( ग़ज़ल )
आईनों से नहीं है दुशमनी मेरी ,
अक्श से अपनी डरती ज़िन्दगी मेरी।
सब्ज गुलशन समझ बैठा मै सहरा को
अब कहां से बुझेगी तशनगी मेरी।
शमअ के प्यार मे मै जल चुका इतना
मर के भी तप रही है खुदकुशी मेरी ।
मै बड़ी से बड़ी खुशियों को पकड़ लाया
दूर जाती गई छोटी खुशी मेरी।
तू नहीं तो नशा काफ़ूर है दानी ,
इक नज़र ही तुम्हारी मयकशी मेरी ।
( ग़ज़ल )
गो चराग़ों सा मेरा किरदार है,
पर हवाओं की दुआ स्वीकार है।
क्या हुवा गर पीठ मेरी झुक गई,
पेट मेरा आज भी ख़ुद्दार है।
दान देकर ही बना हूं मैं अमीर,
दान देना भी यहां व्यापार है।
सो रहा है चांद फिर फ़ुटपाथ पे,
चांदनी को तीरगी से प्यार है। ( तीरगी-अंधेरा)
तेज़ है दानी बदी की धूप आज,
फिर भी गुलशन नेकी का गुलज़ार है।
( ग़ज़ल )
चीज़ें जैसी दिखती हैं वैसी सदा रहती नहीं,
आशिकों के दिल में क़ौमी दुशमनी पलती नहीं।
हम परिंदों की तरह ही उड़ने वाले लोग हैं ,
आंधियों में भी उड़ानों की अदा थकती नहीं ।
हर नदी की चाल का अपना तरीका होता है ,
कुछ समंदर से मिलें कुछ ग़ैरों से मिलती नहीं ।
मेरा बच्चा हो गया जब से बड़ा, मुश्क़िल में हूं ,
अपने घर में थोड़ी सी भी अब मेरी चलती नहीं ।
मज़हबी राहों पे चलने वाले लोगों ध्यान दो ,
दुनिया ये झगड़ों के दम अच्छी कभी बनती नहीं।
( ग़ज़ल )
वक़्त की कश्ती यूं ही चलती रहेगी ,
मुश्क़िलों से ज़िन्दगी लड़ती रहेगी ।
सुबह से मेरा कोई झग़ड़ा नहीं पर ,
रात आंगन में मेरे पलती रहेगी ।
इश्क़, क़ौमी पत्थरों से डरता है पर,
आशिक़ी की हर नदी बहती रहेगी ।
हम पहाड़ों पर चढाई भी करेंगे ,
औ ज़मीनी पूजा भी चलती रहेगी ।
दुश्मनी की धुन्ध जल्दी ना छंटे पर ,
दोस्ती की रौशनी दिखती रहेगी ।
कितना भी परदेश में हम धन कमायें,
गांव में मां रास्ता तकती रहेगी ।
( ग़ज़ल—-दर्दे दिल की दास्ताँ )
दर्दे-दिल की मेरी दास्तां फिर कभी,
क्या हुवा अपनों के दरमियां फिर कभी।
रास क्यूं आया मुझको महल रेत का,
तोड़ना क्यूं पड़ा आशियां फिर कभी।
मेरी परवाज़ से दुनिया क्यूं जलती थी,
टूटा मुझ पर ही क्यूं आसमां फिर कभी।
देख मेरी मदद की अदा को सनम,
पागलों सा हंसे क्यूं जहां फिर कभी।
राजनेताओं के आने के बाद ही,
क्यूं जली शहर की बस्तियां फिर कभी।
( ग़ज़ल– हिम्मत के साथ दरिया पार करना है )
हिम्मत के साथ दरिया हमें पार करना है ,
बस खौफ के किनार्रों पे अधिकार करना है ।
हर जंग हौसलों की दुआ मांगती सनम ,
डर की सुरंग में सफर सौ बार करना है ।
अपनी ज़मीं की रक्षा हमारे ही जिम्मे है ,
आया समय तो अर्श से यलगार करना है ।
पैसे कमाने आया हूं परदेश, क्यूंकि कल,
इस धन से अपने गांव का श्रृंगार करना है ।
दानी तो उनके प्यार में पागल सा हो चुका ,
अब उनका रात दिन मुझे आभार करना है ।
( ग़ज़ल– मेरा बच्चा मुझसे बड़ा हो गया है)
सूर्य ही ,आसमां का ख़ुदा हो गया है,
अब मेरा बच्चा मुझसे बडा हो गया है ।
कल उजालों के सम्मान में गाने गाये,
आज मुझसे अंधेरा ख़फ़ा हो गया है।
क़ैद होने लगे रिश्ते अल्मारियों में,
रुपिया, इंसान का असलहा हो गया है।
क़िस्से जब से शहीदों के लिखने लगा हूं,
दिल में जांबाज़ों सा हौसला हो गया है।
चांदनी ,चांद को छोड़ कर जा चुकी है,
रात का हुस्न भी ग़मज़दा हो गया है।
( ग़ज़ल–ख्वाहिशें क्यूँ नहीं होती हैं कम )
सब्र का रास्ता क्यूं हुआ गुम,
ख़्वाहिशों क्यूं नहीं होती हैं कम्।
दर्द से आशिकी जब से की है ,
खुशियाँ जलती,चराग़ों सा हरदम्।
पैसे वालों से सरकारें डरतीं,
मंदिरों में भी है उनका मातम्।
दिल पहाड़ों पे कुर्बां है मेरा,
तू ज़मीनी हक़ीक़त का रख भ्रम्।
चांदनी बेवाफ़ाई की ज़द में,
चांद के घर अंधेरों का सरगम्।
डॉ संजय दानी
दुर्ग छ.ग.
मो-98930 97705