रचनाकारों से

हर व्यक्ति रचनात्मक होता है- शिक्षित या अशिक्षित कोई भी. जैसे धरती का हर कोना अपने गर्भ में निर्मल सोता छिपाकर रखती है वैसे ही मनुष्य के भीतर रचनात्मक संभावना छिपी होती हैं. कला या रचना मनुष्य के अस्तित्व से जुड़ी चीज़ है- खाना, पहनना, चलना, बातें करना- ये सब सुन्दर अभिव्यक्ति के रूप ही तो हैं. हाँ, शब्दों से रचना करने की कुछ अनिवार्य शर्तें हैं, शिक्षा, शब्दों का ज्ञान इत्यादि. (क्या कबीर डिग्रीधारी थे ?) वह कौन सी अनिवार्य शर्त हैं जो एक व्यक्ति को रचनाकार बनाती है – ज्ञान, व्याकरण सम्मत भाषा, भाव, प्रेरणा, सौंदर्य अभिरूचि, सम्मान की कामना या सभी ? संभवतः उन सभी या अन्य अनेक कारक मिलकर किसी व्यक्ति को रचनारत रहने की प्रेरणा दें. पर, मुझे लगता है, खासकर प्रारंभिक रचनाकारों के लिए सभी बातें कमोबेश प्रेरक हो सकते हैं, फिर भी यदि अभिव्यक्ति का साहस न हो तो व्यक्ति रचना हेतु प्रेरित नहीं हो पाता. अर्थात् साहस को मैं सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व मानता हूँ. किसी भी विद्या मंे काम करने या शुरूआत करने में इसकी अहम् भूमिका उल्लेखनीय है. ज्यादातर लोग जीवन में कलम-कागज या उन साधनों को उठा ही नहीं पाते जिनमें उनकी रूचि हैं- उनका उस विद्या मंे गहरा लगाव है. वे सोचते हैं यह बहुत ऊपर या बहुत दूर की चीज हैं जो उनके वश में नहीं है. यह संकोच भाव या कहें साहस का अभाव उन्हें अपनी ही क्षमता के दरवाजें पर तक नहीं पहुंचने देती. गहराई से देखा जाए तो ही व्यक्ति रचनात्मक अथवा कलाकार होता है. वह सुखी सम्पन्न है. मगर अनअभिव्यक्त है. अपने भीतर के सोते से वाकिफ नहीं.
‘बस्तर पाति’ यह चाहती है कि इसके पाठक कलम उठाएं. कागज पर लिख डालें. आखिर क्या क्षति होगी कुछ समय, श्रम और कागज! पता नहीं आपके भीतर क्या चीज दबी छिपी है. उस स्रोत तक कौन पहुंचेगा- सिर्फ आप हैं! इस संसार में सिर्फ आप ही हैं जो स्वयं तक पहुंच सकते हैं. स्वयं को प्रकट कर सकते हैं.
ज्यादातर लोगों को लगता है कि उनके पास ऐसा क्या है कि वे प्रकाशित हों, दुनिया के समक्ष प्रकट हों. कोई बहुत बड़ी बात उनके पास हो- ऐसा भ्रम बनता हैं. जबकि उनके जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातें, उनका अपना परिवेश, संस्कार ही इतना महत्वपूर्ण होता है कि वे किसी रचना की कच्ची सामग्री बन सकते हैं. उदाहरण के लिए केरल में बैठा कोई व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक विविधता, जलवायु, लोगों की सोच-समस्या पर अगर लिखता है तो वह देश के अन्य हिस्से के लिए कौतुक का विषय हो सकता है. यही बात कश्मीर के रचनाकारों तथा बस्तर के रचनाकार पर भी लागू होती है. बस्तर का इतिहास संस्कृति, तो स्वयं में जुगुप्सा जगाने वाला है.
यह पत्रिका लेखकों, ज्ञानियों की नहीं, पाठकों की है. हर लेखक पहले पाठक होता हैं- इस अनिवार्य शर्त को स्वीकार करते हुए हमें यह कहना अनुचित नहीं लग रहा है कि पाठक ही इस पत्रिका का संचालन करेंगे, पाठक ही इस पत्रिका के लिए लिखेंगे. यह पत्रिका पाठकों की पत्रिका है.
अतः थोड़ा साहसी बने और अपनी अनगढ़, अशुद्ध रचनाएं हमें निःसंकोच भेजे. यह अजीब लगने वाली बात हैं मगर आपके साथ-साथ हम भी साहसी, दुःसाहसी बनने को तैयार हैं. हम पुराने और मंजे लेखकों के साथ-साथ आप नये रचनाकारों को प्रमुखता से प्रकाशित करना चाहेंगे. चाहे वह कथा, गैरकथात्मक साहित्य, कविता, महाकविता, आलेख, संस्मरण, डायरी, इत्यादि किसी विद्या में हो- हम उनका स्वागत करते हंै. रचनाएं छोटी हो सकती हैं पर बहुत लम्बी न हों. स्वच्छ हस्तलिखित या बेहतर ईमेल से रचनाएं प्रेषित करें.