व्यंग्य-भारतीय संस्कारों से घृणा क्यों ?

भारतीय संस्कारों से घृणा क्यों ?

’’एक जन्म तो झेलना मुश्किल है सात जन्मों का कौन झमेला पालेगा।’’ आशा ने अपनी उंगलियों को नचा कर कहा।
’’हां सही तो है। कौन सा तीर मार लेता है आदमी जो उसके लिए वट सावित्री और करवा चौथ का व्रत रखा जाये।’’ सुलेखा अपनी काजल लगी मोटी मोटी आंखों को और चौड़ा कर बोली।
’’आदमी को रखते देखा कभी औरत को व्रत रखते हुए? कि सारा ठेका औरतों ने ही ले रखा है?’’ अचानक क्रोधित होकर श्यामा बोली। ये सब कहते हुए उसके बाबकट बालों में तेजी देखते ही बन रही थी।
’’ये पुरूषों की बनाई परिपाटी है वो औरतों को दबा कर रखना चाहता है इसलि ऐसे घटिया नियमों से हम औरतों को दीन हीन बना रखा है। मैं तो बिल्कुल इन व्रत उपावास ढकोसलों को नहीं मानती।’’ सुलोचना थी अबकी बार।
’’अरे! काजू तो लेकर आओ। यूं ही टाइम पास करती रहोगी क्या? घर पे बुलाया है पार्टी दी है तो बगैर काजू के ये सब ढकेलना मुश्किल है।’’ आशा अपनी उंगलियां नचा कर बोली।
तुरंत पानी और काजू सामने आ गये। पास खड़ी कामवाली ने मानों जादू से सबकुछ कर दिया। सभी ने उसकी ओर प्रसंशक नजरों से देखा।
’’क्यों श्यामा! तुझे चिढ़ नहीं होती है अपने आदमी के लिए समय बेसमय खाना बनाने में?’’
इस सवाल पर एक पल को चुप्पी छा गई। पर तूफान के पहले वाली।
’’मैं और बार बार काम करूं! पागल हो क्या तुम? फ्रिज का आविष्कार जिसने भी किया है वो हम औरतों का बहुत बड़ा मददगार है। उसने ही हम लोगों के लिए ऐसी किटी पार्टी का प्रबंध किया है। उसकी हिम्मत है कि मुझे कुछ आर्डर दे सके। जूतों से रगड़कर रखती हूं।’’
’’वाह तेरे तो जलवे हैं। पर तूने शादी की ही क्यों ? मर्दों को तो यूं ही भूखा मरने देना चाहिए। न तन की भूख पूरी हो न ही पेट की। ये प्रकृति के सबसे गंदे जीव हैं।…..(मनपसंद गाली सोच लीजिए) को तो ऐसे तड़पने देखना बड़ा आनंदित करने वाला होता है। कहते हैं स्त्री आौर पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं। जबकि सारी दुनिया देखती है कि पुरूष एक अलग जीव है और औरत अलग। क्या पुरूष बच्चे जन सकता है या फिर उसकी छाती से दूध निकलता है ? वो तो हम औरतों का अहसान है कि ऐसे जगली जानवर को हम साथ में रखते हैं। वरना कौन रहेगा इन वहशी भेड़ियों के साथ। जब तब तन की भूख उठती रहती है चाहे हमारा मन हो या न हो, हमारी स्थिति हो न हो। जानवर!’’
’’यही तो है हमारी ताकत! इसी के बल पर हम आज दुनिया को जीत सकते हैं। हमारे पीछे तभी तो घूमता है पुरूष कुत्तों की तरह।हम न होते तो न जाने क्या होता इस दुनिया का। इतने पैसे और कौन देता? मेरे पास कौन सी सरकारी नौकरी है जो पैसे कमाती। अभी शादी करके राज कर रही हूं।………..करवा चौथ माय फुट!!’’
वातावरण एक नये अंदाज में बढ़ता जा रहा था। जहां स्वर, हवा से ज्यादा लहरा रहे थे। मन के भावों को शायद इससे ज्यादा स्वतंत्रता पहले कभी मिली हो। तभी सुलेखा बोली।
’’यार! एक बात मुझे आज तक समझ न आई, ये बात अलग है कि मैं तुम्हारे विचारों से पूरा पूरा इत्तेफाक रखती हूं। वो ये बात है कि अगर पुरूष न होता तो हम कैसे पैदा होते….’’
’’तू चुप रह! मुझे मालूम था कि तू इस काजू के अंदर जाते ही ऐसा ही कुछ बकेगी। पुरूष हम औरतों का दुश्मन है समझती क्यों नहीं। एक बार में समझ नहीं आता है क्या तुझे। वो साला दिनभर घर से बाहर घूमकर मजे करता है। और न जाने किस किस लड़की से बातें करता है और हमें बंद कमरे में झोंक दिया है। साला……(मनचाही गाली)। चूल्हे में आंखें फोड़ो किचन में घुसे रहो। कपड़े संभालो, अनाज संभालो। क्या हम सब नौकरानी हैं खरीदी हुई बांदी हैं ? साला……(मनचाही गाली) आर्डर देगा। मिट्टी में न मिला दिया तो हम औरतों का नाम नहीं रहेगा। साला तन नोचता है हमारा। ये हमारा तन है, चाहे जिसे दें, न दें हमारी मर्जी। वो कौन होता है हमें रोकने वाला। साले शादी करके कानूनी रूप से बलात्कार का लाइसेंस पा लेते हैं।…(मनचाही गाली प्लीज)।’’
’’बिल्कुल सही कहा! विवाह को संस्कार का नाम दे देते हैं। व्हाट् संस्कार! क्या औरतों के लिए ही संस्कार हैं ? वो जब चाहे जहां चाहे मुंह मारे। ये विवाह ही सारे झंझटों का कारण है। पैरों में बेड़ी डालने का तरीका। विवाह करो और बंध जाओ और घुस जाओ जेल में।’’
’’पर एक बात समझ नहीं आई..’’ फिर से सुलेखा बोली-’’क्या औरतों को आदमी के साथ मजा नहीं आता है ? उसे भी तो चाहत होती है कि कोई उसके रूप को सौन्दर्य को देखे निहारे तब तो सजती है। स्त्री पुरूष संबंध अगर जरूरी नहंी होते तो इस दुनिया में होते ही क्यों। कहीं हम इन संबंधों को मारने के चक्कर में प्रकृति के साथ अन्याय तो नहीं कर रहे हैं?’’
’’फिर बोली बैकवर्ड औरत! बैकवर्ड है तो बैकवर्ड ही रहेगी। जीवों की दो प्रजाति में आपसी संबंध नैसर्गिक नहीं होता है। पुरूष हमारा शोषक है। हमें लूटता है पीटता है और फिर अपनी पूजा भी हमसे ही करवाता है। हमको गुलाम बनाकर रखा है हमारी जिन्दगी उसके कारण ही नर्क है। शादी करने के बाद अगर वो छोड़ दे तो हमें समाज गंदी नजर से देखता है, हमारा बलात्कार कर दे तो हमें समाज गंदी नजर से देखता है हमारी शादी न हो तो समाज गंदी नजर से देखता है, हम यदि किसी के साथ दूसरी बनकर रहे तो समाज हमें गंदी नजर से देखता है, क्या हम इन सबके लिए अपराधी हैं ? एक तो हमारा ही शोषण करता है और हमें ही अपराधी बना देता है। इनका इलाज इन्हें दुत्कारना है। हमें जब तक अपनी मर्जी से रहने का अधिकार न मिल जाये तब तक ये युद्ध चलता रहेगा। सारी हदें हमारे लिए ही हैं। सारी सरहदें हमारे लिए ही हैं।’’
’’तो क्या इन सबमें सिर्फ पुरूष ही दोषी है ? औरतें नहीं हैं ?’’
’’वाकई में तू हमारे साथ रह कर भी बैकवर्ड से फारवर्ड नहीं हो पायी हो। वहीं लटक रही हो मध्ययुगीन सोच में, ये जीवन मिला है भोग करने के लिए। इसे यूं पतिव्रता बनकर मत गंवाओ। ये सब ढकोसले हैं हम औरतों को चारदिहारी में कैद करने के। हमारा यौन शोषण करने के लिए। पुरूष स्वछंद होकर जीता है चाहे जहां खड़े होकर लघुशंका कर लेता है। क्या औरतों को ये समस्या नहीं होती है? उन्हें भी तो तकलीफ होती है। वो समुंद्र में खुले बदन नहा सकता है क्या हम औरतें ऐसा कर सकती हैं ? बताओं तुम। ये भूखे भेडिये हमें नोच डालेंगे।’’
’’पर मैंने तो आदमियों को भी नंगे बदन नहाते नही देखा है। और कई औरतों को बेशर्मी से नहाते भी देखा है। अजीब बातें हैं तुम्हारी। तुम स्त्री की आजादी को उसके तन की आजादी से जोड़ती हो। मैंने तो न जाने कितने ही पुरूषों को सिम्पल जीवन जीते देखा है वो अपनी पत्नी के साथ खुशी से रहते हैं।’’
’’यही तो! यही तो! उसे मौका नहीं मिला होगा तभी शरीफ रह गया। वरना आदमी कटखना कुत्ता है वो कभी मौका नहीं छोड़ता है बल्कि वो तो मौके बनाता रहता है। औरतों को फंसाने के। जहां वो फंसी और वो दबोचा…।’’
’’रूको जरा….अगर वो मौका बनाता है तो फिर औरत फंस जाती है या फंसने का फायदा उठाती है, तुम्हारे तन की आजादी के आंदोलन का! आनंद लेने के बाद खुद को निरीह घोषित कर देती है? क्या है सच? जरा बताओ।’’
अचानक शांति सी छा गई। शायद कठिन प्रश्न था या फिर सही जगह चोट थी।
’’मुझे तो कई बार लगता है कि औरत की इसी कुटिलता के चलते उसे व्रत उपवासों में बांधा गया है। वो दूसरी प्रजाति के जीव के साथ कुटिल बन कर रहती थी और बेइमानी को अपनाये रहती थी। अगर उसे व्रत उपवासों के साथ न बांधा जाता तो न जाने क्या क्या कर जाती। है कि नहीं?’’
’’तुम पागल हो। तुम्हें समझाना बेकार है। क्यों श्यामा, आशा।’’ पर कोई जवाब न आया तो वह चौंक कर देखी वे तो टुन्न होकर स्त्री मुक्ति के आंदोलन में बेहोश थीं।
सूचना-इस स्त्री मुक्ति के व्यंग्य को पढ़कर आनंद लें। ये आंदोलन तमाम पत्रिकाओं के आलेखों और कहानियों की रूह को लेकर लिखा गया है। वर्तमान लेखक ये सब लिखकर औरतों को आजादी के सपनों में झोंक रहे हैं और उनकी आजादी का फायदा खुद उठा रहे हैं। और बहुत सी लेखिकाएं ऐसी कहानियां और लेख कविताएं लिखकर भारतीय संस्कारों को लतियाना अपने आगे बढ़ने का रास्ता मानती हैं। जबकि स्त्री और पुरूष प्राकृतिक रूप से एक दूसरे के पूरक हैं। न तो हर पुरूष चोर डकैत अत्याचारी बलात्कारी होता है न ही हर औरत बेचारी, अबला और प्रताड़ित होती है। कुछ औरतों और कुछ नीच पुरूषों के कारण पूरा समाज दोषी नहीं कहा जा सकता है। न ही पूरी पुरूष जाति को अपराधाी मानकर व्यवहार किया जा सकता है। न तो हर पुरूष नंगा होकर घूमता है न ही नीच हरकत करता है। जो कुछ होते हैं वो अपराधी ही होते हैं। पुरूष की गंदी हरकतों और परस्त्रीगामी होने को मान्यता समाज में नहीं मिली है।