यात्रा संस्मरण-सत्यभामा आडिल

मदुरै/ सेंट्रल चेन्नई से राष्ट्रभाषा की खोज-यात्रा

24 मार्च शनिवार को सुबह 6.45 बजे ट्रेन थी। हम होटल से 5.45 बजे सुबह निकले, जैसे ही ऑटो पर सामान रखे – वही मीनाक्षी मंदिर वाला ऑटो ड्राइवर आकर खड़ा हो गया। हम होटल काउण्टर पर उसके लिए 150 रु. छोड़ कर आये थे पुलिस के कहे अनुसार। उसने काउण्टर से पैसा लिया और चुपचाप चला गया। हमें सुकून मिला। लगता है पुलिस ने होटल वाले से उसका पता कर लिया था।
हम ट्रेन में बैठे। चेयर कार में सीट मिली थी। वह आठ घंटे की यात्रा बस की यात्रा की तरह लगी। वह प्लेन की यात्रा की तरह भी तुलनीय हो सकती है। ट्रेन में उठकर चल भी सकते हैं। भले ही कुर्सी हो -पर आठ घण्टे बीत गए। 1.03 बजे हम चेन्नई एगमोर स्टेशन पहुँचे। चेन्नई एगमोर से सीधे चेन्नई सेन्ट्रल गये। हमें कहीं भी आसपास होटल में खाली कमरा नहीं मिला। हम स्टेशन पर ही 7 बजे तक रूके रहे। प्रति घण्टा 100 रूपये के हिसाब से ए.सी. प्रतीक्षालय में बैठे रहे। बालशौरि रेड्डी (गाँधी वादी साहित्यकार व चंदामामा के पूर्व सम्पादक) से फोन पर बात की। उन्होंने तुरंत घर आने को कहा। उनका बेटा किसी विवाह कार्यक्रम में गया था, अन्यथा उसे स्टेशन भेजते। यही कहा था, उन्होंने। इतने में बेटे विवेक से फोन पर बात हुई। हमारी समस्या सुनते ही उसने कहा “मेरा दोस्त चेन्नई में, वहीं पर काम के सिलसिले में गया है ,मैं उसे भेजता हूँ- आप स्टेशन पर ही रूकें।“ हम रूककर प्रतीक्षा करने लगे। आधे घण्टे के बाद वह आया। उसने ही हमें पहचाना। हम रेड्डी जी के घर नहीं गये – कृष्णा टॉकीज दूर थी। पर, रात 9 बजे तक एक ऐसे होटल में पहुँचे, जो शासकीय अतिथियों के लिए पंच सितारा होटल था। विवेक का मित्र कुछ व्यापारिक कार्य से जुड़ा था। हम सब कुछ समझ नहीं पाये। पर, तीसरी मंजिल पर शानदार कमरा मिल गया। सुबह 6 बजे ट्रेन थी। होटल वाले ने एक ऑटो बुक कर दिया सुबह पाँच बजे के लिए। हम रात दस बजे रोटी सब्जी खाये और सो गये। थकान में रेड्डी जी से बात नहीं कर सकी। अवश्य ही वे नाराज हो रहे होंगे!
25 मार्च रविवार की सुबह 5 बजे हम सामान सहित ऑटो में बैठकर चेन्नई सेन्ट्रल आ गए। ठीक 6 बजे राजधानी एक्सप्रेस आई -हम बर्थ नं. 1 और 3 में बैठ गए। खिड़की के पास दो महिलाएं बैठी थीं। बहुत आत्मीय सी लगी। हम बात करने लगे परिचय हुआ। मैंने बताया – कन्याकुमारी में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भाग लेने गई थी। दोनों के मुंह से एक साथ निकला – “हिन्दी ?“ वे प्रसन्न थी – सुनकर। क्यों प्रसन्न हुई?
वे दोनों राष्ट्रभाषा हिन्दी सिखाने व पढ़ाने का काम स्वेच्छापूर्वक कर रही है। चेन्नई से नागपुर – एक मायके आ रही है। दूसरी अपने घर जा रही है। दोनों का ताल्लुकात चेन्नई और नागपुर से है। एक है डी, वसन्ता यह शिवाजी नगर नागपुर में रहती है। यह नागपुर में अपने घर पर हिन्दी की कक्षा लगाती है। यह दक्षिण भारतीय भाषी महिला नागपुर में राष्ट्रभाषा हिन्दी सिखाती है स्कूली बच्चों और घरेलू महिलाओं को। मैंने पूछा -क्यों?
तो डी. बसन्ता ने कहा -“दक्षिण से उत्तर जाने के लिए हिन्दी की जरूरत है। अंग्रेजी से भी अधिक जरूरी हिन्दी जानना है। हममें राष्ट्रभाषा के लिए भावात्मक लगाव नहीं है। मैं व्याकरण शुद्ध करती हूं- बच्चों के और महिलाओं के। मुझे अच्छा लगता है। मैं यह काम बिना पैसों के करती हूँ।“
मंजू एस. तालपडे ने कहा – “पर मैं तो यही काम ट्यूशन के रूप में करती हैं।“
मंजू तालपडे का मायका नागपुर है, पर वह पति के साथ चेन्नई में रहती है। पति इंजीनियर है। यह वसन्त विहार सेन्ट्रल एवेन्यू कोडम्बक्कम में रहती है। यह चेन्नई का पॉश इलाका है। स्कूल जाने वाले बच्चों की माताएं, बच्चों की हिन्दी भाषा का व्याकरण सुधरवाने इनके पास आती है।
तालपडे छोटे-छोटे सुधार कार्य के लिए फीस नहीं लेती। वे बहुत उत्साह और शौक से व्याकरण के वर्णमाला, स्वर व्यंजन, अनुस्वार, हलंत और मात्राएं सिखाती, सुधारती और पढ़ाती हैं। परंतु नियमित कक्षा के लिए बहुत कम फीस लेती हैं। दो सौ रूपये और तीन सौ रूपये मासिक। अंशकालिक, सुधार कार्य के लिए-रोटी सेंकना बंद करके भी समय देती हैं, पर नियमित कक्षा के लिए शाम व दोपहर का समय निर्धारित है।
मंजू तालपडे मराठी भाषी है पर मराठी में हिन्दी की मात्राएं अलग होती है। जैसे ई व उ की मात्राओं में कुछ अंतर होता है। इसका सूक्ष्म रूप से ध्यान रखती हुई वे हिन्दी सिखाती है। मंजू कहती हैं – “राष्ट्रभाषा में प्रवीण बनाना मेरा लक्ष्य है।“ ये भी वही बात कहती हैं –
“दक्षिण भारत के लोग तेजी से महसूस कर रहे हैं कि हमें उत्तर भारत यानी दिल्ली तक पहुँचने के लिए और किसी भी राज्य में नौकरी करने के लिए अब हिन्दी जानना जरूरी है । अंग्रेजी से भी पहले हिन्दी आनी चाहिए।“ दोनों अहिन्दी भाषी मंजू और वसन्ता – राष्ट्रभाषा हिन्दी की प्रबल पक्षधर हैं।
उन दोनों से बात कर मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि मेरी यात्रा “राष्ट्रमाषा हिन्दी की खोज की यात्रा है।“ मुझे लगा लोगों में बदलाव आ रहा है। बाहर से पता नहीं चलता पर, उत्तर भारत से अलग, दक्षिण भारत का चिंतन बदल रहा है।
बात करते-करते 12 बजे हम कृष्णा नदी पार कर, विजयवाड़ा भी पार कर लिये। 8 बजे चाय, 9 बजे नाश्ता, 12 बजे सूप लेने के बाद दोनों महिलाओं से बात करते-करते ’चन्दामामा’ की बात निकली। मंजू तालपडे ने ’ग्रेट आर्टिस्ट’ की जीवन्त कहानी सुनाई । ’चन्दामामा’ के चित्रकार ’शक्तिदास’ के शोषण की कहानी सुनाकर बताया कि अभी वे हैदराबाद से ’चन्द्रबाला’ पत्रिका निकाल रहे हैं (अंदाजन 10 वर्ष से) ’चन्दामामा’ पर बात करते-करते मुझे ध्यान आया मैंने रेड्डीजी से अभी तक बात नहीं की। बहुत अधिक अपराधबोध हुआ। तत्काल फोन लगाकर क्षमा मांगी कि मैं उनके घर नहीं पहुंच पाई। उन्हें फोन भी नहीं कर पाई। मैंने कहा-“भैयाजी आपको सूचित भी नहीं कर पाई कि नहीं आ रही हूँ।’’ बालशौरि जी बहुत नाराज थे। नाराजगी भरे स्वर में बोले – “मैं रात 9 बजे तक बाई से खाना बनवाकर राह देखता रहा तुम और तुम्हारे मिस्टर बताए भी नहीं।“ मैं माफी मांगती रही। जब वे रायपुर आए “सृजन सम्मान“ के लिए तब भी मेरी मुलाकात नहीं हो पाई। दीपावली में गांव गई थी, गांव से लौट नहीं पाई थी। सरस्वती उनके साहित्य पर पी.एच.डी. कर रही थी, मेरे निर्देशन में। वे चेन्नई लौट गये। उसके दूसरे दिन मैं रायपुर आई। बहुत दुख हुआ न मिल पाने का। हमारी पहचान सन् 1975 उड़ीसा गंजाम जिला, भंजनगर, अखिल भारतीय कूर्मि क्षत्रिय महासभा का महाधिवेशन हुआ था, जिसमें उन्होंने अध्यक्षता की थी। उन्होंने हंसते हुए कहा -“पता नहीं लोगों ने मुझे कैसे ढूंढ़ निकाला। वे साहित्यकार पहले हैं -वह भी गाँधीवादी और राष्ट्रीय चेतना के पक्षधर!’’
ओह ! बल्लारशाह आ गया। 1.06 बज गये रात गहरी होने लगी। बाहर केवल रास्ते के बल्ब जलते हुये दिख रहे थे।
8.30 बज गये नागपुर स्टेशन आ गया। हम सभी उतरे। मंजू तालवडे का भाई लेने आया। डी. वसन्ता का पुत्र आया और मेरे पति उतरे। मेरा भाई रवि दौड़कर आया, और हम बरसों बाद मिले। मुझसे पन्द्रह साल छोटा भाई डव्प्स् डिप्टी जनरल मैनेजर। उसका बेटा सिद्धार्थ आया, जो वहीं इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है। नागपुर गई, यह उसके लिये सपने जैसी बात हो गयी।
इस तरह मदुरै/चेन्नई से नागपुर तक की यात्रा मानों राष्ट्रभाषा की खोज की यात्रा रही। महसूस हुआ कि दक्षिण भारत के लोग हिंदी की आवश्यकता तीव्रता से महसूस करने लगे हैं। हिंदी का विरोध केवल राजनीतिक विरोध है।
बहुत सुकून लगा…..सोचकर!
(“पहाड़ की ढलान से समुद्र की सतह पर“-यात्रा वृतांत का एक अंश उद्धृत, प्रकाशन वर्ष–2012 )

डाॅ. सत्यभामा आडिल
रायपुर छ.ग.
मो-9425503484