धरोहर
इस बार शिफ्ट होकर हम जिस नये मकान में रहने आये वह शहर से कुछ अलग हट कर था घर के आसपास खाली जमीन पड़ी थी, कुछेक जगह कब्जे के तौर पर लोगों ने अपनी जमीन पर घेराबंदी कर छोड़ रखा था, यहाँ हवा काफी खुली-खुली थी, एक अनोखी शांति थी, चारो तरफ। बालकनी पर बैठे हुए जहां तक नजर जाती हरियाली ही हरियाली नजर आती। सड़क के एक तरफ खेतों में फसलें लहलहा रही थीं और दूसरी तरफ अमराई दूर तक दिखाई पड़ रही थी। शायद वर्षों से मुझे किसी ऐसी ही जगह ही तलाश थी जहाँ मैं प्रकृति को इतने करीब से देख सकूँ, सुन सकूँ महसूस कर सकूं। घर से दाई ओर कुछ दूरी पर जहां सड़क का मोड़ था वहां कुछ कवेलू वाले कच्चे मकानों की कतार दिखाई दे रही थी, कुछ मजदूर रहते थे शायद, खेतों मे काम करने वाले, रोजी कमाने कुछ शहर की ओर जाते भी नजर आते। रात होती तो निस्तब्धता को तोड़ता हुआ झींगुरों का शोर बारिश के शोर के साथ घुल मिलकर एक अलग ही समां बाँध देता। रात के अंधेरे में जुगनुओं की चमक पेड़ां के इर्द गिर्द ऐसी जगमगाहट बिखेर देती जैसे आसपास के तारे ही जमीं पर चहलकदमी करने उतर आये हों।
नये मकान में शिफ्ट होना लगभग वैसा ही होता है जैसे फिर से गृहस्थी की शुरूआत करना फिर नये सिरे से सारी व्यवस्था करना। नये परिवेश से ताल मेल बिठाने में ही सप्ताह बीतने लगा था। कमरों में जरूरत के अनुसार सामान जम गया था, पर सब कुछ अपने मन मुताबिक व्यवस्थित होने में काफी समय लग जाता है। इधर ढूँढने के बाद भी घर के कामकाज के लिए काम वाली मिल नहीं रही थी घर के साफ सफाई करते हुए कभी बेहद थकान होने लगती। घर के आसपास कोई घर नहीं था जहाँ थोड़ी बहुत मेल, मुलाकात के बाद इतनी जान पहचान तो हो कि इन सबके लिए सलाह मशविरा लिया जा सके, कोई मदद मिल सके। एक शाम थोड़ी फुर्सत पाकर आसपास का जायजा लेते उन कच्चे मकानों की ओर टहलते हुए जा पहुंची। एक घर का दरवाजा खुला देख मैंने अंदर झांक कर देखा, शायद कोई गृहणी दिखाई दे। वहाँ दरवाजे के पास ही, साँवली लड़की बैठी सूप में चाँवल बीन रही थी। यूँ अचानक मुझे देख अचकचाकर उसने सूप जमीन पर रख दिया और मटमैली सी साड़ी समेटती हुई उठ खड़ी हुई। उसकी बड़ी-बड़ी आँखे मुझसे परिचय पूछने प्रश्नचिन्ह सी मुझ पर आकर टिक गईं। मैने बड़ी सहजता से परिचय देने के लहजे में उसे समझाते हुए कहा ‘‘हम लोग यहाँ नये हैं किसी को जानते नहीं हैं। दरअसल घर के ऊपरी कामकाज के लिए ‘बाई’ ढूंढ रहे हैं क्या तुम जानती हो यहां किसी को ?‘‘ उसने कहा कुछ नहीं बस नकारात्मक जवाब में सिर हिला दिया। मैंने दरवाजे पर खड़े-खड़े ही सरसरी नज़र से पूरे कमरे का मुआयना करने की कोशिश की। साफ सुथरी कच्ची फर्श गोबर से लिपी हुई थी। एक कोने में कुछ बर्तन पतीले एक टूटे से रैक पर सजे हुए थे। एक लंबे बांस में रोजमर्रा के कपड़े दरी, चटाई व्यवस्थित टांग दिये गये थे। उसने झट से मेरी निगाहों का अनुसरण करते हुए दरी निकालकर बिछानी चाही मेरे बैठने के लिए। ‘‘अरे नहीं रहने दो। मैं चलूंगी, बस ऐसे ही आ गई थी तुमसे मिलने! थोड़ी जान पहचान करने!’’ कहकर मैं बाहर निकल आई। मुड़कर देखा तो वह दरवाजे पर खड़ी हैरत से मुझे निहार रही थी निः शब्द। अचानक मैने उससे पूछ लिया– ‘‘क्या तुम करोगी काम मेरे यहाँ’’
‘‘मैं ?’’ अवाक सी वह मुझसे पूछ रही थी।
‘‘हां, अगर तुम करना चाहो, पगार जो तुम चाहो दे दूंगी।’’ वह कुछ सोच में पड़ गई। जैसे किसी असमंजस में हो। ’’तुम सोच लो और अपने पति से इजाजत भी ले लो। अगर करने का इरादा हो तो मुझे खबर दे देना। वहां मेरे घर आकर।‘‘ मैंने इशारे से अपने घर की ओर इशारा कर उसे समझा दिया। वहां से तेज कदमों से चलती घर पहुँची तो कहीं मन मे तसल्ली थी कि नौकरानी की खोज पूरी हुई। देखने में सीधी सादी और भरोसेमंद तो लगती है मैं खुद को आश्वस्त करने की कोशिश कर रही थी। अनजानी जगह पर अनजान लोगों के बीच एक असुरक्षा का भाव एकाएक फन फैलाने लगता है। पता नहीं कैसे होंगे क्या होगा, संदेहो के दायरे मन के विश्वास को झिंझोड़ने लगते हैं संकुचित होकर, लेकिन इससे मिलकर मन का विश्वास कुछ मजबूत हो चला था। अगला दिन उसके इंतजार में बीत गया वह नहीं आई। लगा कि हो सकता है उसे जरूरत न हो काम करने की! फिर भी एक बार उससे पूछ लेने में हर्ज ही क्या है। शाम होते होते दुबारा फिर उसके घर की ओर चल पड़ी। वह बाहर ही बैठी मिल गई जैसे मेरी राह ही देख रही हो। ’’ तुमने बताया नही ?’’ जवाब में वह सर झुकाकर चुपचाप खड़ी हो गई जैसे कोई गलती हो गई हो उससे। मांग में सिंदूरी रेखा देखकर मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे पति क्या करते हैं ? ’’ ‘‘रिक्शा चलाता है।’’ संक्षिप्त सा जवाब देकर वह चुप हो गई।
‘‘अच्छा तो शायद उसने तुम्हे मना किया होगा काम करने के लिए।’’ मैंने अनुमान लगाते हुए कहा।
‘‘नहीं मैंने तो उससे पूछा ही नहीं।’’ उसके जवाब से मैं हैरान थी।
‘‘फिर भला क्या बात है ?’’ कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद उसने जैसे कुछ साहस जुटाकर कहा- ‘‘मैं काम तो करना चाहती हूँ लेकिन उसे बताये बिना।’’
‘‘भला ऐसा क्यों ? ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम काम करो और उसे पता तक न चले? बात कभी खुली तो झगड़ा करेगा तुमसे।‘‘ मैंने उसे आगाह करते हुए कहा।
‘‘उसे कुछ पता नहीं चलेगा, उसके जाने के बाद आकर सब काम निबटा जाया करूँगी उसके आने से पहले घर चली जाया करूँगी।’’
‘‘ठीक है अगर तुम नहीं चाहती कि उसे पता चले तो यही सही। यह तुम्हारा आपसी मामला ठहरा!‘‘ मैं और क्या कह सकती थी। दूसरे दिन वादे के मुताबिक वह सुबह-सुबह आ गई तो मुझे भी चैन पड़ा। काम भी बड़े सलीकेदार था उसका साफ सुथरा। ज्यादा कुछ कहने की समझाने की जरूरत नहीं पड़ी मुझे। जहाँ दूसरी कामवाली बाईयों के हाथ के साथ-साथ जु़बान भी तेज़ रफ्तार से भागती है वहीं यह खामोशी से सारा काम निबटा कर चलीं जाती। पति से काम करने की बात छुपाने के पीछे उसकी कौन सी मजबूरी हो सकती है ये सोच नहीं पा रही थी। शायद नई शादी होगी तो अपने रूचि के अनुरूप सजने संवरने का मन होता होगा उसी के लिए गहने कपड़ों के लिए बचत करना चाहती होगी। रिक्शे से होने वाली आमदनी तो घर गृहस्थी की जरूरतों में ही भस्म हो जाती होगी। उस पर फिर दिन भर की थकान उतारने अधिकांश रिक्शेवालों की आधी कमाई तो नशे की लत में ही स्वाहा हो जाती है। खैर अब यह उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के फैसले ठहरे। मुझे उन सबसे क्या लेना देना और मैं बाजार से लाने वाले सामानों की लिस्ट बनाने लगी। महीना खत्म होने वाला था। रोजमर्रा की आपा धापी के बीच महीना कब खत्म हो गया पता न चला। पहली तारीख को उसके हाथों में पगार देते हुए पूछ ही लिया-’’पति से छुपाकर इन रूपयों को कहां रखोगी तुम ? और कुछ गहने कपड़े इन रूपयों से खरीदोगी तो वह पूछेगा नहीं कि कहां से आये इनके लिए पैसे ? शक नहीं होगा उसे ?’’ मैं उससे सवाल पर सवाल किये जा रही थी और वह इनसे बेखबर कहीं जैसे शून्य में देख रही थी कहीं और ख़यालों की दुनियां में जैसे डूबती जा रही थी, फिर एकाएक मुझसे मुख़ातिब होकर धीमी आवाज में जैसे कोई रहस्योदघाटन सा करती कहने लगी- ‘‘इन रूपयों को अभी आप अपने ही पास रख लीजिए। मेरा दूर के रिश्ते का मामा गाँव से आना जाना करता है वह आयेगा तो उसी के हाथों इन पैसों को अपने बाबा के पास भिजवा दूंगी। मुझे कुछ नहीं चाहिए अपने लिए, मेरे लिए तो मेरे पति की कमाई ही काफी है मुझे चिंता है तो अपने बीमार बाबा की पता नहीं बेचारा किस हाल में होगा। माँ की तरह उसी ने मुझे पाल पोसकर बड़ा किया है मैं ही उसका बेटा हूँ और मैं ही उसकी बेटी! मेरे सिवा उसका है ही कौन ? कुछ सालों से वह बीमार रहने लगा है। दमे की शिकायत है इसलिए काम, मजदूरी कर नहीं पाता और रात में भी उसे दिखाई नहीं देता।’’ कुछ देर ठहर कर वह अपनी आँखो मे आये आंसुओ के सैलाब को रोकने का जैसे असफल कोशिश कर रही थी।
बाबा की हालत देखकर वह ब्याह करना नहीं चाहती थी पर वह बेटी को अपने अपने जीते जी सुरक्षित आसरा देना चाहता था। शादी से पहले उसने साफ शब्दों में शर्त रखी थी कि शादी के बाद पिता को भी वह साथ रखेगा देख़भाल करेगा। उस समय तो उसने हामी भर दी थी भरोसा भी दिलाया था कि बेटे की तरह उसका ख़्याल रखेगा लेकिन शादी के बाद सारे वादे कपूर की तरह हवा में उड़ने लगे थे। अपनी जिम्मेदारी से लापरवाह वह बस अपनी ही दुनिया में मस्त रहता। वह कभी याद दिलाती तो झगड़ा करता उससे। रोज-रोज के झगड़ों से तंग आकर उसने पति से कुछ कहना ही छोड़ दिया था लेकिन मन ही मन निश्चय कर लिया था कि वही कुछ करेगी अब! खुद कमाकर बाबा को भेजेगी ताकि उसे भूखे पेट न सोना पड़े! औलाद कितना भी करे मां बाप का कर्ज कभी चुका नहीं सकती। कभी बात खुल भी गई तो तब की तब देखी जायेगी। बड़े दार्शनिक अंदाज में वह कहे जा रही थी- ‘‘पिता के लिए कुछ करना गुनाह नहीं कर्तव्य ही होता है।’’ उसकी आँखों की चमक में झलक रहा था उसका आत्मविश्वास और उसका दृढ़ संकल्प! कमजोर सी दिखने वाली इस लड़की के इरादे कितने मजबूत थे कितने ठोस!! मैं मन ही मन उसकी कायल हो गई थी उसकी शख्सियत एकाएक मेरी नजरों में आम लोगों से कहीं बहुत ऊपर उठ गई थी, नितान्त अनौपचारिक और अघोषित कर्तव्यनिष्ठ हस्ती के रूप में। मुझे लगा उसने बड़े जतन से जुटाकर एक धरोहर सौंपी है मुझे! एक बहुत बड़े मकसद के लिए………।