काव्य-आनंद तिवारी पौराणिक

बसंत में आस


लौट आई हैं
सगुन-चिरैयां
घर के
कंगूरों पर
गुलमोहर की डालियां
छतरा गई हैं
आंगन-द्वारों पर
सिर उठाये खेत
बतियाते हैं
ढोर-डंगरों से
पंखा कर रही, पुरवाई
मन्द झकोरों से
शुरू हो गई है
रमई काका के
हुक्के की गुड़गुड़ाहट
लखमी चाची की
ऊरवल चक्की खटपट
बापू की आंखों की चमक
अम्मा ने देख ली है
बहुत आश्वस्त है वह
इसलिए शायद
बसंत, इस बरस
इस चौखट तक आयेगा
और बिटिया के हाथ
पीले कर जायेगा।

बबूल वाले गांव


सकून को तलाशते बबूल बने गांव
बीहड़ों के रास्ते, बिवाई भरे पांव।
उदास मन हो गये, पलास के थे मन
कैक्टस से चुभ रहे, नीम वाले छांव।
मंजीरे, मृदंग ने खो दिये स्वर
मटमैली गंध पर, मौसम के दांव।
अमराई ढूंढ रही, पपीहे का गीत
कौओं का बसेरा है, बस कांव-कांव।
हादसों के रूदन-गान, चौपाल गा रहे
कतरा भर आंसू, बचा न कोई ठांव।
दुखों से भर गये, खलिहान, खेत
क्षत-विक्षत है झोपड़ी, बुझे हुए अलाव।
गंध थी अमोल, कभी मेरे गांव की
सरे-राह बिक गई, कौड़ियों के भाव।
होरी और धनिया, यह पूछते सवाल
हर निगाह कर रही, अपना बचाव।
कौन कहे ये भला, कब हुआ, क्यों हुआ
अपनों से अपनों का, इतना दुराव।
ईद और दीवाली, जहां मिलती थीं गले
कौन फिर दे रहा नफरत के घाव।

आनंद तिवारी पौराणिक
श्री राम टाकीज मार्ग
महासमुंद, छ.ग.
मो.-9753757489