लेखन का नया चलन
क:”आजकल खूब छप रहे हो आज भी भारत न्यूज़ के साहित्यिक बनने पर आप की दो रचनाएं देखी है मैंने। ”
ख: “कहां अब तो बस कभी कभार ही जगह मिल पाती है।”
क: ” अच्छा लिखते हैं आप । काफी समय से पढ़ता आ रहा हूं आपको ,आपका अध्ययन भी विस्तृत है लगता है खूब पढ़ते भी हैं।”
ख: ” बिना पढ़े तो होता नहीं ना सहीलेखन पता ही है आपको। पत्रकारिता के समय न्यूज़ के लिए ग्राउंड लेवल पर जाकर रिपोर्टिंग करना पड़ती थी वही आदत आज भी है ।”
क: “आजकल कहां करता है कोई इतनी मेहनत? एक तो फील्ड में जाते ही नहीं ,गए भी तो प्रायोजित टूर होता है ।स्पॉन्सर जो दिखा दे उसी पर लिख दिया जाता है। वे भी वही लिखवा लेते हैं जो कहना चाहते हैं पर खुद लिख नहीं पाते।”
ख: ” नहीं मैं तो नहीं आता ऐसों के चकमे में ।”
क : “नहीं सर जी ऐसा नहीं है उनके पास प्रलोभनाें का ढेर है आप नहीं तो किसी और से लिखवा लेंगे सभी तो तैयार ही बैठे हैं।”
ख:” शायद आपने फिर मुझे ठीक से जाना नहीं है, मैं तो 30 साल से लिख रहा हूं पर मैंने कभी अपना लेखकीय धर्म दूषित नहीं किया है।”
क :” अच्छी बात है यह बताएं कि जो यह पॉश कॉलोनी से लगकर पत्रकार कॉलोनी बसाई गई है इसी में रहते हैं ना आप ?”
ख: “बिल्कुल 25 साल से ज्यादा हो गए ।
क: “क्या भाव पड़े थे ये मकान ?
ख : “कुछ खास नहीं। एक रुपए वर्ग फुट का टोकन अमाउंट लिया था , बस फिर शासकीय फाइनेंस स्कीम में उन्हीं ने बनवाए थे यह मकान हमसे तो कुछ लिया नहीं ।”
क : “तब आपको क्यों मिल गया यह मकान ? तब तो आप इतनी बढ़िया लेखक भी ना थे स्थानीय जन दूत में पत्रकार ही तो थे ?
ख : “अरे उस समय की सरकार ने सब को दिए थे भाई हमें भी मिला तो क्या गुनाह किया?
क : ” वह नहीं कह रहा ,इमरजेंसी के बाद की स्कीम थी यह ,शासकीय निर्णय के पक्ष में लिखने की बात थी तब स्थापित लेखकों ने आनाकानी की तो दूसरे दर्जे के पत्रकारों को इस लालच में लेकर उनसे लिखवाया गया । नाम नामा और प्रसिद्धि सभी मिली ।”
ख : “आप हमें एक तरह से लोभी और लंपट बता रहे हैं ।”
क : “आप नाराज ना हो ,यह बताएं कि तब लेखक के नाते आपको किस पर लिखना था इमरजेंसी के शिकार हुए नेता ,व्यापारी ,उद्योगपतियों, बंद हुए अखबारों ,व जेल गए संपादकों पर ही तो लिखना बनता था ना?
ख : ” बिल्कुल।”
क : ” पर मैंने उन दिनों आपका एक भी लेख इन विषयों पर नहीं देखा वरन आपने शासन का स्तुति गान ही किया था ।कथित अराजकतावादी लोगों को वश में करने का एक मात्र यही विकल्प होना भी आपने निरूपित किया और इसके दूरगामी लाभों की भी निरंतर संस्तुति ही की ।
ख : “हां वह मेरे अपने विचार थे। हर एक अपने विचार रखता है और उसी के अनुरूप लिख सकता है ।”
क : “सही कहा आपने ।पर आपको तब और क्या मिला था ? सात साल पूर्व छपे आपके एक गुमनाम से उपन्यास पर अकादमी पुरस्कार दिया गया ।”
ख : “कई लेखकों की कृतियों पर बहुत समय बाद पुरस्कार मिले हैं ।आखिर आप कहना क्या चाहते हैं? हमारी उपलब्धियों से परेशानी है क्या आपको?”
क : “परेशानी कुछ नहीं आपने निष्पक्ष कथन की जो बात की उस पर यह बातें रखी मैंने । अब आप सोचिए कि इस तरह उपकृत व्यक्ति कितना निष्पक्ष हो सकता है क्या आप निष्पक्ष रह पाए?
ख : ( गहरी सांस लेते हुए)” कहते तो आप ठीक ही हो ।कुछ लेखकों की आर्थिक मजबूरियां भी होती हैं वर्षों के संघर्ष के बाद नाम तो मिलने लगता है पर आर्थिक स्थिरता नहीं आती। ऐसे में थोड़ा भटक जाना बहुत स्वाभाविक है ।हो सकता है मेरी गिनती उनमें हो।”
क : ” पर इस तरह स्वीकारोक्ति से यह कृत्य क्षम्य नहीं हो जाता ।”
ख : ” तब क्या हो फिर आप ही बताएं?
क : ” यह अभिनंदन पुरस्कार तरह-तरह के नामांकन आपकी नजर में कितने जरूरी है ?क्या विषय पर सिर्फ सही सही लिखने से कोई संतोष लेखक को नहीं होता क्या ? क्या ऐसे नामवर और स्थापित लोगों ने सचमुच ही हर बार सही लिखा है, खासकर तब जब उन्हें मान्यता व प्रसिद्धि मिलने लगी हो ?
ख : “लिखते ही होंगे ,बड़े लोग जो ठहरे।”
क : ” आप तो खूब पढ़ते लिखते हैं ,बताइए ना, क्या हर बार इनका लेखन सरोकार पूर्वक होता है या अहम से भरा हुआ ?
ख : “प्रायः तो यह अथॉरिटी की तरह ही लिखते हैं कि इन्होंने जो लिखा है वही जन स्वीकृति का लेखन है उसके अलावा कुछ नहीं।”
क : “और यह लोग समय-समय पर संदर्भित भी तो भी किए जाते हैं?
ख : ” हां । ”
क : “आप ही बताओ तब ऐसा लेखन क्या लोक चेतना का लेखन हो सकता है? विभिन्न गुटों में बैठकर अपने ही गुटों को बार-बार सराहते हुए लोग क्या सही मायने में सरस्वती सेवा कर पा रहे हैं?”
ख : ” गुटबंदी कहां नहीं होती ?यह एकता को बढ़ावा देती है । एक सी विचारधारा, मत ,अभिरुचि के लोग एक जगह हों तो इसमें बुरा क्या है?”
क : ” बुरा तो नहीं पर जब सब कुछ ऐसों के कब्जे में हो जाता है तो यह दूसरों को पनपने ही नहीं देते, पनपने तो क्या उगने भी नहीं देते ।”
ख : “अपनी जगह बनानी पड़ती है जो धीरे-धीरे बनती है।”
क : ” एक बात बताएं ,इंटरव्यू में निष्पक्षता व जन सरोकारों से आबद्ध होने का दंभ भरने वाले कथित महानुभावों ने क्या सचमुच जन सरोकारों पर रचनाएं की है ?
ख : “हां क्यों नहीं ? उन्हें कितने सम्मान भी तो देश की प्रतिष्ठित संस्थाओं में दिए हैं ।”
क : “फिर भ्रांतियां क्यों हैं ?घटना व तथ्यों की स्पष्ट छवि क्यों सामने नहीं आती या तो अतिरंजित बात कही जाती है या मूल विषय को बिल्कुल ही भोथरा बना दिया जाता है इन प्रतिष्ठा पूर्व लेखकों द्वारा जो लिखा जाता है क्या वह सही लगता है आपको? इनकी सम्मानित करने वाली संस्थाएं प्रायोजित भी तो हो सकती हैं ।”
ख : “आप तो चौतरफा घेरने की कोशिश में है, लेखक को यदि मान प्रतिष्ठा न मिले तो वह लिखें ही क्यों?”
क : ” अर्थात आदमी के सरोकार की बातों से लेखक की प्रतिष्ठा ऊपर की चीज हो गई?”
ख : ” मान सम्मान किसे नहीं चाहिए ? फिर साहित्यकार ने ही क्या किसी की भैंस खोल ली है?
क : “जिनको जनता ने अपना माना व उनके लिखे पर आंख मूंदकर भरोसा किया आजकल वह मीडिया हाउस के मालिक बने बैठे हैं और न केवल महत्त्व पूर्ण बातों को नकार रहे हैं बल्कि अपने अधीनस्थों का शोषण भी कर रहे हैं।”
ख : ” बड़ा बनना तो सभी का उद्देश्य होता ही है अगर पत्रकार व लेखक बड़े बने तो आपको आपत्ति क्यों हो रही है?”
क : ” मुझे आपत्ति नहीं पर जिन मूलभूत समस्याओं पर आम जन सरोकार पर, भ्रष्टाचार पर सांस्कृतिक ह्रास पर , अस्मिता , शील, अस्तित्व की लड़ाइयों के ऊपर लिखने को यह प्रतिबद्ध थे वह मूल उद्देश्य कहां गए? छुटपुट कविताओं, हास्य, सतही खबरें ,स्तुति गान और पैसे के साथ परोसे गए एजेंडा को चलाने की तरकीबें क्यों करने लगे कुछ तो मसखरे ही बन गए हैं।”
ख : ” पैसा तो इससे ही आता है ।यह भारी-भरकम ढांचे जो खड़े हो गए हैं उन्हें चलाने को पैसा चाहिए कि नहीं ? ”
क : “तब तो यह शोषण के विरुद्ध खड़े न होकर शोसकों की जमात में शामिल होना ही हुआ । क्या इसी विचारधारा के साथ हम विसंगतियों की विरूपताओं से लड़ेंगे ? ”
ख : “आप किन विसंगतियों की बात कर रहे हैं?”
क : ” हा हा ! मान्यवर आप तो विसंगतियों को ही भूल गए। नवलेखन पर चल रहे हैं ना? बधाई हो!
डॉ किशोर अग्रवाल
रायपुर छ.ग.
मो.-94252 12340