अंक-1-बहस-नायक एवं खलनायक (एक)

नायक एवं खलनायक (एक)

इसमें दो राय नहीं कि हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, वह बहुत जटिल है. आगे यह दृश्य और अधिक उलझाने वाला ही हो सकता है. प्रगति के नाम पर बहुत ज्यादा ‘मटेरियल लाइफ’ पर जोर भौतिक वस्तुओं की भरमार. हमें लगता है हम इन चीजों से घिर गये हैं चारों ओर बाढ़ आई हुई है.
क्या कभी ये दृश्य बदल पाएगा ? क्या इन चीजों से घिरा मनुष्य इनका आंतरिक प्रतिरोध कर पाएगा ? यह निश्चित है कि यह मनुष्य का मूल स्वभाव नही है. मगर वह कितनी जल्दी इनकी शिनाख्त कर पाएगा- वह तो समय ही बताएगा.
मनुष्य अपने मूल की ओर लौटे. मनुष्य प्रकृति की ओर जाए. मनुष्य इस सार्वभौम जीवन के सत्य को देख पाए- इस तथ्य को कौन बताएगा ? इस तथ्य को कौन बताएगा कि मनुष्य आखिर में है क्या, इसका इस विराट परिदृश्य से क्या और कैसा नाता है ? अर्थात् मानव के मूल स्वरूप की व्याख्या हम कहांॅ खोजें- साहित्य में ?
निश्चित रूप से उतर है- हांॅ ! चौराहे पर खड़े मानव को, चाहे वह सशंकित हो या दिग्भ्रमित, साहित्य ही सही राह दिखा पाने में सक्षम है.
वर्तमान जीवन की तरह आधुनिक साहित्य भी उलझ गया है. वह यही नहीं समझ पा रहा है कि वह अपनी अभिव्यक्ति किस तरह करे- यर्थाथवादी तरीके से, अति यर्थाथवादी रीति से, आधुनिक या उत्तर आधुनिक पद्धति से.
आधुनिक साहित्य की ये दलील है कि चूंकि यथार्थ जटिल हो चला है- मानव सोच व संस्कृति अति संश्लिष्ट, पहले से कही अधिक उलझी, अबूझ हो चली है अतः इनसे उद्भूत साहित्य, यथा कहानी, कविताएं उपन्यास इत्यादि का रूप और अन्तरवस्तु भी इन्ही जैसा ही होगा. यह तर्क गलत नहीं है, चरित्रों का शेड्स भूरा हो चला है, चरित्र विराट सिस्टम का अंगमात्र हैं- अतः अच्छे और बुरे की पहचान धरने वाले तत्व कथा साहित्य से लगभग गायब होते जा रहे हैं. कोई खलनायक या कोई नायक अब स्पष्ट चिन्हित नहीं हो पा रहा है. वर्तमान का यथार्थ कॉरपोरेट की ताकतों से संचालित है- बेचारा एक मध्यमवर्गीय या नगरीय या ग्रामीण पात्र तो इस सिस्टम का एक ‘शिकार’ मात्र है, उसकी अपनी सच्चाई, अपना प्रतिरोध बहुत मायने नहीं रखता. उसकी अपनी जीजिविषा और अस्तित्व ही खतरे में हैं और इसके लिए वह जो कुछ कर रहा है, वह ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ की अवधारणा से परे है. उसकी आलोचना दरअसल हमारे वर्तमान समय की आलोचना है. उसकी अच्छाई या बुराई हमारे समय की अच्छाई या बुराई है. उसकी पराजय हमारे वक्त की हार है.
भौतिक यथार्थ जिस तेजी से बदलते हैं मानव मूल वृतियांॅ उस तेजी से नहीं. यदि हम कहें कि मानव का मूल स्वभाव आदि काल से कमोवेश आज तक एक समान रहा है, तो अतिशयोक्ति न होगी. प्रेम, घृणा, ईष्या, क्रोध जैसे भावों से मनुष्य आज भी वैसे ही घिरा है, वैसे ही महसूस करता आ रहा है जैसा कि विभिन्न चरित्र हमारी पौराणिक कथाओं में. बेशक, उसे अभिव्यक्त करने के तरीके उसने बदल दिए हैं. पर, वे आज भी किसी न किसी रूप में व्यक्त किए जा रहे हैं.
इसका क्या अर्थ हुआ ? यही कि मूल वृतियॉ आज भी मनुष्य पर हुकूमत करती हैं. कह सकते हैं मनुष्य अपने स्वभाव का, अपने मनोभावों का दास है, कि मनुष्य इसीलिए मनुष्य है क्योंकि वह अपने मनोभावों के अधीन है अन्यथा वह रोबोट न हो जाता!
तो क्या हमें इस मानवीय भावों का शमन, शोध नहीं लेना चाहिए ? उसके भाव किस तरह परिष्कृत होंगे ? उसका क्रोध और घृणा किस तरह नियंत्रित हो पायेगा ? उसका उदात प्रेम और किस तरह विकसित हो पाएगा?
निश्चित रूप से यह काम साहित्य और अन्य कलाओं के हिस्से आता है. विशेषकर साहित्य, जो मनुष्य के एक-एक कलपुर्जे को ‘डिसमेंटल’ कर उसकी शिनाख्त करेगा. उसकी विवेचना करेगा. उसकी खूबियों, खामियों की पहचान करेगा.
अपने मूल स्वभाव की ओर लौट चले- यहां लोककथाएं हमारी खूब मदद करती हैं. हम इनसे दो एक बातें स्पष्ट सीख सकते हैं- सर्वप्रथम कि नायक का रंग यहांॅ स्पष्ट होता है. यहां ‘ग्रे शेड्स’ नहीं मिलेंगे. नायक पूरी तरह अच्छाइयों का पुतला होगा. वहीं खलनायक में दुनिया भर की बुराईयां होंगी. ऐसे चरित्रों की रचना करने में एक बात स्पष्ट है कि लेखकों को अच्छे व बुरे के बीच के ‘संघर्ष’ को दिखाने का खूब मौका मिलेगा. ‘कॅनफ्लिक्ट’ यानी संघर्ष की स्थिति निर्मित होने पर कथा में रोमांच उत्पन्न होगा. पाठक आकर्षित होंगे. बुरे से बुरा व्यक्ति भी अच्छे नायक की ओर आकर्षित होता है हम यहां उल्लेखित करना चाहेंगे की कथा साहित्य से ऐसे स्पष्ट संघर्ष की रचना स्थितियॉं या आत्म स्थितियांॅ आधुनिक सिहत्य से नदारद हो रही हैं. कथा एकरस व उदास हो चली है वजह ?- यथार्थ के नाम पर एक बने-बनाए शिल्प में ‘पल्प फिक्शन’ लिखे जा रहे हैं. स्त्री विमर्श और पुरूष विमर्श.
प्रश्न उठाए जा सकते हैं कि अगर खलनायक का चेहरा इतना छिपा है और अमूर्त है तो उसकी पहचान कैसे की जाए ? उसका चेहरा कैसे सामने लाया जाए ? नायक की अच्छाईयॉं कैसे उभारी जाए ं? उसे उस अदृश्य शक्ति से किस तरह संघर्ष करवाया जाए जो अमूर्त है ,परे है- जिसके बारे में ज्ञान ही नहीं है.
एक समाधान के तौर पर यही कहा जा सकता है कि वातावरण या परिस्थितियों का चेहरा खींचा जा सकता है. साहित्य के नये प्रतिमान, नये प्रतीक ढूंढे जा सकते हैं. हम अपने प्राचीन प्रतिमानों का सहारा ले सकते हैं मगर यह आवश्यक कतई नहीं, कि यथार्थ या अति यथार्थ के नाम पर एक रसहीन रचना, उबाऊ रचना पाठकों को परोस दी जाए. हम कैसे भूल जाते हैं कि वह पाठक एक मानव है जो भावों का पुतला है. हमें उसके मनोभावों को जागृत या परिष्कृत करना है. तथ्यों का ‘डिटेल्स’ कथा या उपन्यास की रचना नहीं कर सकता! वे रचनाएं रचना नहीं हैं. लेखक या रचनाकार स्वयं इसकी पड़ताल कर देख लें. वैसे भी, पेड़ के पत्ते गिनकर फोटोग्राफी की जा सकती है- मगर क्या वह कला होगी ? और कला होगी तो किस तरह की ? कला के लिए ज्यादा सटीक यही लगता है- आधी हक़ीकत आधा अफ़साना !
हमारी सारी लोककथाएं या पौराणिक कथाएं जितनी हक़ीकत हैं, उतनी अफ़साना भी.
आज आधुनिक साहित्य में हकीकत तो है- मगर अफ़साना नहीं. हम अफ़सानानिगारों की तलाश में निकले हैं.

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