मैं बस्तर बोल रहा हूं
‘मैं बस्तर बोल रहा हूं’ कविता संग्रह हाथ में आते ही कवि की रचनाशीलता से घोर चकित रह गया. कवर पेज ही तो बोल रहा था कि ‘मैं बस्तर बोल रहा हूं’-पहाड़ी मैना बोल रही है तो चित्रकूट और तीरथगढ़ भी उसका साथ दे रहे हैं. मैंना के गीत को मानों जलप्रपात के झरने संगीत दे रहे हैं.
कवि का कथन कि ‘मेरी कविता महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है कि बस्तर बोल रहा है, बस्तर को बोलना ही चाहिए.’ काव्य का उनके जीवन में उतर जाने का वक्तव्य है. सरल व्यक्ति ही ऐसी सोच पर कायम रह सकता है. उनके संग्रह की प्रतिनिधि कविता ’मैं बस्तर बोल रहा हूं’ ऐसी कविता है जो अपनी चंद पंक्तियों में ही बस्तर की जीवन शैली, वातावरण, भूगोल और वास्तविक धरातल का समस्त परिचय दे देती है. क्षेत्र की आदिम संस्कृति की विशेषता, सिर्फ और सिर्फ देना है और बाहरी लोगों का काम लूटना है-बड़े ही सरल ढंग से बताती है. नक्सल समस्या के साथ मूल समस्या पर प्रकाश डालती है. कविता संग्रह की कविताओं के मूड के अनुसार ’मैं बस्तर बोल रहा हूं’ सटीक और सार्थक शीर्षक है. शायद ही इस शीर्षक से अच्छा कोई दूसरा शीर्षक हो सकता था. लगभग समस्त कविताओं में बस्तर की आवाज विभिन्न रूपों में है. कवि की मजबूरी है कि वह बस्तर पर ही कविता क्यों लिखता है-क्योंकि मेरी कविता में घायल बस्तर सांस लेता रहा है, मेरी रगों में खून की जगह बस्तर दौड़ रहा है. कविताओं का अध्ययन बताता है कि कवि का स्वाभव भावुकता भरा है, जो आसपास के वातावरण, जीवन के लिए बड़ा ही संवेदनशील है. बस्तर क्षेत्र से इतना जुड़ा है कि उसके खून में ही बस्तर दौड़ रहा है. हर कविता दमदार तरीके से क्षेत्र के साथ खिलवाड़ करने वाले प्रत्येक पर बड़ी बेबाकी से वार करती है.
‘मुझे मेरा बस्तर कब लौटा रहे हो ?’ कवि का प्रश्न, एक झन्नाटेदार थप्पड़ की तरह है उन तथाकथित विकास की डोर थामे लोगों पर. उन लोगों के प्रति आक्रोश है जो बस्तर के विकास के नाम पर बस्तर को ही लूट रहे हैं और लिबास पहने हैं रहनुमाओं का. उन विकास पुरूषों ने बस्तर का सबकुछ लूट लिया है. जंगल, जमीन के साथ-साथ संस्कृति भी लूट गये हैं. सस्ते चावल ने यहां के रहवासियों के जीवन को मिट्टी के मोल में बदल दिया है. बस्तर की दुर्दशा के गवाह खाली गॉंव कवि की पैनी निगाह से नहीं छिपे हैं तो उसके कारण भी सामने हैं. ‘फैसला लेना ही होगा अब’ कवि का दृढ़ निश्चय है जो बदस्तूर स्थिति पर पैदा होता है कि ‘इधर भी सीना मेरा/उधर भी छाती मेरी./गैरों के धोखे में/अपने मरते रहेंगे कब तक.’
‘मैं लपककर कमरे का पंखा बंद कर देता हूं’ कविता ‘गौरय्या’ की अंतिम पंक्ति पूरी कविता को जीवंत कर देती है. जिससे खुशी है, प्रसन्नता है उसे सहेजना हमारा प्रयास होना चाहिए. ‘सच केवल वही नहीं है जो झूठ नहीं है’ कविता लाजवाब है, मन के अंर्तद्वंद को तर्कों के बीच डोलते रहने पर मजबूर नहीं रहने देता है बल्कि जवाब भी देता है कि सच हमेशा सापेक्ष ही होता है.
‘रास्ता सृजन का एक ही है/एक ही नियति/एक ही है सफर’ कविता ‘बीज’ की ये पंक्तियांॅ कविता की आत्मा है जो धमाके की तरह प्रगट होकर कविता को अलग तरह से सोचने पर मजबूर करती है. आध्यात्म और दर्शन की गहराई को छू लेती है. ‘झूठ, सच से भी पहले खड़ा/क्यों मिलता है’ यह स्थापित करने में सफल रहता है कि दुनिया में जैसे अच्छी चीज का अस्तित्व है वैसे ही हर बुरी चीज भी बराबरी से खड़ी रहती है. उसे नकारा नहीं जा सकता है.
आज के सपाट कविता लिखने के दौर में त्रिपाठीजी की रहस्यात्मतक एवं बिम्बात्मक कविता पाठक पर जबरदस्त प्रभाव छोड़ती है. साधारण बातों के बीच से बड़ी असाधारण बात का आगे आना कविता दर कविता चलता ही रहता है. जैसे ‘तलाश’ कविता को ही लीजिए-यह तलाश जारी रहेगी/अन्य बेमानी तलाशों की तरह/आखिर/इंसान नहीं मिलते / इंसानियत नहीं मिलती/ बुलबुले, तितलियां और कोयलें भी नहीं दिखती/……/फिर भी मेरी तरह/सरफिरे तलाश में लगे हैं/लगे थे/लगे रहेंगे.
अंतिम तीन पंक्तियों का प्रभाव जबरदस्त है. पूरी कविता में एक सच्चाई का वर्णन है, दार्शनिक सोच है, अंर्तमन की सच्चाई है. संवेदनशील व्यक्ति स्वयं को यानि मानव के स्वाभाव को जानने समझने के प्रयास में लगातार लगा रहता है, वह अन्य व्यक्ति में भी ढूंढता फिरता रहता है पर ढ़ोंगी ही मिलते हैं जो स्वांग धरे संवेदनशील लगते हैं. मानवता के क्षरण के दौर में इन बातों से संवेदनशील हारता नहीं है क्योंकि ऐसा व्यक्ति घोर आशावादी होता है, यह जानते हुए भी कि ज़्यादा अपेक्षा रखने पर बेहद दुख का सामना करना होता है.
इसके बाद कविता में दूसरी सच्चाई प्रगट होती है जो व्यवहार में दिखने वाली होती है कि दुनिया में इंसान और इंसानियत के साथ-साथ प्रकृति के भी प्राकृतिक गुण ढूंढ़ने पड़ रहे हैं. इन मुश्किलों के बीच हिम्मत न हारने वाले लगे ही रहते हैं. बुलबुल, तितली और कोयल के बिम्ब प्रकृति के संदर्भ में हैं जो प्रकृति के निरंतर क्षतिग्रस्त होने का प्रतीक है. ऐसी परिस्थिति का आशावाद सच में पागलपन ही होगा.
‘संवाद संदर्भ’ कविता अपनी आठ पंक्तियों में बड़ी सी बात कहती है कि संवाद के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि अहसास की आवश्यकता होती है.
वैसे तो ‘मैं बस्तर बोल रहा हूं’ की विवेचना में बहुत से पन्नों की आवश्यकता होगी पर एक वाक्य में कहूं तो यह कि यह संग्रह पठनीय और संग्रहणीय है. इस संग्रह की गहरी कविताओं से बहुत से गणमान्य कवियों को सीखने की आवश्यकता है वरना कविता तो वर्णन का रूप लेती जा रही है. पुनः एक बार कहूंगा कि कविता संग्रह का अध्ययन बताता है कि कवि भावुक, संवेदनशील होने के बाद भी दृढ़निश्चयी, बारीक दृष्टि का स्वामी, सुधारवादी, प्रयत्नशील और सहृदय अवश्य ही होगा, वरना कविता में दमदारी मुश्किल ही थी.
बस्तर जिले के दरभा विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम ककनार में जन्में डॉ. राजाराम त्रिपाठी की प्रायमरी एवं मिडिल तक की पढ़ाई गांव में ही हुई. उसके बाद हिन्दी साहित्य, अर्थशास्त्र एवं इतिहास विषयों में एम.ए., एल.एल.बी. एवं डाक्टरेट आफॅ फिलासफी आदि की पढ़ाई रविशंकर विश्वविद्यालय जगदलपुर से पूरी की. अनेक विभागों में नौकरी पा लेने के बाद भी मानसिक संतुष्टि न मिलने पर नौकरी छोड़कर बस्तर की वनौषधियों पर शोधरत हैं. वर्तमान समय में वे कोण्डागांव क्षेत्र में जैविक पद्धति से वनौषधियों की खेती कर रहे हैं. कृषि एवं कृषक की दशा पर लगातार लेखन चल रहा है. डॉ. राजाराम त्रिपाठी को अब तक हलधर सम्मान, अर्थ हीरो अवार्ड, विद्वत भूषण सम्मान, देश सेवा रत्न अवार्ड, महात्मा फुले लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड, एवं राष्ट्रीय गौरव सम्मान आदि से नवाजा जा चुका है.