अंक-29 कविता कैसे बदले तेरा रूप

कविता का रूप कैसे बदलता है देखें जरा। नये रचनाकार ने लिखा था, नवीन प्रयास था इसलिए कसौटी पर खरा नहीं उतरा। उसी कविता को कैसे कसौटी पर खरा उतारें-

सुकून

ईट पत्थर और गारे से बनी थी
उस बनी हुई आकृति को वह
बड़े ही ध्यान से देख रहा था,
उसकी आंखों से ये लग रहा था
मानों उस आकृति पर वह मरमिटा,

मरमिटे भी क्यों नहीं आखिर
उसके जीवन भर की पूंजी का
प्रतिफल उसका वो घर था।
उसने अपना पेट काट काट कर
एक एक पैसे जोड़े थे।
न जाने कितनी ही आवश्यकताओं का
गला घोंटकर इस सपने को पूरा किया था।
अपना घर वास्तव में एक सपना ही होता है
हर एक इंसान का।

यही कविता कुछ अन्य पंक्तियां जोड़ने पर देखें कैसे रूप बदलकर रोमांचित करती है-

सुकून

ईट पत्थर और गारे से बनी थी
उस बनी हुई आकृति को वह
बड़े ही ध्यान से देख रहा था,
उसकी आंखों से ये लग रहा था
मानों उस आकृति पर वह मरमिटा,

मरमिटे भी क्यों नहीं आखिर
उसके जीवन भर की पूंजी का
प्रतिफल उसका वो घर था।
उसने अपना पेट काट काट कर
एक एक पैसे जोड़े थे।
न जाने कितनी ही आवश्यकताओं का
गला घोंटकर इस सपने को पूरा किया था।
अपना घर वास्तव में एक सपना ही होता है
हर एक इंसान का।
उसे इस बात का सुकून था
इस अपने मकान में
उसके पसीने की बूंदें लगी थीं
न कि किसी सरकारी धन से बना था
उसका सपने का घर।