काव्य-शशांक श्रीधर

चिन्ता

(बस्तर में अमन की)
खाने की मेज़ पर बैठता हूं
निवाला अन्दर नहीं जाता
लाल आतंक से मिलेगा छुटकारा
कब सदमे से उबरेंगे पहाड़, नदियॉं
कब जंगल में पनाह लेगी
आसमान में उड़ती मैना
पर्यटक आएगा तीरथगढ़ पर
कोटूमसर की गुफा में बात करेगा
अंधी मछलियों से
मामा-भांजा का मंदिर
क्या रहेगा सुनसान ही
कब तक झीरम घाटी रोती रहेगी
माओवादी और सेना का
अघोषित युद्ध जारी रहेगा
हिड़मा और मंगली मारे जाएंगे बेमौत
रेता जाएगा गला भरे बाज़ार
कोई दिन जाएगा ऐसा
जब धमाका न होगा
न उड़ेगी पुलिस पार्टी
किसी बारूदी सुरंग पर
अख़बारों की ख़बरें
उद्वेलित न करेंगी
जाती हुई मज़दूरीनें
कब गाएंगी रेला गीत
सोचता रहता हूं
और थाली छोड़कर
उठ जाता हूं
कुर्सी से चुपचाप

बाबूजी का चश्मा

50 साल पुरानी टेबल पर
मोटे फ्रेम का चश्मा
बाबूजी की दिलाता है याद
वे हमेशा एक ही चश्मे से
देखते थे सबको
भेदभाव से बहुत दूर
पढ़ाते गए सबको
ईमानदारी और नैतिकता का पाठ
वैसे ही जैसे
गणपति स्त्रोत
और रामरक्षा
रटा डाले थे
संस्कृत के कई श्लोक
मैं भी देखना चाहता हूं
उसी चश्मे से गुपचुप
और खिसकाना चाहता हूं
अगली पीढ़ी के लिए

श्री शशांक श्रीधर

आकाशवाणी जगदलपुर
मो.-09424290567