पाठकों की चौपाल अंक-25 (जून 20-मई 21)

सम्पादक महोदय
वर्तमान दौर में पत्रिका का प्रकाशन और वितरण बेहद मुश्किल हो चुका है। कोरोना के चलते हर ओर किसी भी वस्तु को छूने से लोग परहेज करने लगे हैं। पत्रिकाओं का वेब संस्करण आवश्यक हो गया है, ऐसा प्रतीत होता है। वैसे भी मोबाइल ने लोगों को पढ़ाकू बनाने के बावजूद, कलम और कागज से दूर कर दिया है।
अपने क्षेत्र के प्रति आपकी जिम्मेदारी को वहन करने की सोच को नमन करता हूं। आप अपने क्षेत्र के साहित्यकारों पर केन्द्रित अंक निरंतर प्रकाशित करते हुये, एक ऐतिहासिक कार्य को अंजाम दे रहे हैं, शायद आपको जानकारी नहीं है। उनकी रचनाओं का संग्रह, उनके विचारों की बानगी और उनके बारे में जानकारियां, ये भविष्य में बेहद अनमोल होगा।
मेरी सलाह है कि आप अपने क्षेत्र के उम्रदराज साहित्यकारों पर केन्द्रित अंक पहले प्रकाशित करें जिससे उनके जीवनकाल में ही उनका सम्मान हो।
मेरी जानकारी में आप एक कहानीकार हैं। सम्पादक बनने की इस आपाधापी में अपने बारे में न भूल जाना। संपादन कार्य और लेखन कार्य दोनों की अपनी एक विशिष्ट पहचान होती है। अपनी पहचान बनाये रखना, कहानी लेखन छोड़ मत देना।
आदरणीय सुरेन्द्र रावल पर केन्द्रित अंक पाकर मन अत्यंत प्रसन्न हुआ। रावल सर ने अपने जीवन में जितनी सेवा साहित्य की करी है, वह अनमोल है। बगैर स्वयं को रेखांकित किये हुये निर्मल भाव से वे लगे रहे। जो उनके सानिध्य में आया, वे उनको एक छायादार वृक्ष की भांति छांव देकर उर्जा भी प्रदान करते रहे। ऐसे साहित्यिक संतों पर निरंतर कार्य होते रहना चाहिये जिससे आने वाली पीढ़ी को समझ आये कि साहित्य का मतलब सिर्फ किसी पत्रिका में प्रकाशित होना नहीं बल्कि स्वयं को प्रकाशित करना होता है, जिससे गुजरने वालों को रास्ता नजर आता रहे। पत्रिका की अन्य सामग्री भी पठनीय है। ’बहस’ काॅलम के माध्यम से साहित्यकारों को साहित्य के बारे में अंतर्निहित सच समझाने का बीड़ा जो उठाया है उसके लिये साधुवाद।
लघुकथाओं का चयन उम्दा है।
’कविता कैसे बदले तेरा रूप’ में दो पंक्तियों से कविता का रूप वास्तव में बदल जाता है। मानों किसी ने जादू कर दिया हो।
’नक्कारखाने की तूती’ काॅलम में हमेशा की तरह नवीन विषय उठाकर अचम्भित कर दिया। वास्तव में हमारे आसपास अनेक ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं जिन पर लिखने का मन होता है, परन्तु समझ नहीं आता कि क्या लिखें, पर आपकी पत्रिका उसे लिख देती है। इन रोज सामाना करने वाली घटनाओं की बखिया उधड़ते देख, मन प्रफुल्लित हो उठता है। अगर हम यूं ही लगातार लिखते रहें तो हो सकता है कि समाज में जरा कुछ भी परिवर्तन आ जाये। हमें अपना लेखकीय कर्तव्य पूर्ण करते रहना चाहिये। उसका प्रतिफल समय देगा ही। बिल्कुल गीता के संदेश की तरह! कर्म किये जा फल की चिन्ता मत कर बंधु।
शेष शुभ और शुभ की कामना रखते हुये।
बी. एन. आर. नायडू, जगदलपुर

आदरणीय सर, सादर चरण स्पर्श
इतना लम्बा चैड़ा पत्र पाकर मैं धन्य हो गया। सर, आपने अपने पत्र में अनेक बिन्दुओं पर बातें कीं। पत्रिका और उसके कंटेट पर भी बात की, तो मेरे लेखन पर भी आपने चिन्ता व्यक्त की।
वास्तव में सर, इस दौर में लेखन एक ऐसी गुफा से निकल रहा है जिसमें अंधेरा कम है, परन्तु लोग ये मान कर आंखें बंद किये चल रहे है कि ये गुफा है इसमें तो अंधेरा होता ही है। इसलिये जो मन चाहे उसे लिख कर, साहित्य का नाम दिया जा रहा है। अपने-अपने छत्रप अपने -अपने लेख! समाज को दिशा देने के साहित्य के स्थान पर खुद को विद्वान साबित करने वाले, बेमकसद के ढोल बजाये जा रहे हैं।
श्रेष्ठ रचनायें मिलती नहीं हैं। रचना मांगते ही वही एजेण्डा रचनाओं का ढेर पटक कर चल देते हैं। और कहते हैं, जब मन करे इसमें से रचनाएं लेते रहना।
दशहरा आते ही रावण की प्रशंसा और राम को आरोपी बनाने का सिलसिला लगातार चल रहा है। तो दुर्गा के लिये अजीब तरह की बातें कही जा रही हैं। यूं, एक तरह का अराजक माहौल बन गया है।
साहित्य का मतलब सनातन में गलती ढूंढना ओर अन्य में अच्छाई ढूंढना, वह भी खुर्दबीन लेकर, हो चुका है। कुण्ठाग्रस्त लेखकों का जमावाड़ा अश्लीलता को वास्तविक लेखन को नाम दे रहा है, तो लेखन में वास्तविक चित्रण के नाम पर गाली गलौच हावी होता जा रहा है।
खैर! सर शायद संक्रमण काल है।
सर, हमारे बस्तर की भूमि साहित्य के मामले में बेहद उर्वर है। परन्तु दूरस्थ और सुविधाविहिन क्षेत्र होने के कारण, यहां के लेखन प्रायः लाइम लाइट से ओझल रहते हैं जबकि सुविधायुक्त क्षेत्र के लेखकों के लेखन के मामले में, इनका लेखन बीस बल्कि बाइस ठहरता है। अपने प्रयासों के तहत अगर कोई आगे पहुंच भी जाता है तो उसे मेंढ़कों की गति से गुजरना पड़ जाता है।
हमारे क्षेत्र का लेखन सौ प्रतिशत मौलिक होता है। नवीन होता है और नवीन बिम्बों से सजा होता है। अगर हम सब यूं ही लगातार हमारे क्षेत्र के साहित्य को सामने लाने का प्रयास करते रहें, तो हमारा बस्तर साहित्य के एक बड़े केन्द्र के रूप में उभर सकता है।
सर, बस्तर पाति के माध्यम से साहित्य में नवीनता और साहित्य के वास्तविक महत्व, मतलब को समझाने का प्रयास किया जाता है। इसका फायदा धीरे-धीरे हो रहा है। हम अपना प्रयास जारी रखे हैं। फोन में अनेक लेखकों ने संपर्क किया है और बताया है इस बारे में। पत्रिका की सामग्री में मौलिकता की तारीफ भी की जाती है। कमियों पर भी चर्चा होती है।
हम दृढ़ प्रतिज्ञ हैं कि जब भी पत्रिका का अंक प्रकाशित होता है तो उसमें हमारे बस्तर के लेखकों को प्रकाशित किया ही जायेगा। हमारे यहां के लेखकों के विचार देश भर में प्रचारित किये ही जायेंगे।
’नक्कारखाने की तूती’ एक ऐसा स्तम्भ है जिसे लोग बड़े आनंद के साथ पढ़ते हैं और उसकी तारीफ भी करते हैं। वैसे ही ’बहस’ स्तम्भ भी एकदम अनोखा है।
सबसे बड़ी बात आप जैसे सुधिजन लेखकों का पत्र मिलना एक प्रमाणपत्र की तरह होता है।

सम्पादक बस्तर पाति