इसी परिपाटी के अंतर्गत उठते हैं, बैठते हैं। मैं जानता हूँ और सारी खुदाई जान गई है कि नारी पुरूष से किसी पैमाने से कमतर नहीं है फिर भी वह उपेक्षित और प्रताड़ित ही रही क्यों कि उसने स्वयं होने दिया और सदैव पुरूष की स्वाधीनता ही स्वीकार की। दैव प्रदत्त नारी और पुरूष की भिन्न शारीरिक सीमाएं इसका कारण रही पर दोनों ने ही इसे नहीं पहचाना और एक दूसरे का गलत उपयोग करते रहे।
तुम्हारी खाली हथेली में नमी उतर आई है और मैं हतप्रभ हूँ कि तुम अभी तक जीवित हो।
डॉ. सुदर्शन प्रियदर्शिनी
ओहयो यूनिवर्सिटी
यू.एस.ए.