आधार का डर क्यों ?
डर किसको लगता है कभी आपने विचार किया है ? जिसके मन के भीतर चोर हो। ये बात भूत के संबंध में भी सही है। अगर हमें भगवान पर विश्वास है तो फिर भूत पिशाच किस खेत की मूली हैं। पर हमें तो भगवान से ज्यादा भूतों का अस्तित्व मान्य है। इसलिए अंधेरा देखते ही सांसें फूल जाती हैं। पहाड़ और खण्डहर देखकर तो जान ही निकल जाती है।
1-स्कूल में इंट्री है 150 बच्चें की। और उनके लिए राशन भी आ रहा है 150 के हिसाब से। उनके लिए कपड़े पुस्तक कापी भी आ रही हैं। 150 के हिसाब से क्लास रूम में चाक, डस्टर, पेन लेकर लाइब्रेरी में खरीदी हो रही है। उसी के हिसाब से स्कूली मॉडल और केमिकल, फिजिक्स के उपकरण आदि की खरीदी हो रही है। इसी तादात में रिपेयरिंग भी हो रही है। इसमें गलत क्या है ?
सही तो! इसमें गलत क्या है। वास्तव में आप स्कूल गये थे ? क्या आपने देखा कि उतने बच्चे वहां रहते भी हें या नहीं ? अगर वास्तव में बच्चे 80-90 हों तो सोचिए क्या होता होगा? आप तो दिन भर मेहनत करके भी उतना नहीं कमा सकते। हां, एक बात है कि इस बचे हुए धन में सबका हिस्सा होता है। कोई अकेला नहीं खाता। ये ईमानदारी बेइमानी के काम में जरूर होती है। इसके अलावा आप देखिए कि जो बच्चे स्कूल नहीं आये होते हैं उनका खाना तो नहीं बनता होगा फिर वो बचता होगा कि नहीं ?
2-आपके मोहल्ले में चलने वाला आंगनबाड़ी आपने देखा होगा। हमेशा सरकार को इसके लिए दुआ ही दी होगी। इसमें आने वाले बच्चे बेचारे पेट भर लेते हैं। हैं कि नहीं। क्या आपने देखा है कि वहां कितने बच्चे हैं और कितना सामान आता है ? जितने भी बच्चे मुहल्ले में होते हैं सबकी इंट्री वहां होती है भले वो आयें या नहीं। गांव में तो बाकायदा फर्जी ज्यादा होता है। क्या इन आंगनबाड़ियों में रोज बच्चे जाते ही हैं ? बचे हुअे माल का क्या होता है ? यानी बच्चों की संख्या से घपला, नहीं आने बच्चों से घपला, जो बच्चो स्कूल जा रा है उसका नाम भी जोड़कर उसका घपला। हे भगवान।
3-समय समय पर सरकार टीका लगवाती है। उसके लिए बाकायदा बहुत से प्रचार, टेंट, व अन्य खर्चे भी होते हैं। इसके बाद बच्चों को ढूंढ ढूंढकर टीका लगाया जाता है। उन्हीं बच्चों को स्कूल में टीका लगाया जाता है। उन्हीें बच्चों को आंगनबाड़ी में भी। इन सबका कितना बच जाता होगा अंदाजा लगाइये।
अब हम तीनों उदाहरणों को जोड़ते हैं। तीनों में लगभग वही बच्चे हैं।
कौन करता है आधार का विरोध ? किसको होती है बच्चों का आधार बनाने में दिक्कत? इन्हीं फर्जी स्कूली बच्चों का राशन, कपड़ा, पुस्तक कापी पेन हड़पने वालों का। इन्हेीं बच्चों के टीके का पैसा हजम करने वालों का। इन्हीं आंगनबाड़ी के कार्यकर्ताओं का। राशि सोचने में बहुत कम नजर आ रही है जरा जोड़ के देखिए सिर्फ एक स्कूल आंगनबाड़ी का। मान लीजिए 20 बच्चों का घपला है तब।
अब जरा बड़े रूप में देखें। हमारे पास आज तक किसी भी काम का वास्तविक रिकार्ड नहीं था। यदि आंगन बाड़ी में बच्चे हैं और स्कूल में हैं और जिनका टीकाकरण हुआ है सबका हिसाब मिलना तो चाहिए। टोटल जनसंख्या तो बराबर होनी चाहिए। आप देखिए आंगनबाड़ी वाला बतायेगा इस पारा में 30 बच्चे हैं, जन्मप्रमाणप्रत्र जारी होगा 12 बच्चों का। स्कूल में 40 बच्चे। ठीका लगाने वाले लगा आये 150 बच्चों को।
अगर चार महिने के बच्चे का आधार कार्ड बन जाता है तो ये सारे रिकार्ड और हेराफेरी आटोमेटिक हिसाब में आ जायेंगे। एक बच्चे की अगर स्कूल में इंट्री हो गई तो वह आंगनबाड़ी में नहीं आयेगा। टीका लगाने के बाद आधार इंट्री करेंगे तो न जाने कितना विदेशी धन बचेगा। पर कौन अपने पेट पर लात मारेगा। किसी का बच्चा इंजीनियरींग में है तो किसी का पूना में पढ़ रहा है।
हां, मैं कह रहा था बड़ा घोटाला। अब आप सोच के देखिए इन्हीें आंकड़ों के बल पर किसी भी स्कूल की स्थापना होती है और फिर उसमें पदस्थापना होती है। न जाने ऐसे कितने ही फर्जी स्कूल होंगे न तो वहां बच्चे होंगे न ही कुछ उपक्रम और सबकी चांदी ही चांदी। कुछ समय पहले बहुत से स्कूल बंद किये गये थे उसके पहले आधार जमा किया गया था। ऊपर तक जाता है इसलिए सारे चुप थे। स्कूलों के बंद करने का हल्ला मचा फिर सब शांत। बाबू शिक्षक, शिक्षा अधिकारी, बीइओ सीइओ पता नहीं कौन कौन होते हैं, स्कूल शिक्षा मंत्री और फिर छनकर सबसे ऊपर।
आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, अफसर, बाबू, सीइओ, बाल विकास मंत्री और छनकर सबसे ऊपर।
इसके अलावा सप्लायर, फर्जी बिल देने वाला दुकानदार। चोरी का माल खरीदने वाला दुकानदार, आदि।
कई अदृश्य जीवों का भी पेट पलता है।
इतने सारे लोग प्रभावित होंगे तो कैसे आधार बेकार नहीं होगा। सा….ला सबके पेट में लात मारते हो।
एक ठेकेदार तीन विभाग में काम करता है। तीनों विभाग के चेक अलग अलग बैंक में जमा करता है। कुछ को इनकम टैक्स में दिखाता है और कुछ को नहीं। इस प्रकार टैक्स की चोरी करता है। अब आधार के आ जाने से सारे खाते एक साथ दिख जाते हैं। उसको चोरी करने नहीं मिलता। इसलिए आधार बेकार है।
पहले राशन किसी के नाम पर भी इंट्री कर दो और असली व्यक्ति को बोलते रहो कि राशन आया ही नहंी तो कैसे दूं। अब आधार और अंगूठा लगाना जरूरी है। और उस राशन दुकान के सारे रिकार्ड आनलाइन आ गये। इसलिए आधार बेकार है प्रायवेसी खत्म होती है।
गैस सिलेंडर की कहानी तो सभी जानते हैं। न जाने कितने ही दलालों का धंधा बंद हो गया बेचारे सड़क पर आ गये।
अब बैंक में आधार, गाड़ी खरीदने में आधार, जमीन में आधार तो फिर इतनी मेहनत से रिश्वत का पैसा कमाया है उसको क्या दीमक खायेंगे ? हां नहीं तो और क्या। काजू किशमिश खायेगा आदमी, उंची ब्र्रांड का जूता पहनेगा, एक दो जूते की जगह बीस जोड़ी जूता रखेगा, कीमती ब्रांड का बादाम खायेगा। मैं हमेशा सोचता था कि पांच सौ का जूता भी वहीं काम करता है तो फिर लोग पांच हजार वाला जूता क्यों खरीदते हैं ? अब समझ आया कि रिश्वत का पैसा कैसे खर्च करें। धर में रखने में भी खतरा है।
आखिर खून पसीने की कमाई को कैेसे हम बेकार कर दें।
हम न तो रिश्वत छोड़ पाते हैं न बेइमानी का धन। इसलिए विकास चाहिए हमें अमेरीका का और रहना है हमको सूअरबाड़े में। हमारा व्यवहार है इतना घटिया कि मरने वाला मर जाये पर उस बेइमानी के पैसे को भी नहीं दे पाते हैं।
उपरोक्त उदाहरण हर जगह हैं। हर विभाग में हैं। लगभग बहुत से लोग शामिल हैं इसलिए हमें वही अच्छा लगता है जो हमारा शोषण करता है जबकि जानते हैं कि वो गलत कर रहा है। क्या करें हम साफ जगह बैठते ही श्वसन में मुश्किल में पड़ जाते हैं।