ग़ज़ल-1
वक्त अंधेरे में देखने वाला नहीं होता,
शहर वतन में क्या-क्या नहीं होता.
सुबहो-शाम ये मायूसी नज़र आती है,
जिसे न समझा वो तो अपना नहीं होता.
करीब़ उनके अभी नहीं है कोई साथ,
गमे-वक्त पे कोई किसी का नहीं होता.
कहने को अपना ये प्यारा सा रिश्ता है,
तुमसे दूर कोई यूं अकेला नहीं होता.
कभी ये हाले-दिल रूलाता बहुत है,
दिल तो वही है जो कभी छोटा नहीं होता.
तुम बिन बहार बज़्में गुलिस्तां में है,
सुबह उजाले में चांद सितारा नहीं होता.
ग़ज़ल-2
कैसे कहूं उनसे ये वक्त गुज़र गया,
फरेबे इश्क में जमाना संवर गया है.
पास रहकर दूरियां देखी है हमने,
फूलों पे कतरा-ए-शबनम बिखर गया है.
चमक रहे हैं सितारे यूं अलग-अलग,
वहीं चांद सा टुकड़ा निखर गया है.
एक दिया हाथ पे तुमने क्यों रखा यहां,
ख्वाब देखा बुझता हुआ बिखर गया है.
उस महफिल में अहसास हुआ मुझे,
दिल का प्यार अमानत में ठहर गया है.
वो तो उदास है आलम-ए-बहार में इतना
हमराह नहीं कोई दिल से गुज़र गया है.
रूबाई
फूलों के सोहबत में नज़र आती हैं कलियां
चमन से गुजर कर खिल आती हैं कलियां.
फूलों के करीब भौंरे ने रखा अपना कदम,
खिले फूलों के संग निखर आती हैं कलियां.
ग़ज़ल-3
जहां रहते हो तुम कुछ याद नहीं आता,
ये है शहर अंजाना कुछ याद नहीं आता.
वक्त हमने गुज़ारा अब यहां इतना,
तुम्हें देखकर यहां कुछ याद नहीं आता.
करवटों में बदला ये वक्त इतना,
रात कैसे गुज़री है कुछ याद नहीं आता.
सुनाती है ये आंखें सवाल बस इतना,
है कौन हमसे ख़फा कुछ याद नहीं आता.
चलो उन फासलों के साथ चलें इतना,
अहसास तनहाई में कुछ याद नहीं आता.
उन गुलों में ऐ बहार मेरा दिल है इतना,
गुंचाओं में चमन था कुछ याद नहीं आता.
शमीम बहार,
अप्सरा लॉज के पास,
सदरवार्ड, जगदलपुर, छ.ग.
मों.-07587356655