श्रीमती किरणलता वैद्य की कहानी-खिड़की से झाँकता चेहरा

खिड़की से झाँकता चेहरा

सूर्यास्त के पूर्व की चिरपरिचित सुनहरी बेला संध्या के चेहरे पर किसी नई नवेली वधु के चेहरे की सी लजीली आभा, विभिन्न मोहक स्वरों में कलरव करते अपने-अपने नीड़ों को लौटते खगवृन्द, अक़्सर ही देखा करती हूँ मैं ये सब दृश्य। प्रकृति की इस सुन्दरता से मन भरता ही नहीं। हमेशा की ही तरह इस सांध्य श्री का अवलोकन करती हुई मैं अपने घर के बगीचे में टहल रही थी। घर के अहाते से लगे मैदान में लड़कियों का एक समूह खेल में व्यस्त था। गेंद से एक दूसरे को मारने का मोहक खेल। उनकी चहकती आवाजें़ और खिलखिलाती हँसी मिलकर वातावरण को और भी मनोरम बना रहे थे। उसी समय सामने वाले मकान की एक खिड़की से परदा धीरे धीरे हटा और सामने आया हाथ भर लम्बे घूंँघट में छिपा एक मासूम प्यारा सा चेहरा। हालाँंकि घूंँघट की वजह से चेहरा दिखाई नहीं पड़ रहा था, पर मैं इस चेहरे को कई दिनों से जानती हूँ। घंँघट छोटा हो गया और सिर तक ही रह गया और उसकी मासूम, स्वप्निल आँखें देखने लगी सामने खेल रही हम उम्र लड़कियों को, उनके आधुनिकतम परिधानों को, उनके खेल को।
यह मासूम चेहरा है कंचन का, जो अक़्सर ही अवसर पाकर देखा करती है उधर से गुजरने वालों को, नन्हें-मुन्ने बच्चों को, खेलती या आपस में ठिठोली करती इन सखियों को। मैंने महसूस किया कि वह इन सबको बड़ी लालायित नज़रों से देखा करती थी। कभी-कभी उनकी ठिठोली देख खुश होती और मुस्कुरा पड़ती थी। एक वेदना-सी झलकती उनकी इस मुस्कुराहट में। वह फिर हट जाती खिड़की से परे, उदास मन बोझिल कदमों से।
लगभग पाँच वर्ष हुए, जब कुंदन उसे ब्याह कर लाया था। जब वह नई-नई थी, तब ही मैं उससे तीन-चार बार मिली थी। उसके बाद तो वर्ष में एक ही बार मिलती हूँ- दशहरा के पर्व पर। इन सीमित मुलाकातों में हम एकदम घुलमिल तो नहीं पाए, पर अपने अब तक के संचित ज्ञान और अनुभव के आधार पर मैंने उसके अंतस को काफी गहराई तक पढ़ लिया। मैं उसे भाभी कहती हूँ और वह मुझे दीदी। हमारा यह रिश्ता कोई ननंद-भाभियों की तरह छेड़छाड़, हँसी मजाक का नहीं, वरन् एक भावनात्मक रिश्ता है, मौन अनुभूतियों का। उसे अपने पति की तरफ से किसी से मिलने-जुलने की, कहीं आने जाने की या किसी से कुछ बोलने-बताने की मनाही थी, इसलिये उसकी व्यथित नजरें जाने क्या-क्या कहती रहतीं, और मैं हमेशा एक कोशिश करती रहती उसकी आँखों की भाषा समझने की। अब तो बहुत कुछ समझने भी लगी हूँ। कुंदन का व्यक्तित्व, उसका व्यवहार, उनका भूत और वर्तमान मैं भलीभाँति जानती हूँ जो काफी है कंचन की स्थिति समझने में।
कुंदन मेरे मुहल्ले में घर के सामने ही रहने वाला एक युवक है। हम सभी उसे भैया कहते हैं। जब हम इस शहर में आये, तब वह हायर सेकेण्डरी पढ़ रहा था। तीन-चार बार परीक्षा देने पर भी वह उत्तीर्ण न हो सका। घर में हर तरह के साधन सुलभ थे। पहिनने को एक से एक आधुनिक परिधान, अच्छा खान-पान। पढ़ाई में किसी भी तरह का व्यवधान न था, फिर भी वह पढ़ न सका और अय्याश प्रकृति का हो गया। घर में किसी की परवाह न करता, माता-पिता का अनादर करना, मनमानी करना और रात देर से लौटना उसकी आदत में शुमार हो गये थे। माता-पिता परेशान थे। घर का बड़ा बेटा है कैसे संभाला जाए इसे ? कैसे लाया जाए सही राह पर उसे ? बचपना तो था नहीं। आयु बढ़ चली थी। पिता ने सोचा कि किसी काम में लग जायेगा तो कुछ नियमितता आयेगी। पिता की आय इतनी थी कि सुखपूर्वक गृहस्थी चल रही थी। इतनी हैसियत तो नहीं थी कि लाखों रूपये खर्च कर अच्छा सा धंँधा करवाता। फिर भी अच्छी-खासी लागत से एक छोटा-सा होटल खुलवा दिया, परंतु वह छः माह भी ठीक से न चल सका। उस पर मद्यपान, धूम्रपान, होटलबाजी जैसी बुरी लतें और पड़ गईं। कुंदन पिता से कहता वह होटल जैसा छोटा धंँधा नहीं कर सकता। इससे मित्रों के बीच उसका अपमान होता है। फिर वह कुछ दिनों यों ही घूमता रहा। पिता ने समझाया कि कोई धंँधा छोटा नहीं होता, यदि आदमीं में लगन हैं और वह मेहनती है तो छोटे से शुरू कर वह उसे बढ़ा सकता है, लेकिन कुंदन को तो जैसे बड़े धंँधे का ही फितूर था। पिता ने सोचा पूत कपूत तो क्या धन संचय। अतः कुछ संचित राशि लगाकर और कुछ बैंक से ऋण लेकर एक प्रिंटिंग प्रेस और स्टेशनरी की दुकान खुलवा दी, उनके ही प्रयास से सरकारी कार्यालय में सप्लाई आर्डर मिलने लगे। मेहनत और प्रयास से अच्छी आय होने लगी। नियत समय में ऋण की राशि लौटा दी। अब कुंदन आत्मनिर्भर है पर उसकी आदतों में कोई अंतर नहीं आया। फ़िजूल खर्ची और रात-रात घूमने की आदतें बनी ही रही। माता-पिता ने सोचा जब और जिम्मेदारियाँ बढ़ेंगी तो उसके स्वभाव में जरूर परिवर्तन आयेगा। अतः कुंदन की स्वेच्छाचारिता एवं उच्छृंखल व्यवहार के चलते उसे वैवाहिक बंधन में बांँध दिया और घर आई अपने स्वप्निल आँखों में सुखद भविष्य के सतरंगी स्वप्न संजोए हुए कंचन। उसे क्या पता था कि उसके सपनों का महल रेत की नींव पर खड़ा है।
मैंने कई बार उसकी जगह ख़ुद को रखकर उसके दर्द को महसूस किया है, उसे क्या मिला इस घर में आकर ? न पति का प्यार न देवर-ननंदों का अपनत्व और न ही मातृत्व का सुख। कंचन और कुंदन एक होकर भी एक न हो सके थे अब तक। इसीलिये तो वह एकदम अकेली है। अकेली ही नहीं, अधूरी भी। वह अक़्सर छोटे -छोटे बच्चों को स्नेहभरी दृष्टि से देखती, अवसर पाकर उन्हें गोद में उठाकर दुलारती भी थी, लेकिन केवल कुंदन की अनुपस्थिति में। सास-ससुर बहुत स्नेह करते। हर सुख-सुविधा का ध्यान रखते, लेकिन उसे जिस प्यार की चाहत थी, वह कभी न मिला। जिसका दोषी कुंदन सिर्फ कुंदन। जिसने उसकी भावनाओं को कभी नहीं समझा। उसे अपने कर्तव्यों का भान तक न हुआ। कंचन कभी उसके विरूद्ध कुछ नहीं कहती। सब अपने भाग्य का दोष मान, भजन पूजन में अधिक से अधिक समय व्यतीत करती, सहनशीलता की एक मूर्ति की तरह। मैंने इस मूर्ति को पिघलते देखा है और द्रवित कणों को आँखों की कोरों से बहते हुए भी।
आज बहुत समय बीत गया। बाग में टहलते-टहलते। बाग में क्या, मैं तो विचारों की दुनिया में विचर रही थी। सोचते-सोचते दिमाग में भारीपन आ गया। सोचा चल सखियों के बीच हो आऊँ। मन कुछ हल्का हो जायेगा। अतः टहलते हुए मैदान पर आ गई और किनारे की एक बैंच पर बैठकर मन बहलाने की चेष्टा करने लगी। संध्या की लालिमा कालिमा में बदलने लगी थी। गहराते घुँंघलके में गेंद दिखाई नहीं दे रही थी। लड़कियों ने अपना खेल बंद किया और अगल-बगल की बैंचों पर बैठ बतियाने लगी। उनकी रसभरी बातें, हंँसी मजाक आदि से भी मेरा मन हल्का न हुआ। मुझे अभी भी दिखाई पड़ रहा था, खिड़की से झाँकता हुआ कंचन भाभी का मासूम व्यथित चेहरा।
अब तो संध्या ने अपना लज्जाभ मुख छिपाने के लिए निशा का काला आँचल ओढ़ लिया था। सखियाँ अपने-अपने घरों को चली गई थी और मैं आसमान पर बिखरे तारों को निहारने लगी। आज तारे भी मुझे अच्छे नहीं लगे। घूम फिरकर नज़रें आ टिकी उसकी खिड़की पर जिस पर कंचन अब भी खड़ी थी। खेल तो कब का खत्म हो गया था। सब चले गये थे पर…….., वह अब क्या देख रही है ? फिर उलझ गई उन्हीं विचारों में। कैसी विडम्बना है यह, जब माता-पिता अपने बच्चों या बेटों की सही परवरिश कर उन्हें अच्छे संस्कार नहीं दे पाते अपने व्यवहार के अनुकूल नहीं बना पाते तो एक नयी नवेली दुल्हन से, जो परिवार के वातावरण आचार-विचार तक से अनभिज्ञ होती हैं, कैसे आशा कर लेते अपने बिगड़े बेटे के सुधार की।
अधिकांश बडे़ बुजुर्गों के मन में बस यही बात रहती है लड़का बिगड़ रहा है तो बस डाल दो ब्याह का बंधन। जिम्मेदारियाँ आएंगी, तो सुधर जायेगा। वे यह नहीं सोचते आने वाली लड़की में कोई दैवी शक्ति तो नहीं होती, जो वो सब काम कर सकेगी, जिसे वे वर्षों में नही कर पाये। जब गीली मिट्टी को वांछित साँचे में नहीं ढाल पाये तब भला अब यह कैसे संभव होगा ? अपने बेटे को सुधारने के इस प्रयास में वे तबाह कर देते हैं एक भोली-भाली लड़की का भविष्य। आग लगा देते हैं उसके सपनों के संसार में। घुटन भर देते हैं उसकी जिंदगी में। यदि वह चुपचाप सह लेती है तो ठीक, नहीं तो मचती है गृहकलह। इसका शिकार होती हैं अक़्सर गरीब और मजबूर पिता की आभागी बेटियाँ। जिसके पास पैसा नहीं होता अपने बेटी के लिये योग्य वर खरीदने के लिये। उसके जीवन की खुशियाँ खरीदने के लिये। उसके झुकते हुए कँंधे मजबूर होते हैं किसी भी तरह बेटी का ब्याह रचाने के लिये।
प्रगति के इन चरणों में जहाँ स्त्रियों की दशा में उत्तरोत्तर सुधार हो रहा है, वे पुरूषों के बराबर हक माँग रही हैं। घर की चहार दीवारी तोड़ सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्रों में सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं। वहीं इस स्वतंत्र देश में कंचन जैसी अनेक स्त्रियाँ हैं, जिन्हें खुले आसमान के नीचे सांँस लेने तक की स्वतंत्रता नहीं। उसके लिए तो जैसे आसमान भी सिमट गया है। खिड़की से दिखाई पड़ने वाला एक निश्चित दायरे का आसमान।
मैं हलके पाँव चलते हुए उसकी खिड़की तक पहुँची। उसे आभास भी न हुआ। वह न जाने किन विचारों में गुम अपलक देख रही थी आकाश की ओर। मैंने अंदर झाँका, कोई नहीं था घर पर, फिर हौले से आवाज दी, कंचन भाभी। चौंक गई थी वह। क्षण भर को नजरें मिली और न जाने क्या-क्या कह गई। मैंने कुछ कहना चाहा पर उसकी आँखें डबडबा आई और उसने अपनी रूलाई छिपाने के लिये मुँह फेरना चाहा लेकिन मैंने खिड़की के सीखचों पर रखे, उसके हाथ थाम लिये वह फफक-फफक कर रो पड़ी और रोती रही काफी देर तक। मैं सहलाती रही उसके हाथ। कितनी वेदना है वह भी खुले आसमान में। इंतज़ार है, उसे उस नई सुबह का जब उसके हिस्से का आसमान विस्तृत हो जाये-दूर क्षितिज तक।

किरणलता वैद्य

जन्मतिथि-11 अगस्त /जबलपुर
सम्प्रति-छ.ग.रा.वि.वि.कं.मर्या. रायपुर
शिक्षा-बी.एस.सी, गीतांजली सीनियर डिप्लोमा सुगम गायन
साहित्य की वह विधा जिस पर काम किया है-
कविता, गीत, एवं कहानी लेखन आदि। गायन।
साहित्यिक उपलब्धि-
सांस्कृतिक संस्था यात्रा जगदलपुर द्वारा आयोजित अखिल भारतीय बहुभाषीय, त्रिदिवसीय नाट्य स्पर्धा में मंच संचालन। अखिल भारतीय कवयित्री षष्टम अधिवेशन 2005 रायपुर में प्रतियोगिता एवं ’’कविता-2005’’ का सह सम्पादन। अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन 2011 बड़ोदरा गुजरात में प्रतिभागिता। अखिल भारतीय एवं स्थानीय मंचों में काव्य पाठ। आकाशवाणी जगदलपुर एवं रायपुर से पिछले 25 वर्षों से कहानी, कविताएं, वार्ताएं, परिचर्चाएं, रूपक प्रसारित। दूरदर्शन भोपाल, रायपुर, जगदलपुर से काव्य पाठ प्रसारित। देश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, स्थानीय काव्य-गोष्ठियों में सक्रिय भागीदारी।
सम्मान-
छ.ग.शासन द्वारा प्रदत्त-श्रम साहित्य विशारद सम्मान 2003, हिन्दी कविता के लिए स्व. खूबचंद बघेल सम्मान 2005, छ.ग. अल्पसंख्यक आयोग द्वारा साहित्य सृजन हेतु प्रशस्ति पत्र 2005, जे.एम.डी. प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा हिन्दी सेवी सम्मान 2012, राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार प्र्रसार सहयोग हेतु विशिष्ट हिन्दी सेवी सम्मान 2013, मानव साहित्य भूषण सम्मानोपाधि, दैनिक भास्कर कविता प्रतियोगिता 2012 में प्रथम पुरस्कार एवं सम्मान, स्थानीय एवं राज्य स्तरीय विभागीय प्रतियोगिताओं में सम्मान
संपर्क-
’गुरूकृपा’ सी-50, हर्ष टावर के पास देवपुरी रायपुर, छ.ग. मो.-9826516430