परिचर्चा-शांती तिवारी

‘बस्तर पाति’ के विमोचन पर हुई परिचर्चा

लोक साहित्य के संरक्षण में आधुनिक साहित्य का योगदान

बहुत ही सुन्दर और सामयिक विषय है. ऐसा प्रायः होता है कि किसी घटना के हो जाने पर हम यह चिन्ता करने लग जाते हैं कि कहीं यह घटना हमारी पहचान, हमारे अस्तित्व के लिये चुनौती न बन जाये! कभी-कभी तो हमें लगने लगता है कि हमारा अस्तित्व ही समाप्त न हो जाये. मेरे विचार से ऐसा है नहीं. आज हमारी चर्चा का जो विषय है कि लोक संस्कृति के संरक्षण में आधुनिक साहित्य का कितना योगदान है अथवा हमारा साहित्य धीरे-धीरे अपनी संस्कृति से दूर होता जा रहा है?
वस्तुतः जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो हम प्रकृति के साथ मनुष्य के तादात्म्य की बात करते हैं. हमारी और पाश्चात्य संस्कृति में यही मूल अंतर है कि पाश्चात्य संस्कृति में प्रकृति को उपभोग की वस्तु माना गया है जबकि भारतीय संस्कृति में प्रकृति का स्थान परिवार से भी अधिक ऊपर है, पूज्य है, आराध्य है. हम धरती, जल, अग्नि, वायु और आकाश को उपभोग की वस्तु के रूप में स्वीकार नहीं करते बल्कि उन्हें देवत्व से पूर्ण मान इनकी उपासना करते हैं. हमारा शरीर इन्हीं पाँच तत्वों से मिलकर बना है और जब ये पाँचों हमारे शरीर का, हमारे जीवन का आधार हैं तो इन्हें पर्याप्त सम्मान देते हुए इन्हें सुरक्षित रखना हमारा कर्तव्य है. हमारे साहित्य ने हमारी इस धरोहर को सदा से पर्याप्त सम्मान दिया है.
गोस्वामी तुलसीदास अपने सर्वकालिक महाकाव्य ‘‘श्रीराम चरित मानस में कहते हैं-
‘‘क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित यह अधम शरीरा.
आधुनिक कवि इनके सुर में सुर मिलाकर कहते हैं-
क्षितिजल पावक गगन समीरा थाती है धरती में मिलते.
प्राणी जीवन के सैरिम सम, पुष्प पहुनि मैं अभिनव खिलते.
नदी हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रही है. इसीलिये जब श्रीराम और सीताजी के मार्ग में गंगाजी आती हैं, ‘‘गोस्वामी कहते हैं, ‘‘राम कहेऊ प्रणाम कर सीता. आज का कवि नदी की उपासना करता हुआ कहता है-
हे वारि देवता, माँ गंगे, हम पापक तेरे पग में नत. मानव के अत्याचार हेतु, करते मिल क्षमायाचना सत्.
कामायनी में प्रसाद जी जब चिन्ता, वासना, आशा, काम, श्रद्धा, लज्जा ईर्ष्या और अन्य मनोभावों को अपने सर्गों का शीर्षक देते हैं तो वे भारतीय लोक संस्कृति की ही उपासना करते हैं. सियाराम शरण गुप्त जब किसान की व्यथा का वर्णन करते हैं तो भारत की रीढ़ की हड्डी का वर्णन करते हैं. ममोला की लेखिका श्रीमती शांति तिवारी जब अपने महाकाव्य का समापन इन शब्दों से करती हैं, ‘‘अंत काल तक मानव मन को, हमको यह सुंदर सा वर दो’’ तो वह वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश देती हैं. शिवमंगल सिंह सुमन मिट्टी की महिमा का गान करते हुए कहते हैं ’’हर बार बिखेरी गई किंतु मिट्टी, फिर भी तो नहीं मिटी.’’ तो वे धरती माँ का ही अभिवादन करते हैं. दुःख की बात तो यही है कि साहित्यकार तो नदियों की, जटा की, कृषकों की, मिट्टी की उपासना कर अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं किन्तु हमारी लोक-संस्कृति के ये धरोहर आज अपना अस्तित्व बचाने के लिये याचक बन हमें देख रहे हैं. मैंने अभी बार-बार मानस को उल्लेख किया है मेरे विचार से मानस को काल की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता, यह सर्वकालिक साहित्य है. आज से चार सौ साल पहले लोग इसे जिस तन्मयता से पढ़ते थे उसी तन्मयता से आज भी पढ़ते हैं. आज भी यह सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला महाकाव्य है जिससे आधुनिक साहित्यकार भी प्रेरणा ले रहे हैं. मेरा विश्वास है कि भारत में जब तक साहित्यकार हैं, हमारी संस्कृति जीवित रहेगी. हम सालों पहले वृक्षों की पूजा करते थे आज भी करते हैं. महिलायें सालों से करवा-चौथ के साथ अनेकानेक व्रत-त्योहार कर रही हैं और साहित्यकार अपनी लेखनी से इन पंरपराओं को जीवित रखे हैं. टी.व्ही.के बहुत पहले बस्तरिया माड़िया, छत्तीसगढ़ी सुआ, आसामी बीहू, पंजाबी भांगड़ा और अन्य गीतों, नृत्यों की पूरे देश में पहचान साहित्य से ही हुई. थोड़ा बहुत जो परिवर्तन हुआ है वह युगीन आवश्यकता के साथ अनिवार्यता भी है, यह चिन्ता निरर्थक है कि हमारी लोक संस्कृति, हमारी भाषा संकट में है. हिन्दी भाषा पर तो सौ से अधिक सालों से लगातार आक्रमण हो रहे हैं लेकिन हिन्दी आज भी सुरक्षित है. अत्यन्त शक्तिशाली से शक्तिशाली आक्रमण भी देश की लोक संस्कृति, उसकी भाषा, उसकी अस्मिता को तब तक नष्ट नहीं कर सकता जब तक भारत के सीतापुर में सुनीता सारस्वत, जगदलपुर में सनत जैन और भारत में केवलकान्त पाठक जैसे समर्पित मौजूद हैं जो स्वान्तः सुखाय लिख रहे हैं, पत्रिकायें निकाल रहे हैं बिना किसी स्वार्थ के. मेरे पास लखनऊ से श्री ओमप्रकाश अग्रवाल जी, जब भी कोई नई पुस्तक लिखते हैं, छापते हैं, मेरे पास भेजते हैं जिनकी वे सहयोग-राशि नहीं लेते. ऐसे ही पूरे भारत से पुस्तकें, पत्रिकायें आती हैं और मैं तुरन्त उन्हें सहयोग राशि भेजती हूँ क्योंकि इन्हीं सब ने हमारी संस्कृति, हमारी भाषा, हमारी पहचान को सुरक्षित रखा है.
आज हम सब मिलकर यह सोचें कि जिस संस्कृति, जिस भाषा को काल के अनेकानेक थपेड़ों से हमारे पूर्वजों ने बचाये रखा है, उसे बचाने में हम क्या लिखकर और किन उपायों से अपना योगदान दे सकते हैं.


श्रीमती शान्ती तिवारी
422, वृन्दावन कॉलोनी
जगदलपुर (बस्तर)
मो.-094242-82996