शराफत
‘‘भैया मैं तीन लोगों को भेज रहा हूं इनको किस काम में लगाना है आप जानों, शादी का काम है, मुझे तो लगन मंडप में ही रहना होगा। मुझे तो फुर्सत नहीं होगी इसलिए इनको आप अपनी सुविधा के अनुसार काम से लगा लेना।’’ संजय इतना कहा और चला गया मेरे उत्तर की प्रतिक्षा नहीं की, क्योंकि अपनेपन अधिकार भाव पैदा करता है। मेरी मौसी का लडका संजय, शहर से 60 मील दूर छोटा कस्बा जहां मौसी की लड़की की शादी है यानी कि संजय की बहन की शादी।
विचारों की तंद्रा टूटी तीन देवियां आ खड़ी हुई, उनकी ओर नजर पड़ते ही नजर वहीं रूक गई। कारण भी तो था, सुनीता नाम था उसका। सुन्दर मासूम सी नाटी सी गोल चेहरा पलकें झपकाती। हमारी भूगर्भा रत्नों की खान है एक रत्न सामने खड़ा है साक्षात। कुछ पलों के बाद नींद टूट गई उसकी कोकिल वाणी से। ईश्वर भी जिसे देता है तो छप्पर का पता ठिकाना ही नहीं होता है।
‘‘तुम तीनों में से एक लोगों के खाने के बाद जूठे बर्तनों को इस बडी बाल्टी में रखकर यहां उठाकर लाना है और बाकी दो को उन बर्तनों को मांज कर इस प्लेटफार्म में रखना है।’’ आदेश सुनकर यंत्रचालित सी चल पडीं वे देवियां।
फंक्शन शुरू होने में चार घण्टे थे और मन में एक सूरत घूम रही हो तो समय का कांटा चुभने लगता है। क्या करें दुनिया की रचना प्रभु ने ऐसी की है कि धीर गंभीर मन भी चंचल हो जाता है। वैसे मैं धीर गंभीर न होते हुए भी हूं शराफत का चोला ओढे़। पढाई लिखाई ऊंची थी इसलिए शुरू से मुझे कईयों ने दिल देना चाहा और मैं भी लगा रहा इस धंधे में। पर हिम्मत भी तो कोई चीज होती है दब्बू स्वभाव, लोगों की नजरों का भय, बड़े बुजुर्गो की दोस्ती ने मुझे समय से पहले ही कुछ ज्यादा समझदार बना दिया था। कभी भी बात आगे बढ़ाने की कोशिश सिर्फ कोशिश ही बन जाती थी या यूं माने कि सपनों की दुनिया ही मुझे अच्छी लगती थी और वास्तविकता हमेशा डराती थी।
आज वो मासूम सुन्दर चेहरा मुझे बेशरम बनने को मजबूर कर रहा था। उसके चेहरे में ही वो आवाज थी, जो मुझे लगातार बुला रही थी और मैं बगैर कारण उसके आगे पीछे घूम रहा था।
‘‘सुनीता! इस हाल को थोडा साफ करना तो।’’ सुनीता भी मानों इंतजार में लगी थी तुरंत ही आदेश का पालन हुआ। मेरी नजरें लगातार उस पर थी आंखों के लाल डोरे मानों आंखे चीर कर सुनीता को आगोश में लेने को उछले जा रहे थे।
‘‘सारा जमाना हसीनों का दीवाना!’’ की रिंगटोन ने उस शादी वाले भीड़ भाड़ से भरे घर के एकांत को तोड़ दिया। मोबाइल में ‘‘स्वीट होम’’ लिखा था। घर से मेरी प्राणप्रिया लाजवंती का फोन था। मानों मैं धरातल में आ गिरा। उस वक्त याद आया मुझे कि मैं शादी शुदा हूं। एक पत्नी और एक प्यारी सी मासूम बच्ची है जिन्हें मैं जी जान से बढ़कर चाहता हूं, जो मेरा जीवन है।
‘‘हां हां लाजो!’’ मैं घबराते हुए बोला।
‘‘क्या बात है ? कोई मिल तो नहीं गई है जो बड़ा मन लग रहा है आपका ? फोन बज बजकर बंद होने को था और तब उठाया।’’
लाजो की मजाक में कही बात भी मन को थरथरा गई मानो चोरी पकड़ी गई हो। मुझसे कुछ बोला न गया चुप ही रहा।
‘‘सच में ढूंढ लिया है क्या ?’’ अबका स्वर जरा सा गंभीर था। पत्नी अपना प्यार किसी को भी थोड़ा सा भी नहीं देना चाहती है। जरा जरा में षक की सुई थर थराने लगती है और षंकाओं में बदल उमड़ पड़ते हैं, इस बात की जानकारी मुझे अच्छी तरह थी।
‘‘नहीं रे, एक को तो अच्छे से संभाल लूं तब तो दूसरे की सोचूं। यहां काम करने आया हूं न कि किसी को ढूंढने।’’ संयत स्वर में मैंने झूठ बोला, तभी सुनीता मुझे देख मुस्काई, मैं झट अपना साइड बदल दूसरी ओर मुंह कर बात खत्म की।
मन बड़ी ही विचित्र स्थिति में आ गया है एक ओर समर्पित लाजो और दूसरी ओर समर्पण को तैयार सुनीता है। भगवान मैं बेईमान हूं, धोखा दे रहा हूं, सात फेरों की कसमें भूल रहा हूं, अब तक मैंने मजाक मस्ती में समय पास किया है कोई गलती नहीं की। आपने अब तक बचा लिया है यूं ही बचा कर रखना। आपका बहुत – बहुत धन्यवाद। ऐसा सोचकर लगन मंडप की ओर चल पड़ा।
‘‘अरे भैया! आप यहां! वहां की व्यवस्था कौन देखेगा ? चलो आप वहां जाओ!’’
उसकी आदेशात्मक मनुहार और सुनीता की कसक ने मुझे फिर वहीं पंहुचा दिया। मन फिर उसकी अदाओं में खोने लगा। और अबकी बार बातों की छेड़छाड़ खत्म हो गई क्योंकि अब हाथों की छेड़छाड़ शुरू हो गई थी। आते जाते उसके घुंघराले बालों को छू लेता वह शरमा कर मुस्करा देती या उसे चिकोटी काट लेता तो मुस्करा देती।
सच मानव की उत्सुकता ही उसे बड़ा से बड़ा असंभव कार्य करने को प्रेरित करती है। छोटी – छोटी सी सफलता हिम्मत बढ़ाती जाती है।
‘‘सुनीता जरा इस बोरी को उठवाना तो।’’ जरा सी भारी थी बोरी। साथ उठाने पर नजदीकी का आनंद महसूस हो रहा था। चूंकि बोरी छोटी थी इसलिए मजबूरी में सटकर चलना, सारी दुनिया की आवाजों को निशब्द कर वातावरण शान्त कर दिया था, भीड़ के बीच हम अकेले हो गये।
‘‘कहां रखना है बाबू ?’’ सुनीता हंसते हुए पूछ पड़ी। उस छोटे कमरे में दोनों ओर अर्थपूर्ण मुस्कान ने डेरा डाल रखा था।
कोमल अंगों की छुअन मदमस्त हाथी की तरह बना रही थी। जानवरों का स्वछंद जीवन आदर्श की तरह प्रस्तुत हो रहा था।
‘‘क्या बात है भैया, दिल आ गया क्या सुनीता पर ?’’ संजय ने मानों धमाका सा कर दिया। ‘‘अच्छी है भाभी को भी बारात में बुला लूं क्या ?’’ बोरी खुद के पैरों पर ही गिर पड़ी। सुनीता भाग खड़ी हुई।
‘‘तेरा काम करने के लिए हमाल बना हुआ हूं और तू मुझसे दूसरी भाभी की फरमाइश कर रहा है। जीना है भाई मुझे अभी। तेरी भाभी कान पकड़कर सड़क पर मारेगी समझा।’’
‘‘कुछ नहीं होता भैया। मजा लो जरा, कुछ नहीं होगा।’’ आंख मारते हुए संजय भाग गया।
शर्म तो जा चुकी थी। कभी उसे मीठा खिलाया तो कभी खाना और फिर मीठा पान जो कि अंतिम मुहर था।
शादी और विदा अपने नियत समय में सम्पन्न हो गई। दस बज चुके थे रात के। सारे मेहमान रात को अपने – अपने गंतव्य चल पड़े। मैं एक बेशरम के पौधे की तरह बगैर किसी के बोले जिम्मेदारियां लेकर शादी के बाद के काम करवाता रहा। टेन्ट निकलवाया, बर्तन धुलवाये, साफ-सफाई करवाई और गहरी नींद ने जब सबको आगोश में ले लिया तो मेरा असली चेहरा अंधेरे में चमचमाने लगा। आधी रात को सुनीता के कमरे में जा पंहुचा। ठीक उसी वक्त अचानक किसी के चलने की आवाज आई तुरंत भागकर बिस्तर मे सो गया। हिम्मत तिलतिलकर बढ़ती और फिर बड़ा ढेर बनते ही बिखर जाती। तिल के लड्डू की तरह नहीं बन पा रही थी। शराफत का चोला खिंच खिंचाकर शरीर को ढंक देता तो वासना का ज्वार उसे फिर उघाड़ देता।
हे ईश्वर! तूने मुझे इस होने वाले पापकर्म से बचा लिया। कोई देख लेता तो क्या इज्जत रहती और फिर लाजो के साथ धोखा भी तो होता। अच्छा किया आपने कि कोई आ गया, वरना पाप हो जाता। कह कर सर ढंक कर सोने की कोशिश की।
तब अचानक मन दौड़ा। इतनी मेहनत की, दिनभर जिस काम के लिए रूका वो तो पूरा होना चाहिए। फिर घूमघाम कर सुनीता दिखने लगी। लाजो तो अंधेरे में गुम हो गई।
फिर नई ताकत के साथ पल भर में ही सुनीता के कमरे में था। दिल धाड़-धाड़ कर रहा था। गरम सांसें भांय-भांय कर रही थी। मन में डर भी था कि कहीं सुनीता मना न कर दे। पर क्यों मना करेगी ? पंद्रह घण्टों की पहचान, मौन स्वीकृति सब तो धनात्मक था, तो ऋणात्मक क्यों सोंचू ?
हिम्मत कई गुना बढ़ गई। उसके बालों को छुआ वह न उठी; कुछ पल रूककर फिर उसके गालों को सहलाया। तुरंत ही हरकत हुई। वह जाग गई। मुझे देखते ही शरमाकर अपने को कंबल में छुपा लिया। फिर उसे उठाया। प्रश्नवाचक नजरों से देख, उठने की कोशिश की। पर उसी वक्त उसकी दो सहेलियां भी जाग उठी। सुनीता के चेहरे की मुस्कराहट गायब हो गई। सभी के चेहरे में प्रश्नवाचक चिन्ह तैर उठा।
‘‘क्या बात है बाबू ?’’ सुनीता ने अनजान बनते हुए पूछा। उसके ऐसा पूछते ही हलक सूख गया मेरा और जबान तालू से चिपक गई। हिम्मत के बारह बज गये, टांगे कांपने लगीं। शराफत का चोला अचानक उन पर आ गिरा। मैंने अंतिम बार हिम्मत कर सुनीता की ओर देखा। पर वहां तो प्रश्न ही प्रश्न नजर आ रहा था। मरे हुए कदम बिस्तर में पड़े और विचारों की उथल पुथल नींद के आगोश में दब गई।
सुबह जल्दी उठ बस में बैठ सोचने लगा। क्या था ये सब ? निचोड़ बता रहा था शराफत बच गई। मौका नहीं मिला इसलिए हम शरीफ हो गये। हाथ जोड़ कर ईश्वर को धन्यवाद दिया। पर वो चेहरा न जाने क्यों, पीछा ही नहीं छोड़ रहा है। कही भी उसके होने का भ्रम हो जाता है।
कम से कम हमारी शराफत को याद कर वो जरूर आयेगी। मन गवाही दे रहा है। वासना से प्यार की ओर कदम बढ़ गये हैं। कई दिनों की बैचैनी जब तब सुनीता की याद दिला देती है। मन का अपराधबोध लाजो से नजरे मिलाने नहीं देता है। सब कुछ जानते समझते भी सुनीता की यादें ताजी होती रहती हैं।
‘‘मेरा परिवार उजड़ जायेगा।’’ की सोच भी सुनीता को याद करने से नहीं रोक पा रही है।
शराफत की अजीब उलझन है। पर ईश्वर का धन्यवाद है कि उसने मुझे खटकर्म से बचा लिया, और शराफत भी बचा दी।
सनत सागर