कहानी-मोड़ पर नया मोड़-सनत सागर

मोड़ पर नया मोड़


मैं धीर गंभीर मुद्रा में खड़ा रहा। बुद्धि मानों कुंद हो गयी थी। अस्पतताल के गलीयारे में लगी बड़ी बड़ी एलइडी लाइटें दिन के जैसे उजाला फेंक रहीं थी फिर भी जाने क्यों अंधेरा सा छाया हुआ था।बाजू से निकलती खूबसूरत नर्स ने भी मुझे जरा सा भी आकर्षित नहीं किया जबकि पिछले चार दिनों से मैं उसका रास्ता ही देखता रहा था।
’तुम्हारी यही आदत ठीक नहीं है जब तब बात करते हुये चुप हो जाते हो। क्या इस वक्त भी इस चुप्पी का कोई मतलब है ?’ किशोर मुझे हिलाकर कहा। मैं उसकी झुंझलाहट पर चकित होकर उसे देखने लगा। क्या इतना आसान था मेरे लिये निर्णय लेना ?
’मरीज की हालत खराब है तुम्हें पता है न! और वह मरीज तुम्हारा भाई है तुम्हारा मौसेरा भाई!’ किशोर ने एक ही बात दो बार कह कर मानों मेरा निर्णय बता दिया। मैं उसे ताकता ही रहा।
’अजीब पागल है यार तू! चल न देर मत कर तेरा औ नेगेटीव ब्लड उसकी जान बचा लेगा।’
’और मेरे दोस्त का क्या होगा ? क्या वह मेरा खास नहीं है ?’ मेरे मुंह से एकाएक निकल ही गया जो मेरे मन में था। और सबसे बड़ी बात ये बात किशोर भी जानता था।
शायद वह मेरे मंुह से ही सुनना चाहता था।
’यानी दोस्ती रिश्तों से बड़ी होती है ?’
मेरे चेहरे पर सपाट भाव देख कर किशोर फिर से पूछा।
’क्या पूछ रहा हूं मैं ?’
’मेरी जगह तुम खड़े होकर विचार करो शायद जवाब मिल जाये।’
एक ही बार में एक ही सांस में कह दिया मैंने। परन्तु अब मुझे भी लग रहा था कि ये परिस्थिति आखिर मेरे साथ क्यों पैदा होती है। मेरा ब्लड गु्रप ही ऐसा है कि बहुत कम मिलता है। ऐसा हमेशा ही होता है, एक साथ दो -तीन लोगों को जरूरत पड़ती है। बेहद मुश्किल से निर्णय ले पाता हूं। सबसे पहले गांव के मासूम लोगों को ही खून देना पसंद करता हूं।
परन्तु आज ये और उलझन भरी मुश्किल आ गयी है। एक और मौसेरा भाई और दूसरी और लंगोटिया यार!
’यानी तू अपने दोस्त को खून दे सकता है पर अपने भाई को नहीं!’
’रिश्ता ? कबसे रिश्तेदारी हो गयी ? आज खून की जरूरत आ गयी इसलिये ?’
’कैसी बात कर रहा है तू! क्या रिश्ते यूं टूट जाते हैं! अगर यूं रिश्ते टूटते तो…..’


’भाई! तू रहने दे, मुझे मत समझा। मैं बेकार के रिश्तों को ढोना पसंद नहीं करता। बैंक से हाउस लोन ले रहा था और उस मेरे ’भाई’ ने जमानतदार बनने से इंकार कर दिया। क्या मैं पैसे नहीं जमा करता बैंक के ? और लोन भी कितने का था मात्र डेढ़ लाख का! और बताउं ?’
’रहने दे मेरे भाई! ऐसे वक्त में पुरानी बातों को याद नहीं किया जाता है। अपना दिल बड़ा रखना चाहिये हमेशा।’ मैंने अबकी बार किशोर को मुस्करा कर देखा। अबकी बार वह चकित सा मुझे देख रहा था।
तभी वही नर्स फिर पास से गुजरी। अबकी बार महसूस हुआ कि वह कोई महंगा सा परफ्यूम लगायी थी। मैं समझ गया मेरे मन का द्वंद खत्म हो रहा था। ’अच्छा! ऐसा तो कर सकता है न कि तू दोनों को आधा आधा ब्लड देने को कह दे।’
मैंने किशोर के कंधे पर एक हाथ रखा और दूसरे हाथ की उंगली से उसकी ठुड्डी को उपर करते हुये कहा।
’मेरे प्रिय भाई! देख ऐसा है कि हम अपने जीवन में किसी का सामान तक एक स्थान से दूसरे स्थान तक बेमतलब नहीं उठा कर ले जाते हैं और बेमतलब के रिश्तों को जीवन भर ढोते हैं। रिश्तों का मकसद क्या यही होता है कि शादी विवाह में बुलाकर खिलाओ, मरने पर सबको बुलाओ और खिलाओ। लोगों के बीच हमेशा बड़ों का सम्मान करते रहो और जीवन में जब भी धन की आवश्यकता पड़े तो उनकी नाराजगी झेलो। क्या इसी लिये रिश्तों को पाला पोषा जाता है ? मालूम है तुम्हें! इंसान कुनबों में क्यों रहना सीखा था ? वक्त जरूरत में एक दूसरे की सहायता करने के लिये। पहले जंगली जानवरों के भय से साथ रहते थे। फिर जंगली जानवरों का शिकार करने के लिये एकसाथ रहते थे। और आज सिर्फ धनी रिश्तेदार की जीहुजूरी करने। कभी पैसों की जरूरत पड़ने पर मुंह फेरते एक मिनट नहीं लगता। तुम्हीं को मुबारक रिश्ते। मुझे तो उनसे ही बनाकर रखना है जो जीवन में दुख और सुख में समान रूप से काम आयें।’
मैंने अपना लम्बा भाषणनुमा वकतव्य खत्म किया।
कुछ कहते कहते रूक गया किशोर। मेरी बातें इस विषय में पूर्ण विराम की तरह थीं।
’और हां,’ अचानक मुझे एक बात याद आ गयी। ’तेरे जीजाजी से तू कितनी अपेक्षाएं रखता था। जब तूने अपनी जमीन खरीदते वक्त पचास हजार ही मांगा था न। और तेरी बहन ने क्या कहा था ’तेरे जीजा के पास रहता तो जरूर देते। आजकल एकदम कामधाम ठंडा चल रहा है। और तूने ही बताया था कि तेरी बहन के पास ही हमेशा दो तीन लाख पड़े रहते हैं। वो तेरी बहन है तू मानता रह बहन, मैं उसे भी बहन नहीं मानता।’ मैं अबकी बार बड़ा सा पूर्ण विराम लगाया था। पूर्ण विराम क्या था कील ही ठोंक दी थी उसके मुंह में।
मैंने नर्स की ओर ध्यान देना क्या बंद कर दिया अब वह बार बार निकलने लगी और मुझे गहरी नजरों से देख भी रही थी। मैं दुनिया की रीत एक ही पल में समझ गया। जिसके सामने झुकोगे तो वह सर पर चढ़ेगा, जिसके आगे तनोगे वह आपके सामने झुकेगा।
मैं रक्तदाता बना अपने दोस्त के पास बैठा था।
’डेंगू बुखार में आजकल खून चढ़ाने की जरूरत पड़ने लगी है। जैसे जैसे मानव विकसित हो रहा है अन्य जीव जन्तु और प्राणी भी उसी गति से विकसित होते जा रहे हैं।’ सुरेश मेरा हाथ थामे थामे बोला।
’कम से कम ये जीव मानव को समझाते जा रहे हैं कि देखो एकदूसरे के काम आओगे तो इस संसार में जी पाओगे। वरना मतलब से भरी दुनिया में….।’ मैं अपना पुराना प्रवचन शुरू करते करते रूक गया।
हमारी बात चल ही रही थी कि हम दोनों की पत्नियां पहुंच गयीं।
’भैया! भाभी बता रही थी कि आपकी मौसी का लड़का भी बीमार है उसे भी खून की जरूरत थी पर आपने इनको खून दिया।’ यह कहते हुये अहसान जताने के भाव आंखों के रास्ते उमड़ पड़े।
’अरे! आप लोग इस तरह भीड़ भाड़ मत कीजिये, मरीज को भीड़ से तनाव आता है। चलिये बाहर निकलिये रूम से।’ नर्स ने यह कहते हुये बाहर जाने का इशारा किया।
आवाज की ओर नजर पड़ते ही मैं चौंक उठा। और दूरे ही पल शांत हो गया। मैं भी उठ कर बाहर जाने लगा।
नर्स मुझे उठता देख तुरंत बोली।
’अरे! आप बैठिए, एक आदमी तो कम से कम मरीज के पास होना चाहिए।’ नर्स ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर रोका। मैं उसकी ओर चाह कर भी देख नहीं पा रहा था। सुगंधा वहीं खड़ी थी। मैं सिर्फ उठते उठते बैठ गया।
’जरा ये बॉटल पकड़िये।’ नर्स ने मुझे यह कहते हुये एक बॉटल थमा दी। अब तो मेरा वहां से जाना और असंभव हो गया।
’आप इनके क्लोज फ्रेंड हैं, ऐसा लगता है।’ नर्स ने मुस्कराते हुये पूछा।
मेरे मुख से सिर्फ ’ज….जी’ निकला। मैं अचरज से भरा था। मेरी पूरी ताकत पूरा साहस कहां लुप्त हो गये पता नहीं। वह खुल कर बेटींग करती रही और मैं चुपचाप सर झुका कर हां हूं में जवाब देता रहा। अब जबकि सुगंधा भी बाहर जा चुकी थी।
’सुनिये यहां आइये, इसे जरा मेरे साथ पकड़िये।’ नर्स ने बुलाया। वह सुरेश का बीपी नाप रही थी। मुझे बीपी की मशीन थमा कर बीपी मापने लगी।
’ऐसे नहीं ऐसे पकड़िये।’ कहती हुई मेरा हाथ पकड़कर बीपी मशीन ठीक से पकड़वाने लगी।
ठीक उसी वक्त रूम का दरवाजा खुला और सुगंधा ने प्रवेश किया। वह कुछ कहती कि उसकी नजर मुझे पर पड़ गयी। मेरा हाथ पकड़े नर्स खड़ी थी।
आसमान साफ था और मौसम भी ठंड का था फिर भी मानो बिजली की चमक सी उठी। और मेरे आंखों के सामने अंधेरा छा गया।
धाड़ की आवाज के साथ दरवाजा बंद हो गया।
नर्स का हाथ एकदम से मेरे हाथ में अपनी पकड़ जोर की कर लिया।
मेरा मन हाथ छुड़ाना चाहता भी था और नहीं चाहता था। कश्मकश शब्द का अर्थ सम्पूर्ण ढंग से समझ आ गया।
गहरी नजरों से देखकर नर्स बाहर निकल गयी।
मैं सुरेश की ओर देखा, वह तो सो गया था इतनी देर में। मैं कमरे में टहलने लगा। और अचानक उत्पन्न हुयी परिस्थितियों के बारे में विचार करने लगा। क्या होने वाला है विचार करने लगा।
तनाव बढ़ता ही जा रहा था। अब तक जो स्वर्ग के सुंदर और प्यारे सपनों की ओर यात्रा चल रही थी वो एकाएक नरक के द्वार पर आ खड़ी हुई थी। नरक के चाण्डाल सामने नजर आ रहे थे।
तभी मोबाइल बजने लगा। मैं घबरा गया। संकट का अनुमान था। नंबर देखा तब कहीं जाकर शांति महसूस हुई। सोना बहन का फोन था।
’हलो! हां बहन बोल।’
’भैया! मुझे आपकी मदद चाहिये।’
बगैर किसी भूमिका के सीधे सोना बहन ने अपनी बात रख दी। इसका मतलब यही था कि मामला कुछ गड़बड़ था।
’हां, बोल बेटा!’ मेरे मुंह से निकला। मन एकाएक तड़प उठा बगैर जाने कि बात क्या है। पर बहन की आवाज का गीलापन और कहने का ढंग मुझे इशारा कर ही रहा था।
इस एक पल में जाने कितने ही प्रकार की शंकाओं ने आकर अपनी मुंह दिखाई कर दी। मेरी सोच में सोना बहन का स्वर विघ्न डाला।
’भैया! मुझे दो लाख रूपयों की सख्त जरूरत है।’
’जरूर दूंगा पता तो चले कि काम क्या है।’ मेरे स्वर में चिंता टपकती हुई मैंने खुद ही महसूस की।
मेरे प्रश्न पर उधर मौन ही था। दो पल इंतजार के बाद मैंने कहा।
’अच्छा कोई बात नहीं मत बता। तूने भाई से पैसा मांगा है इसका मतलब ही यही है कि कुछ न कुछ समस्या आन खड़ी हुई है। मैं करता हूं इंतजाम।’
’इंतजाम करता हूं मतलब ? मुझे तत्काल जरूरत है।’ उसके स्वर में आवेग के साथ आवेश का भी समावेश हो गया था।
सोना बहन की बातें दिमाग में घूम ही रहीं थी। मैं देखा सुरेश अपने पलंग पर अब भी सोया हुआ था। डेंगू में इस कदर टूटता है आदमी मुझे अबकी बार समझ आ रहा था।
सोना बहन को जाने कौन सा काम आ गया है। आखिर इतने पैसों का क्या करना चाहती होगी वह। पर मैं उसे दो लाख दे दूंगा तो फिर मां के आपरेशन का क्या होगा! आपरेशन की तारिख भी तो माह भर के भीतर की है। मेरे माथे पर पसीने की बूंदें तैरने लगीं। मैंने सर उठा कर देखा एसी अपनी गति से अपना तापमान नियंत्रित कर रहा था।
आखिर इतनी उम्र तक इंसान क्यों जीता है ? अपनी दुविधा पर मेरा मन बेचैन हो गया।
मां तो अपना जीवन लगभग जी चुकी है। बहन के सामने तो सारा जीवन है। तो क्या मां बाप अपना कर्तव्य पूरा कर देते हैं तो उनका अस्तित्व ही नकार देना चाहिये।
आखिर मैं क्या करूं ? बहन को देखूं या फिर मां को ? मां पर झुंझलाहट बढ़ती ही जा रही थी। न तो मां को अकेले छोड़कर जाया जा सकता था न ही घर में रखे पैसों को बहन को दिया जा सकता था।
मैं उठ कर खड़ा हो गया। तनाव हावी होता जा रहा था।
तभी मेरी नजर सुरेश की हलचल पर पड़ी। वह आंखें मिचमिचाकर फिर सो चुका था।
’आखिर इतना सो कैसे रहा है ये।’ मैं बड़ाबड़ा उठा।
ये उठे तो मैं घर जाउं देखूं कि क्या कर सकता हूं। इतने लोगों से पैसा लेना है मगर कोई पैसे देता ही नहीं। दुकान में सिर्फ उधार में खरीददारी करने आते हैं। ये समय भी कैसा समय है सिर्फ दिखावे का। जिमनी औकात नहीं उससे कहीं ज्यादा लोग चाहते हैं। दिखावा यूं करते हैं मानों उनसे बड़ा कोई राजा नहीं। इसकी परिणति हम दुकानदार भुगतते हैं। न तो उधार मांगने से मना करने बनता है न ही लालच में सामान बेचने से खुद को रोक पाते हैं। और फिर भंवर में फंस जाते हैं उधार के।
इसलिये पुराने लोग कहते थे ज्यादा कमाओगे तो अपने लिये कम कमाओगे, दूसरों के लिये कमाओगे, वैद्य डाक्टरों के लिये कमाओगे। एकदम सही बात थी।
’रजनी! रजनी!!’ सुरेश की आवाज थी। वह अबकी बार आंखें खोले रूम में रजनी को खोज रहा था।
’क्या हुआ भाई! भाभी बाहर बैठी है। क्या जरूरत है मुझे बताओ।’ मैंने तुरंत ही उसका हाथ पकड़ कर पूछा।
’बाथरूम का इशारा किया उसने। मैं उसे सहारा देकर उठाया और बाथरूम की ओर लेकर जाने ही वाला था कि रूम का दरवाजा खुला और वही नर्स सामने आ खड़ी हुई।
’अरे, अरे क्या कर रहे हो आप! इनको उठाकर अभी नहीं चलाना है। बहुत कमजोरी है गिर सकते हैं चोट लग सकती है।’ उसके स्वर में डांट कर पुट जरा भी न था। बल्कि एक मजाक लग रहा था। वह मुझे देखकर मुस्कायी।
मैं संकोचवश चुप ही रहा। कह नहीं पाया कि बाथरूम ले जाना है कैसे ले जाउं।
पर एक ही पल में समस्या दूर हो गयी। उसने एक पॉट उठा कर सुरेश को दिया और कहा ’इसका उपयोग करो। समझे। अभी चलना फिरना कम करो। ताकत कम हो गयी है फिर सकते हो चक्कर आ सकते हैं।’ फिर मेरी ओर मुड़कर आंखों से पूछा -’समझे कि नहीं।’
मैं प्लास्टिक का गुड्डा बना अपना सर हिला दिया।
’आपका क्या बिजनेस है ?’ एकाएक उसने मुझसे पूछ लिया।
’बिजली के सामान का।’
’अच्छा आपकी दुकान सर्किट हाउस रोड में है न!’
‘ज्..जी! आप देखी हैं ?’ मैंने बचकाना सा प्रश्न पूछ ही लिया। जबकि मुझे मालूम था कि इस छोटे शहर में दुकानों का पता लगभग सभी को होता है।
’उसने मुस्करा कर कहा -’हां, कई बार आई भी हूं आपके यहां सामान लेने। मेरे यहां के सारे पंखे आपकी दुकान के हैं।’
’अच्छा!’ मैं आश्चर्य से पूछा। ’मुझे कैसे याद नहीं आ रहा है कि आप मेरी दुकान आई हैं ?’ मैं शरमिंदगी भरे भाव से पूछ बैठा।
’आजकल किसी भी लड़की को पहचानना बेहद मुश्किल हो चुका है। और जबसे कोरोना ने हमला किया है तब से तो और कठिन हो गया है। आजकल दुपट्टे को चेहरे में बांधने का फैशन बन गया है।’ कहती हुई नर्स मुस्कराने लगी।
मैं उसे दुपट्टे में ढंक कर पहचानने की कोशिश में लग गया। आंखों से चेहरा बनाना बेहद कठिन लग रहा था।
’जब आप जानती हैं कि मेरी दुकान कौन सी है और मैं कौन हूं तब क्यों पूछा मुझसे ये सवाल।’
मैं उससे यह सवाल पूछना चाह रहा था तब तक तो वह जा चुकी थी।
’अब आप यहीं रहोगे कि घर भी चलोगे ?’ तभी सुगंधा मेरी पत्नी ने भीतर प्रवेश करते हुये पूछ लिया। ’लगता है दोस्त की सेवा के बहाने नर्स की सेवा करने में लग गये हो।’ घूरती आंखों से मुस्कराती हुयी बड़ी ही अजीब लग रही थी सुगंधा। मैं समझ गया कि कुछ खतरनाक सा माहौल बन रहा है। लेकिन ऐसा क्यों होता है अक्सर मेरे साथ। जब भी किसी महिला से कुछ जमता है तब ही सुगंधा देवी अपनी टांग फंसा देती हैं। दुविधाग्रस्त मैं पड़ा रह जाता हूं।
वक्त की ये आदत बेहद खराब है। हमेशा दोराहे पर लाकर खड़ा कर देता है। कभी एक ओर कुंआ तो एक ओर खाई। कभी ऐसा नहीं हुआ कि दसों उंगलियां मिठाई में और सर कढ़ाई में।
मुझे अच्छे से याद है कि मेरे लिये लड़की देखने गये थे और सुगंधा के संग उसकी चचेरी बहन बैठ गयी थी। मैं पड़ गया धर्मसंकट में! जो न मिलने वाली थी वही दिल घेरकर बैठ गयी।
कितनी बेइज्जती के बाद अपनी हरकतों पर शर्मिन्दा होना पड़ा था।
मेरी सोच चलती ही रहती अगर सुगंधा मेरा हाथ पकड़ कर खींच न लेती और खींच कर खड़ा न कर देती। आखिर मुझे अपनी सोच के जाल से निकलना ही पड़ा। सुरेश मुस्करा कर हाथ हिलाया। भाभी ने हाथ जोड़ा। मैं भी हाथ जोड़कर नमस्ते किया। ठीक इसी वक्त रूम का दरवाजा खुला और जो भीतर प्रवेश किया उसे देखकर मेरा मुंह खुला का खुला ही रह गया। और वह थी ड्यूटी चेंज होने पर आयी दूसरी नर्स। जो पहले वाली से कहीं ज्यादा खूबसूरत थी।
हसीन सी खुशबू आ रही थी उसके बदन से। वो मुझसे लगभग चिपक कर सुरेश तक गयी और अपनी गलती पर मुस्कान भेंट की।
मैं रूम से निकलकर भयभीत निगाहों से आसमान की ओर देखा और भगवान को दोनों हाथ जोड़ दिये।