बस्तरनामा-राजीव रंजन प्रसाद

मैं इन्द्रावती नदी के बूँद-बूँद को, अपने दृगजल की भाँति जानता आया हूँ.

प्राचीन बस्तर अथवा दण्डकारण्य के समाजशास्त्रीय विश्लेषण की आवश्यकता है. कितना जटिल था वह समाज अथवा कितना उन्मुक्त? कितना बॅंटा हुआ था अथवा कितना मिलनसार ? यह समाज जिस भौगोलिक दायरे में बंधा हुआ था वह मायने रखता है. यदि हम वर्तमान की जनजातियाँ और उसकी प्राचीन बस्तर से किसी तरह की साम्यता देखने वाली अंतर्दृष्टि चाहते हैं तो प्राचीन पुस्तकें दिशा निर्देश देती हैं. वाल्मीकी रामायण, महाभारत, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, वामन पुराण, पù पुराण, मारकण्डेय पुराण, कालिदास रचित रघुवंश, भवभूति रचित उत्तर रामचरित, कथा सरितसागर आदि ग्रंथों में प्राप्त विवरणों के आधार पर प्राचीन बस्तर के भूगोल पर एक दृष्टि डाली जा सकती है. मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि पुरातनता में भारत भूमि के दो मोटे विभाजन उत्तरापथ तथा दक्षिणापथ के रूप में किये जा सकते थे तथा लम्बे समय तक इस स्पष्ट विभाजन की सीमा रेखा विन्ध्य पर्वत ही बना रहा है. रामायण काल से प्रारंभ हो कर लगभग तेरहवीं शताब्दी तक दण्कारण्य क्षेत्र की सीमा के अंतर्गत प्राचीन बस्तर राज्य, जयपुर जमीन्दारी, गोदावरी के उत्तर का कुछ क्षेत्र तथा चाँदा जमीन्दारी का क्षेत्र सम्मिलित था. यह भी उल्लेखनीय है कि दण्डकारण्य की स्वतंत्र पहचान रही है एवं इसकी उपस्थिति को कलिंगारण्य के समानांतर माना गया था.
बस्तर क्षेत्र (दण्डकारण्य) का भौगोलिक अध्ययन सर्वप्रथम भवभूति ने किया था. रियासतकालीन बस्तर तथा उसके भूगोल का स-विस्तार वर्णन पं. केदारनाथ ठाकुर ने अपनी पुस्तक “बस्तर भूषण” (1908) में किया है. महाराजा प्रवीरचन्द्र ने अपनी पुस्तक “आई प्रवीर दि आदिवासी गॉड” (1966) में तत्कालीन बस्तर रियासत के भूगोल की बानगी प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि “प्रमुखतः यह कहा जा सकता है कि यह रियासती भूखण्ड उत्तरी सीमा से शनैः-शनैः ढलवा होता जाता है और दक्षिण सीमा गोदावरी तक निरंतर नीचा होता गया ह.ै”
लाला जगदलपुरी ने अपनी पुस्तक “बस्तर इतिहास एवं संस्कृति” में बस्तर क्षेत्र को चार प्राकृतिक विभागों में बाँटा है-
अ) उत्तर की निचली भूमि जो छत्तीसगढ के मैदान का सिलसिला है.
ब) उत्तरपूर्वी पठार- यह केशकाल की तेलिन घाटी से आरंभ हो कर जगदलपुर के दक्षिण में तुलसी डोंगरी तक गया है.
स) अबूझमाड़ का क्षेत्र
द) दंतेवाडा घाटी जिसके पूर्व में विशाल पठार उत्त्र में अबूझमाड तथा पश्चिम में बैलाडिला की पहाडियाँ हैं.
प्रो. जे. आर वर्ल्यानी तथा प्रो. व्ही. डी. साहसी ने अपनी पुस्तक “बस्तर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास” में इस वर्गीकरण को अधिक सरल करते हुए प्राकृतिक दृष्टि से बस्तर को छः भागों में बाँटा है-
अ) उत्तर का निमन या मैदानी भाग- इसका विस्तार उत्तर बस्तर, परलकोट, प्रतापपुर, कोयलीबेड़ा, और अंतागढ़ तक है.
ब) केशकाल की घाटी- यह घाटी तेलिन सती घाटी से प्रारंभ हो कर जगदलपुर के दक्षिण में स्थित तुलसी डोंगरी तक लगभग 160 वर्गमील क्षेत्र में विस्तृत है.
स) अबूझमाड- यह क्षेत्र बस्तर के मध्य में स्थित है. इसके उत्तरपूर्व में रावघाट पहाडी घोडे की नाल की तरह फैली है. यहाँ कच्चे लोहे के विशाल भंडार हैं.
द) उत्तरपूर्वी पठार- यह पठार कांडागाँव और जगदलपुर में फैला है. पठार का ढाल तीव्र है.
ई) दक्षिण का पहाडी क्षेत्र- इसके अंतर्गत दंतेवाडा, बीजापुर, व कोंटा के उत्तरी क्षेत्र आते हैं.
फ) दक्षिणी निम्न भूमि- इसके अंतर्गत कोंटा क्षेत्र का संपूर्ण भाग तथा बीजापुर क्षेत्र का दक्षिणी भाग आता है.
भूगोल एक लम्बे कालखण्ड तक अपरिवर्तनशील रहता है जब तक कि बडे भू-वैज्ञानिक बदलाव न हों. अतः बस्तर क्षेत्र के वर्तमान भूगोल को ही प्राचीन पुस्तकों में शब्दशः चित्रित पाया जा सकता है कि यहाँ की मनोरम हरित वसना धरती पहाड़ों, पठारों और मैदानों में विभाजित है. दंतेवाड़ा की तराइयों, बीजापुर की उँचाईयों और केशकाल घाटी की खाईयों ने बस्तर को विविधता, विचित्रता और उन्मुक्तता दी है तो रहस्य और रोमांच भी. यहाँ खुले मैदान और सघन वन; उर्वरा खेत और बंजर पथरीली भूमि; नदियाँ, झरने, ताल-तालाब तो सूखे फटे पानी-पानी चीखते टीले-टपरे; बेहिसाब गर्मी से बिबाईयां होते मैदान तो महीनों तक जम कर बरसने वाली बरसातें जैसी स्पष्ट विविधतायें विद्यमान हैं.
इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल ने पुरा-भूगोल पर अपनी पैनी दृष्टि डाली है तथा उन्होंने बस्तर की अनेक पर्वत श्रंखलाओं का सम्बन्ध प्राचीन गं्रथों में प्राप्त विवरणों के आधार पर बस्तर क्षेत्र से स्थापित किया है. उनके विवरणों का ही संक्षेपीकरण अन्य विद्वानों के विचारों की सहमतियों से मिलाते हुए प्रस्तुत कर रहा हूँ. पं. सुन्दरलाल त्रिपाठी, पं केदारनाथ ठाकुर, महाराजा प्रवीर, लाला जगदलपुरी, प्रो. वर्लयानी, प्रो. साहसी तथा डॉ. हीरालाल शुक्ल के विवरणों को जोड़ कर यह तस्वीर मिलती है कि प्राचीन बस्तर की उत्तरपूर्वी सीमा है शुक्तिमान/शुक्तिमत पर्वत {कनिंघम; आर्कियोलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट, गपपप, 24-26}. शुक्तिमान पर्वत वस्तुतः बस्तर को शेष छतीसगढ से पृथक करने वाली सिहावा तथा कांकेर के दक्षिण में स्थित पहाडियाँ हैं. शुक्तिमत पर्वत दण्डकारण्य की उत्तरपूर्वी सीमा है जो पूर्व में ओडीशा में अवस्थित महेन्द्र पर्वत से मिल जाती है. आधुनिक बस्तर की मातला दोंगरी, रावघाट, तेलिनघाटी तथा सिहावा पहाड़ की शाखाओं को प्राचीन शुक्तिमान पर्वत माना जा सकता है जो उत्तर बस्तर को घेरे हुए है, इस शाखा की प्रमुख प्रशाखा परलकोट, परलकोट-परतापपुर-कोईलीबेडा-अंतागढ-कांकेर-सिहावा तक फैली हुई है. रामायण में उत्तरपूर्वी पर्वत श्रृंखलाओं के अंतर्गत चित्रकोट एवं अयोमुख पर्वतों का उल्लेख मिलता है. इन्हें वर्तमान के साथ निम्न तरह से समझा जा सकता है- अ) चित्रकूट पर्वतः- रामायण के अयोध्याकाण्ड के अनुसार चित्रकोट को शालवनों से घिरा हुआ माना गया है. ब) अयोमुख पर्वतः- इस पर्वत की ओर सीतांवेशण के लिये सुग्रीव ने अंगद को भेजा था. संस्कृत में अयस का अर्थ हैं लोहा तथा अयोमुख ऐसा पर्वत प्रतीत होता है जिसके मुख में लोहा हो. गोंडी में मेटा का अर्थ पर्वत है तथा लोहे के लिये कच्च या कच्चा प्रयोग में आता है. इस आधार पर पश्चिमोत्तर बस्तर में (रावघाट तथा अबूझमाड से संलग्न क्षेत्रों में) कई पहाडियाँ कच्चामेटा के नाम से जानी गयी हैं. मध्यवर्ती पर्वत श्रृंखलाओं के लिये विशेष रूप से प्रस्त्रवण पर्वत का उल्लेख मिलता है. प्रस्त्रवण को आधुनिक बस्तर से आन्ध्र के खम्मम तक विस्तृत माना जा सकता है. बस्तर की बैलाडिला पर्वत श्रृंखला, विनता, टिकनपल्ली, अरनपुर, गोलापल्ली, किलेपल्ली, गोगोण्डा तथा उसूर की पहाडियों के लिये प्रस्त्रवण प्रयुक्त होता है.
बस्तर क्षेत्र की पूर्ववर्ती पर्वत श्रृंखलाओं का सीधा सम्बन्ध महेन्द्र पर्वन से स्थापित होता है. महेन्द्र पर्वत वर्तमान ओडिशा में महानदी के दक्षिण में गंजाम जिले व उसके पार्श्व में व्याप्त है. समुद्र तल से इसकी उँचाई 5000 फीट है. बस्तर से महेन्द्र पर्वत का सम्बन्ध जोड़ने वाली श्रृंखलायें हैं- अ) माल्यवान पर्वतः- माल्यवान को प्रस्त्रवण पर्वत के एक शिखर के रूप में निरूपित किया गया है. बस्तर में तुलसी डोंगरी पहाड़ी माल्यवान कही जा सकती है। ब) क्रौंचगिरीः- यह पहाडी कोरापुट जिले में अवस्थित है तथा शबरी नदी इससे लग कर प्रवाहित होती है. रामायण के अरण्य काण्ड में उल्लेख “क्रौंचारण्यमतिक्रम्य मतंगस्याश्रमंतरे” के अनुरूप यहीं पर मतंग मुनि का आश्रम होना माना जा सकता है. स) ऋष्यमूक पर्वतः- रामायण में उल्लेखित विवरणों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किन्धा राज्य के बीच बहुत दूरी नहीं थी एवं मलय पर्वत भी निकट ही था. इस आधार पर इसकी उपस्थिति शबरी नदी के निकट ओडिशा में ही सिद्ध होती है. इसी क्षेत्र में बाली-सुग्रीव नाम के एक पर्वत की उपस्थिति है जिससे लग कर गोदावरी के तट पर उत्तर की ओर किष्किन्धा पर्वत है. यही ऋष्यमूक पर्वत है जिसका विस्तार कालाहाण्डी से कोरापुट तक व्याप्त है.
दक्षिणवर्ती पर्वत श्रृंखलाओं की बस्तर में स्थिति को जानने के लिय मलय पर्वत के विस्तार को समझना आवश्यक है. मलय पर्वत वर्तमान पूर्वीघाट पर्वत श्रृंखलाओं के लिये प्रयोग में आता है. लगभग 2000 फीट की उँचाई वाली पर्वत श्रृंखलायें समुद्रतट से समानांतर स्थित हैं. मलय पर्वत श्रृंखला के अंतर्गत ही दक्षिण बस्तर व उससे जुडी आन्ध्रप्रदेश की पहाडियाँ आती हैं. सुकमा की गोलापल्ली (दक्षिण पश्चिम में कोण्टा तक विस्तार), उसूर (कोटपल्ली से भोपालपट्टनम), बरहा डोंगरी (दंतेवाडा तथा बीजापुर के मार्ग में) जिसकी एक शाखा दक्षिणोन्मुख हो कर चिंतलनार, फोतकेल तथा कोण्टा को घेरे हुए है. मलय पर्वत की उप-शाखायें हैं. इसकी एक अन्य उप-शाखा बीजापुर से होती हुई उसूर की पहाडियों से मिल कर भोपालपट्टनम की ओर चली गयी हैं. प्राचीन बस्तर के इतिहास में इसी श्रृंखला के रामगिरि पर्वत का अत्यधिक वर्णन प्राप्त होता है. आन्ध्रप्रदेश के खम्मम जिले के अंतर्गत भद्राचलम तालुका में रामगिरि पर्वत की अवस्थिति मानी जा सकती है जिसका वर्णन कालिदास ने भी मेघदूत में विभिन्न आयामों से किया है.
पश्चिमी घाट से जुड़े पर्वतों को पुराणों में सहय पर्वत माना गया है. गोदावरी नदी को सहयपर्वत से ही निकला बताया गया है. इस अतिविस्तृत पर्वत श्रृंखला की एक उपशाखा कु´वान पर्वत की पहचान बस्तर क्षेत्र में होती है. कु´वान पर्वत पर कबन्ध नामक राक्षस का निवास बताया जाता है. प्राचीन काव्यकृतियों में इसे इन्द्रावती तथा गोदावरी के मध्य का क्षेत्र बताया गया है, इस आधार पर अबूझमाड ही कु´वान प्रतीत होता है. अबूझमाड़ विविध पहाड़ियों के समूह के रूप में परलकोट/कुटरू से प्रारंभ हो कर नारायणपुर तथा छोटे डोंगर तक फैला हुआ है. यह सम्पूर्ण क्षेत्र प्राकृतिक अवरोधों से घिरा हुआ है. अबूझमाड़ क्षेत्र में ही राकसमेटा (राक्षस पर्वत) नाम की कई पहाड़ियाँ हैं. एक छोटी पहाड़ी राक्षस पडेका (राक्षस हड्डी) कही जाती है जिसके पीछे मान्यता है कि यह अस्थियों के ढेर लगने के कारण निर्मित हुई हैं. एक रोचक पहाड़ी कोईलीबेडा के जीमरतराई गाँव के निकट है जिसके पत्थर अस्थियों जैसे गुणधर्म रखते हैं. इन्हें जलाने पर हड्डियों जैसी गंध आती है.
विभिन्न प्रकार की पर्वत श्रृंखलायें बस्तर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति और भौगोलिक विवधिता के लिये ही नहीं विशिष्ट जैव-विविधताओं के लिये भी जानी जाती हैं. प्रत्येक प्राकृतिक विभाग प्राचीन काल से मानव विकास के आयामों को अपनी परिधियों के भीतर गढ़ता रहा तथा हर परिधि ने अपने आंचल में अनन्य प्रकार की जनजातियों को संरक्षण दिया है. नदियों के विस्तार को समझ कर ही उसके कारण बने भौगोलिक क्षेत्रों और उत्पन्न हुई विविधताओं को समझा जा सकता है. विश्वेसर पाण्डेय के ग्रंथ मन्दार मंजरी (वाराणसी, 1955) में वर्गीकरण मिलता है कि रामायण और परवर्ती साहित्य के आधार पर दण्डकारण्य क्षेत्र प्राचीन काल से ही दो प्राकृतिक भागों में बँटा था तथा इन्द्रावती नदी इसको विभाजित करने का कार्य करती थी. इस आधार पर उत्तरी भाग को शुक्तिमत क्षेत्र तथा दक्षिणी भाग को सप्तगोदावरी क्षेत्र या गौतमी प्रदेश कहा गया है. बस्तर क्षेत्र की नदी-प्रणालियाँ दो वृहत सरिताओं का जलागम क्षेत्र निर्मित करती हैं. ये नदियाँ हैं महानदी तथा गोदावरी.
महानदी ओडिशा की सबसे विशाल नदी है जो प्राचीन बस्तर के सिहावा की पहाडियों से निकलती है. यह सिहावा से प्रवाहित हो कर कांकेर जिले की ओर बढती है तत्पश्चात बिलासपुर तथा रायगढ होते हुए सम्बलपुर (ओडिशा) में प्रवेश करती है. यहाँ से दक्षिण-पूर्व दिशा में प्रवाहित होती हुई महानदी कटक शहर से गुजर कर बंगाल की खाडी में विसर्जित होती हैं. बस्तर के उत्तर पूर्व में केशकाल के निकट तेलिनघाटी की पहाडियों से उत्तर की ओर प्रवाहित होने वाली कुछ नदियाँ महानदी सरितप्रणाली के अंतर्गत आती हैं एवं उसके जलागमक्षेत्र का हिस्सा हैं. इनमें सेन्दर, चिनार, दूध, हतकुल, टूरी, तेन्दुला (इसपर तेन्दुला बांध भी बना हुआ है), कांकेर तथा तेलनदी प्रमुख हैं.
गोदावरी नदी का जलागम बस्तर की धरती का बहुत वृहत क्षेत्र है. बस्तर तथा आन्ध्रप्रदेश से गुजरते हुए गोदावरी के प्रवाह मेंं दस सहायक नदियाँ बायीं ओर से तथा ग्यारह दाहिनी ओर से मिलती हैं. पूर्णा, कदम, प्राणहिता तथा इन्द्रावती बायीं ओर की महत्वपूर्ण नदियाँ हैं जबकि दायीं ओर की नदियों में मंजरी, सिन्दकना, मनेर और किनरसिनी हैं. प्राचीनकाल में (1320 तक) गोदावरी बस्तर की दक्षिणपूर्वी सीमा बनाने का कार्य करती थी. अब बस्तर के अनेक क्षेत्रों के महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश व ओडिशा में चले जाने के कारण गोदावरी अब बस्तर के मात्र दस मील क्षेत्र में ही प्रवाहमान है व भद्रकाली के निकट बस्तर की सीमा बनाती है. बस्तर स्थित गोदावरी की सहायक नदियों में इन्द्रावती, शबरी, तालपियर, गुब्बेक, उसूर प्रमुख हैं.
इन्द्रावती और उसकी सहायक नदियों पर चर्चा इसलिये भी आवश्यक है कि यही बस्तर की प्रमुख नदी प्रणाली है जो संभाग के मध्यभाग से प्रवाहित होती है. रामायण में वर्णित मंदाकिनी नदी वर्तमान इन्द्रावती ही है. यह बस्तर क्षेत्र की 240 मील की यात्रा कर इसे दो भागों में विभक्त कर देती है. इन्द्रावती ओडिशा प्रांत के कालाहांडी के पास रामपुर घुमल नामक स्थान से उत्पन्न होती है जहाँ से तीस मील तक दक्षिण-पश्चिमोन्मुख होती हुई कालाहण्डी व कोरापुट जिले की परिधियों से होते हुए बस्तर की सीमा में प्रवेश करती है. इन्द्रावती नदी ही जगदलपुर के निकट चित्रकोट जलप्रपात का निर्माण करती है. चित्रकोट के निकट ही नारंगी नदी इन्द्रावती से मिलती है तथा लगभग दस मील और आगे चलने पर भँवरडिंग नदी आ कर मिल जाती है. यहाँ से आगे बढ़ते ही इन्द्रावती नदी अबूझमाड की दक्षिणी सीमा बन जाती है तथा भोपालपट्टनम के निकट आ कर गोदावरी से मिल जाती है. इन्द्रावती नदी के किनारे जगदलपुर, चित्रकोट, बारसूर तथा तिम्मेड़ एतिहासिक स्थान हैं. इन्द्रावती नदी की अनेकों सहायक नदियाँ हैं जिनमें कांगेर, काकडीघाट, केंदा, कोतरी, कोमरा, कोयर, खण्डी, गुडरा, गोंईन्देर, चारगाँव, चिंतावागु, डंकिनी, दंतेवाडा, दहकोंगा, दुर्ग, नारंगी, बेरूडी, गुरियाबहार, बोरोदा, भँवरडिंग, माड़िन, माडी, मातलघाट, मान्देर, माकडी, रायकेरा, रावघाट, वड़ी, वालेर, संकिनी, ताडुकी, तथा सिंगार बहार.
शबरी नदी कोरापुट की सिंगारम नामक पहाड़ी से निकलती है तथा सर्पिल गति से उत्तरपश्चिम में प्रवाहित हो कर कोरापुट के दक्षिण में पाँच मील की दूरी पर आगे बढ़ जाती है एवं प्राचीन जयपोर राज्य की सीमा में प्रवेश करती है. यहाँ से दक्षिणोन्मुख हो कर यह कोरापुट व बस्तर की सीमा का निर्धारण करती है. पुनः पश्चिम की ओर मुड़ कर तुलसाडांगरी से होते हुए शबरी नदी बस्तर में बहने लगती है. सुकमा में कुछ दूर बहने की पश्चात् शबरी सुकमा तथा मालकागिरि एवं कोण्टा तथा मालकागिरि के बीच की सीमारेखा बनती हुई प्रवाहित होती है. आगे यह भद्राचलम होते हुए गोदावरी नदी में समाहित हो कर अपनी यात्रा समाप्त करती है. शबरी नदी दोर्ला क्षेत्र की पूर्वी सीमा निर्धारण का कार्य भी करती है. इसके प्रांत भाग मे ंदर्जनों दोर्ला बस्तियाँ है; पथा पेंटा, आरगट्टा, मनीकोंटा, बिरला, एर्राबोर, मूलाकिसोली, जगारम, मेट्टागुडा, नँजमगुडा, आसिरगुडा, इंजरम आदि. दक्षिण में शबरी नदी के तटवर्ती क्षेत्र कोण्टा तक दोर्ला जनजाति मिलती है व ढांढरा इनका सबसे बड़ा गाँव है. शबरी की प्रमुख सहायिकाओं में पोट्टेरू नदी मलकांगिरि (कोरापुट) में बालीमेरा के पास शबरी से मिलती है; कांगेर नदी टाँगरी डोंगरी से निकल कर अपने उत्तरपूर्व में शबरी से मिलती है जहाँ से यह नदी मलकांगिरि में प्रवेश कर पुनः बस्तर की ओर लौटती है. मालेंगर नदी बैलाडिला की दक्षिणी श्रेणियों से निकल कर सुकमा और दुब्बाटोटा के बीच शबरी से मिलती है. तीरथगढ के निकट मालेंगर नदी 150 फुट की ऊँचाई से गिर कर तन्नामक प्रताप बनाती है. सिलेरू नदी कोण्टा के नीचे शबरी से आ मिलती है. शबरी नदी के तट पर गुप्तेश्वर, तिलवर्ती, सुकमा, मिस्सा, ढोंढरा व कोण्टा आदि एतिहासिक गाँव हैं.
कालिदास के रघुवंश तथा भवभूति के उत्तररामचरित में मुरला नदी का उल्लेख मिलता है जिसको महर्षि अगस्त्य के आश्रम के निकट से हो कर बहना बताया जाता है. इस आधार को बस्तर की तीसरी प्रमुख नदी तालपेरू या तालपियर के साथ जोड कर देखा जाता है. अपने ग्रंथ बस्तर भूषण (1908) में वर्णन करते हुए पं केदारनाथ ठाकुर लिखते हैं कि तालपियर बैलाडिला पहाड़ की नंदराज गुहा से निकली है; यह नदी बीजापुर, फोतकेल, कोतापाल होती हुई गोदावरी में समाहित हो जाती है. इसके अलावा टिकनपल्ली-गोलापल्ली की पहाड़ियों से निकलने वाली गुब्बेल नदी कोतापल्ली के नीचे गोदावरी नदी से मिलती है. यह बस्तर के दक्षिणी निम्नभूमि के पश्चिमी भाग को सींचती है. उसूर से निकलने वाली उसूर नदी वारंगल तथा बस्तर की सीमा पर गोदावरी से मिलती है.
वर्तमान बस्तर और प्राचीन बस्तर की भौगोलिक पहचान को निरूपित करते ही प्राचीन बस्तर का इतिहास साकार हो उठता है. इसी ज्ञात भूगोल के आधार पर ही बस्तर क्षेत्र का प्राचीन गौरव निरूपित होता है एवं प्राचीन काल में इस की सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों पर एक समझ विकसित होती है. भूगोल और वर्तमान जनजातियों का अंतर्सम्बन्ध, भूगोल तथा पुरा-ग्रंथों में वर्णित जनजातियों की उपस्थिति के स्थल तथा वर्तमान से साम्यतायें एक अलग विश्लेषण का विषय है जिसपर मैं अगले आलेखों में चर्चा करूंगा. इस आलेख के उपसंहार के लिये मुझे लाला जगदलपुरी के उस यात्रावृतांत से बेहतर कुछ नहीं मिलता जहाँ वे इन्द्रावती नदी के गोदावरी में सामहित हो जाने का वर्णन इन शब्दों में करते हैं- “एक छोर से दूसरे छोर तक पत्थरों का सिलसिला कुछ ऐसा चला गया है जैसे कि विभिन्न आकार, प्रकार की पाषाण-मूर्तियाँ वहाँ स्थापित कर दी गयी हों. पानी के हाथों तराशी गयी इन आकृतियों में आप अपनी मनचाही आकृति तलाश कीजिये, अवश्य मिलेगी. रेत पर कुछ दूर चलने के बाद संगम की दुरंगी धाराओं ने हमें मुग्ध कर दिया. नीली और गेरूई धाराओं ने अपने में समोये रखा, थकान मिटा दी. मानना पडेगा कि इस संगम में गोदावरी को समर्पित हो कर भी इन्द्रावती अपनी पहचान नहीं खोती. उसके पानी का गेहुँआ रंग स्पष्ट दिखाई देता था. इन्द्रावती का गेहुँआ पानी कुछ गर्म लगता था, किंतु गोदावरी का नीला जल काफी ठंडा मालूम होता था… इंद्रावती-गोदावरी मिलाप. इधर पहाड़ियाँ, उधर पहाडियाँ बीच में संगम का बहता दुरंगा पानी. नीला जल, गेरूआ जल. आन्ध्र, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की सीमा-रेखायें.”
बस्तर भूमि की पहचान शास्वत है तथा बनी रहनी चाहिये. इसीलिये ‘बस्तर के भूगोल‘ को ‘बस्तर के वर्तमान‘ पर अपनी समझ विकसित करने से पहले जानना आवश्यक है. बस्तर की पहचान उसके पर्वत, उसकी मिट्टी, उसकी सरितायें और उसके वनवासी हैं. लाला जगदलपुरी जैसे बस्तरियों नें इस भूमि को बूझने के लिये जीवन लगा दिया और बूझा भी क्या खूब कि उनकी ही एक पंक्ति से समझिये- “मैं इन्द्रावती नदी के बूँद-बूँद को/ अपने दृगजल की भाँति जानता आया हूँ.” हाँ यही बस्तर की धरती को जानने का वास्तविक सूत्र है.


राजीव रंजन प्रसाद
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