प्रवेशांक-बहस-कथा में तकनीक – एक

कथाकार कहानियों में जान डालने के लिए तकनीक का इस्तेमाल करता हैं. यह बात सामान्य साहित्य से लेकर उत्तर-उत्तर आधुनिक समय की कथाओं तक में सामान्य है. साहित्य ही क्यों, तमाम रचनात्मक और उत्पादन से जुड़े क्षेत्र में मनुष्य तकनीक से घिरा हैं. वो एक तकनीक ही थी जो दो पत्थरों को घिसकर मनुष्य ने आग पैदा की, या पहिए का आविष्कार किया.
पर कथा संसार में, या अन्य कला क्षेत्रों में तकनीक कहां तक मनुष्य का हितैषी हो सकती है. प्रश्न विचार करने योग्य हैं. कला क्षेत्र ही क्यों, हर क्षेत्र विचारणीय है. क्या आधुनिक तकनीक ने मनुष्य के हाथ-पांव को निष्क्रिय नहीं किया ? उसने उत्पादकता बढ़ाया पर कई लोगों का श्रम छीनकर- उन्हें बेरोजगार बनाकर! इसका सीधा सा अर्थ हैं – चाहे कला-साहित्य हो या सामाजिक- आर्थिक मसला, पर्याप्त तकनीक के प्रयोग और हमारी जरूरतों के बीच संतुलन आवश्यक है.
कला क्षेत्र में तकनीक किस हद तक अपना दखल बढ़ाती जा रही है – इसे हम बड़ी आसानी से देख सकते है. फिल्म, संगीत, नृत्य में ये प्रथम दृष्टया ही चिन्हित हो जाते हैं.
क्या इसने हमारी रूचि को और अधिक परिष्कृत और सुसंस्कृत करने में हमारी मदद की हैं ? हां और नहीं भी. ये दोधारी तलवार हैं – असावधानी होने पर स्वयं को जख्मी कर सकती हैं.
निश्चित रूप से तकनीक का इस्तेमाल खतरनाक है औरा कुशलता की मांग करता हैं.
अफसोस कि भारत के सामाजिक, आर्थिक सन्दर्भों में तकनीक का प्रयोग नहीं हुआ है, बल्कि हमने वे तकनीक आयात किये जो पश्चिम में सफल थे, वे वहां की जरूरत थी. उसे हमने यहां भी बिना सोचे लागू किया.
आधुनिक साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा उपन्यास एवं शार्टस्टोरी भी पश्चिम से हमारे यहां प्रवेश पाती है, प्रेमचंद जैसे कुशल कथाकार इस ‘टेकनीक’ का अपने भारतीय परिवेश में सुन्दर प्रयोग करते हैं. आज हमारी यह कहानी विधा कहां-थी कहां पहुंच गयी! कहने की जरूरत नहीं कि हम आज भी कुछ नये के लिए उन्हीं का द्वार खटखटाते हैं. पश्चिम का द्वार! लेकिन जब उनके यहां लोहे की क्रांति होती है तब हमारे यहां कृषि युग मंे हरित क्रांति चल रही होती है, जब वहां कम्प्यूटर क्रांति आती है हम प्लास्टिक युग में जी रहे होते हैं. जब कोई आंदोलन या धारा पश्चिम में नकारा हो जाता हैं वह हमारे यहां ‘शो पीस’ बन जाता हैं. तब-तक पश्चिम में कोई एक नयी विधा का जन्म हो जाता है और हम बगुला ध्यान से उन पर नज़र टिकाएं होते हैं.
शारीरिक गुलामी से व्यक्ति तत्काल मुक्त हो जाता हैं, पर आत्मिक या मानसिक दासता से मुक्त होना और अपनी एक स्वतंत्र सोच होना सरल नहीं.
रही बात तकनीक और मनुष्य के रिश्ते की, कि यह कैसे हो, कितनी हो, तो इस विषय में इतना कहना पर्याप्त होगा कि तकनीक मनुष्य के लिए हैं, मनुष्य तकनीक के लिए नहीं! वह हमारी जब तक सहायता करता हैं, उसका स्वागत है! न जाने कब वो हम पर शासन करना प्रारंभ कर दें और हमें -अर्थात् मानवीयता खा जाए- अतः पर्याप्त सर्तकता आवश्यक है.
क्या आज की कहानी में तकनीक (शिल्प ?) ने कहानी के तत्वों को ही खारिज नहीं कर दिया हैं ?
इस सवाल से हम बच नहीं सकते. हम पूरब और पश्चिम का विवाद छोड़ दें तो भी यह कहना अनुचित न होगा कि आधुनिक साहित्य तकनीकी मार से बोझिल हो चला है. उसने हमारे भीतर की आदिम और सरल वृतियों को अनदेखा किया हैं.
आधुनिक और उत्तर-आधुनिक कथा टेकनीक पर यहां चर्चा मेरी दिलचस्पी में नहीं है. मैं सिर्फ अपनी पौराणिक कथाओं, मिथक कथाओं, परी या वेताल या जानवर कथाओं, जिन्हें मैं सम्मिलित रूप से लोककथा ही कहना पसंद करूंगा, क्योंकि भले ही कुछ साहित्य (महाभारत और रामायण) को हम क्लासिकल मानते हैं- पर मूल में उनका चरित्र लोकथात्मक ही है. कथा कहने के सारे ‘टूल्स’ एवं ‘टेकनीक’ परम्परा से चली आ रही लोककथाओं जैसी ही है. सिर्फ महाकवियों ने संस्कृत भाषा का प्रयोग किया है. जो निश्चित ही एक आम भाषा नहीं थी. गहराई से विचार करने पर कि कथा क्या है- पर सर्वप्रथम और अंतिम रूप से भी एक बात पर दृष्टि जाती हैं कि-आगे क्या होगा ? अर्थात् कहानी में आगे क्या होगा- का भाव जो पाठक के मन में रोमांच जगाता है- हमें थ्रील करता हैं – स्पंदित करता हैं और चरित्र, परिवेश के साथ कथा में हमें बहा ले जाता है.
किसी कथा में, संभव हो बहुत गहरे मानवीय स्पर्श न हों, बौद्धिक विमर्श न हों, आत्मा का द्वन्द न हो तो भी थ्रीलर के सफल प्रयोग से पाठक कथा पढ़ने को बाध्य हो जाता हैं, और यह बड़ी सफलता हैं.
संभव है इस वक्त आपको पच्चीस लोककथाएं याद हों और आप किसी एक कथा को उठाकर देख लीजिए, उसमें कथा के मुख्य का पात्र का भविष्य अनजान हैं – रोमांच रहस्य बरकरार रहता है – और कथा आगे बढ़ती रहती है. रहस्य खुलते ही कथा का अंत हो जाता हैं.
कथा या कहानी कहने से प्रतीत होता है बस यही और सिर्फ यही वो तत्व हैं जो कहानी को कहानी बनाती है. और बाकी सारी बातें गौण हो जाती है. और हो भी क्यों नहीं, हमारे जीवन में ‘समय’ नाम का तत्व हैं जिसे हम कभी ईश्वर, कभी भाग्य, कभी ‘डेस्टिनी’ कहकर सम्बोधित करते हैं. यह कितना अनिश्चित है. अज्ञात है. रहस्यमयी है. यहां थ्रील है, एडवेंचर है, भय है, और क्या नहीं है…… ! यह जीवन का मूल है और यही ‘मूल’ हमारी लोक / पौराणिक / मिथक कथाओं में भी हैं. सीधा कहना चाहूंगा कि हमारी कथाएं जीवन के इसी मूल स्त्रोत से निकली हैं.
आज दुनिया की तमाम भाषाएं घटते पाठकांे का रोना रोती हैं- सच भी है, बढ़ते तकनीकी दखल ने पुस्तक पाठकों की संख्या को गहरे से प्रभावित किया हैं, मगर मेरा विचार यह है कि अव्वल तो मनुष्य कथा-कहानी से ‘दूर’ नहीं हुआ हैं, वह जितना पहले था, आज भी वह उसके उतने ही पास है. बचपन से लेकर बुढ़ापे तक, कथा-सुनने और बुनने की क्रिया चलती रहती है, जाने, अनजाने भी. हां आधुनिक टीवी, वीडियो ने हमारे पाठकों को अपने पास खींच लिया है. चुनौती यह हैं कि किस तरह उन्हें शब्दों की सही ताकत का अंदाजा बताया जाए. हमारी शब्दों की तैयारी सबसे पहले उस लायक हो. हम बड़ी आसानी से कह सकते हैं कि फिल्म, टीवी की दुनिया सरलता से प्राप्त है और लुभावनी हैं, मगर, शब्दों की दुनिया आॅडियों-वीडियो की दुनिया से ज्यादा, बहुत ज्यादा विस्तृत, गहरी हो सकती हैं. सबसे बढ़कर यहां पाठकों को रूकने, ठहरने, गति कम या धीमा करने, बार-बार पढ़ने, कल्पना करने, खो जाने अर्थात् यहां समय और स्पेस पर्याप्त मिलता है जो हमारे टीवी-फिल्मों में संभव नहीं. मनुष्य एक चिंतनशील, कल्पना प्रधान प्राणी है – और कहना न होगा कि उसकी कल्पनाशीलता चिंतन के बहु-आयामी क्षेत्र, शब्दों की दुनिया में ही खुलते हैं.
बात आज की कथाओं पर आती है तो प्रश्न पूछा जा सकता हैं कि क्या आधुनिक कथाएं हमारी जिज्ञासा, हमारे भावों का शमन करने में सक्षम हैं ? निश्चित रूप से इस ओर आधुनिक कथाओं पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगता है. हम आज भी किसी मार्खेज का इंतजार कर रहे हैं जो उत्तर-उत्तर या अति-अति जादुई यथार्थवाद का आंदोलन हमारे लिए तैयार करेगा और हमारे कुछ चंद पुरोधा तत्काल उसे आयात करंेगे और हमारे पाठकों को बताएंगे- इसे पढ़ो ये है साहित्य! साहित्य का मतलब ये होता है, मूर्खों… !
हमारे पाठक इन क्रांतिकारी रचनाओं को एक ‘बुड़बक’ की तरह पढ़ते हैं, जिस पर समीक्षा लिखकर साहित्य के ज्ञानी हिन्दी के महान और क्रांतिकारी आलोचक जन्म लेते हैं.
अति यथार्थवादी या जादुई यथार्थवादियों का अर्थ होता है कि आधुनिक जीवन की जटिलताएं विषम हैं, यथार्थ एकरेखीय नहीं रह गयी हैं और सत्य या यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए उस जीवन के जटिल तत्वों को उसी रूप में बाहर लाना होगा, जैसा कि वे हमारी जिन्दगी में हैं. सच है, हर कला जीवन की प्रतिकृति है, या जीवन की प्रतिकृति होने की जगह यह अनुकृति मात्र बनती जा रही हैं ? या ऐसा करने में यह विधा मनुष्य की भावनाओं का शमन कर पा रहा हैं ? वे अधिकतर हमारे मस्तिष्क के दायरे में बंधकर रह जाती हंैं, जबकि मनुष्य चाहे वह कहीं का भी हो, एक भावनाप्रधान प्राणी होता हैं. मनुष्य इसीलिए मनुष्य था तभी एक मानव बना रह सकता है जब तक कि वहां एक भावधारा प्रवाहित है, अन्यथा वह एक रोबोट है. अब आप स्वयं बताएं, वैसी रचनाएं या कलाकृतियां जो मानवीय भावों को छूने में अक्षम है – क्योंकि वे जीवन की सच्चाई से ली गयी हैं- ऐसा इनका दावा है – कब तक पठनीय रह सकती हैं ?
आप यथार्थ के नाम पर जो कहानी टेकनीक आयात करते हंै और उन्हें भी हमारे यहां उसी तरह ‘रोपते’ हैं जैसा कि वे अपनी जन्मभूमि में रोपी गयी होती हैं – भले ही जलवायु और मिट्टी का गुण बेमेल हो. प्रसंगवश मैं थोड़ा ध्यान देना चाहूंगा अपने कुछ मिथिकल चरित्रों की ओर, सबसे पहले देवता शिव जिनका सम्पूर्ण चित्र ही अति-अति यथार्थवादी (सरियलिस्टिक) हैं- गले में सांप, सर पे चन्द्रमा, मस्तक से जलप्रवाहित (गंगा) कमर में बाघ का खाल, सवारी बैल, हाथ में त्रिशूल और डमरू! आप चाहे इन एक-एक प्रतीकों पर खूब विश्लेषण कर लें, चाहे अनेकों अर्थ की व्याख्या कर लें. उसी तरह विष्णु के नाभि से निकला कमल और उससे उत्पन्न ब्रम्हा! हनुमान का अति मानव रूप अधिक और वानर रूप दोनों साथ-साथ चित्रित, गणेश का मंुह हाथी का और शरीर मानव का! इस तरह अति यथार्थवादी या अति मानवीय चरित्र मिथकों और लोककथाओं में जाने कब से कथा रूप में चले आ रहे हैं- वे हमारे इतने पास हैं कि हम उन्हें देख ही नहीं पाते.
इस तरह का अति मानवीय स्वरूप न केवल भौतिक स्तर पर है बल्कि कथा या घटनाआंे के वर्णन मंे भी खूब मिलता है- जैसे सूर्य के अहवाहन से कर्ण का जन्म इन्द्र और वायु और अश्विनी के मानवीय पुत्र-अर्जुन, भीम, नकुल. उसी तरह विक्रम के सिर पर वेताल का सवार होना, वेताल द्वारा विक्रम को कहानी सुनना, एक ऐसी कहानी जिसमें मानवीय रिश्ते की पहचान की जाती हैं, विक्रम द्वारा सबकुछ भूलकर, अर्थात् कहानी में रम जाना और अंत में सटीक उत्तर देना. जातक कथाओं में भी बुद्ध अपने पूर्व जन्मों की कोई न कोई कथा कहते हैं जिनमें जीवन के महान आदर्श या लक्ष्य साधे गये हैं. भीष्म का तीरों की शैय्या पर लेटा रहना इत्यादि ये सभी प्रसंग अति मानवीय, अति यथार्थवादी तत्वों को दर्शाती हैं जिसने मानवीय चेतना को आज-तक प्रबुद्ध किया है और आगे भी करेंगे. मजा ये कि अत्याधुनिक मानव भी इन अविश्वसनीय प्रसंगों पर सवाल नहीं उठाता. यहां इतिहास या तथ्यात्मक बातें मृत हैं, अर्थात् मानव कल्पना, मानव आदर्श, मानव विश्वास की यहां जीत होती हैं, मैं मानवीय कल्पना को नमन करना चाहूंगा क्योंकि साहित्य का कला में जो कुछ सनातन हैं, वह इसी अनंत मानवीय शक्ति के कारण है. कल्पना! कल्पना द्वारा रोपित सच ऐतिहासिक सच से कई गुना ज्यादा सच साबित हुआ है.
पर इन मिथकों में अथाह मानवीय कल्पना द्वारा चित्रित चरित्रों में मानवीय मूल्य भरे पड़े हैं. वे कहीं भी मानवीय अच्छाई या बुराई पर जीत के संघर्ष से दूर नहीं होती. वे हमें बराबर बताते हैं कि मनुष्य एक भावशील, न्यायपसंद, सुसंस्कृत प्राणी है. मानवीय रिश्ते क्या हैं. अर्थात् मानव भावों का शमन, उनका शोध यहां खूब होता हैं.
कहानी मंे टेकनीक कितना प्रभावी हो सकता हैं, कितना जरूरी हैं- कुछ ऐसा ही प्रश्न इस लेख के प्रारंभ में था. संक्षेप में, मुझे यही लगता हैं कि जादुई तकनीक कमाल की तकनीक हैं – पर बात वहीं अटकती है- क्या तकनीक सिर्फ तकनीक के लिए है, या आज भी इसने कथाआंें में हमारे भावों का स्पर्श भी किया है ?