(बतौर समर्पित रंगकर्मी 45 वर्ष के, 65 वर्ष कर लेने के उपलक्ष्य में)
कोई भी ऐसा ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला, योग और कर्म नहीं है जो नाट्य में न दिखाया जा सके, जब हिंदी रंगमंच की हो रही है तो यह कहना पड़ेगा कि हिन्दी रंगमंच के विकास में मुंबई जैसे काॅस्मोपाॅलीटीन महानगर ने एक ऐतिहासिक मोड़ दिया है.
ऐसा ही एक युवक 1976 में मुंबई में आया जो बैंक में नौकरी करता था, जिस पर थियटर का जुनून सवार था, घर में पिताजी का सख़्त विरोध था, बैंक द्वारा टंªासफर को लेकर तमाम दिक्कते थी, मगर चाह थी तो राह मिल गई, अंजन श्रीवास्तव नामक इस युवक की उम्र थी 27 वर्ष, पेशे से बैंकर मगर ज़िगर से रंगकर्मी, तब शायद किसी ने नहीं सोचा होगा कि थियटर की गलियारों को सूंघ रहा यह नौजवान एक दिन सिने – नाट्य जगत् का उमदा कलाकार बनेगा. बुनियाद पक्की थी सोच फक्कड़ी थी, मौके की तलाश थी. पिताजी मृत्यंजय बाबू प्रोफेशनल बैंकर और उसूलों के पक्के थे. वे चाहते थे बेटा बैंक में ही कैरीयर बनाये और उनसे भी बड़ा अधिकारी बनें, क्योंकि समाज का नज़रिया उस दौर में इस क्षेत्र की ओर देखने का बहुत इज़्जत भरा नहीं था. मगर अंजन के रोम-रोम में अभिनय थिरक रहा था.
थियटर की ओर देखने का अंजन जी का अपना अलग अंदाज है, अनुभव और थियटर की पाठशाला में दिन- प्रतिदिन वे परिपक्व होते गए. धीरे-धीरे उनकी कला में निखार आने लगा. अभिनय के तमाम गुर सीखते हुए आज वे बुलंदियों के आकाश छू रहे हैं, जिस किरदार को वे निभाते है, उसकी छवि देर तक दूर तक दर्शकों के मानस पटल पर घूमती रहती हैं, गोल-मटोल शरीर को रबड़ की तरह भाव-भंगिमा और नज़रों से ही संवाद कर जाते हैं, जो दर्शकों को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है, हर शो में अपने इस हुनर का बरकरार रखना ही उनके अभिनय का राज़ है, और एक कुशल रंगकर्मी होने की यह पहचान भी हैं.
अंजन जी कहते हैं कि कोलकाता में मैंने दस वर्षो तक बांग्ला एवं हिंदी के मान्यवर लोगों के साथ थियटर किया था. अभिनय की बारीकियों को मैंने वहीं समझ लिया था. आर.एम.सिंह साहब के कारण मैं इप्टा का सदस्य बन गया और इप्टा परंपरा के अनुसार बेकस्टेज से शुरूवात की. गुजरते समय के साथ एक दिन वह भी आया जब मैं इंडिया इप्टा का वाईस प्रेसिडेंट बन गया. पिछले 36 वर्षों से मैं इप्टा थिएटर आंदोलन का एक जागरूक और समर्पित सिपाही हूँ. इप्टाइट होने का मुझे फक्र है. 2 जून, 1948 को जीवन के रंगमंच पर पदार्पण करनेवाले अंजन जी 1968 से थिएटर करने लगे. अभिनय के साथ-साथ वे पठन-पाठन साहित्य से भी लगाव रखते हैं, साहित्यिक उपक्रमों में सहभागी भी होते हैं,
वो स्टारडम नहीं मिला जिसके आप हकदार हैं, के जवाब के में अंजन जी कहते हैं कि पहले मैं कमर्शियल प्ले नहीं करता था, अतः बतौर मिशन जिस नाटक मंडली से जुडा वहीं का होकर रह गया, दस वर्षों तक कोलकाता में ‘अनामिका कला संगम’ और ‘संगीत कला मंदिर’ से जुडा रहा, मुंबई आने के बाद पिछले 36 वर्षों से इप्टा से जुडा हूं, ग्रुप छोडकर कहीं गया ही नहीं, इप्टा अपने आपमें एक आंदोलन है, वहां व्यक्ति के बजाय संस्था को अधिक महत्व दिया जाता है, सो भाई साहब, जितना तकदीर में हैं उतना तो मिलेगा ही, वैसे फिल्म इंडस्ट्री में लक फैक्टर भी काम करता है, इस शहर में मैं क्या लेकर आया था. भगवान का दिया और गुरूजी के आशीर्वाद से जो कुछ मिला है, उससे मैं संतुष्ट हूँ, वैसे बतौर रंगमंच सिपाही आज भी मैं मोर्चें पर डटा हूँ, किसी से कोई शिकवा-शिकायत नहीं है, दर्शकों के चेहरे पर संतुष्टी का भाव पढ़कर मुझे बडे़ से बड़ा सम्मान प्राप्त होने का आनंद मिलता है, मेरा मानना है कि थिएटर के प्रति दर्शकों में एक नशा पैदा करना चाहिए और हर कलाकार को इस दिशा में प्रयास करना चाहिए.
प्रारंभ में कोलकाता आॅल इंडिया रेडियों से कई नाटक प्रस्तुत किए इसी दौरान फिल्मों से भी लगाव होने लगा और ‘चमेली मेम साहब’ नामक फिल्म में एक छोटा सा किरदार निभाया.
श्रीवास्तव परिवार मूलतः उत्तर प्रदेश से ताल्लुकात रखता है, पर रोजी-रोटी के लिए कोलकाता में बस गया, कोलकाता के अनामिका कला संगम, संगीत कला मंदिर, अदाकार जैसी नाट्य संस्थाओं के साथ जुडते हुए अंजन जी ने दर्जनों नाटकों में अभिनय किया, वहां कुछ कमर्शियल थिएटर भी किया, सुशीला मिश्रा, ज्ञानेश मुखर्जी, बद्रीप्रसाद तिवारी, श्यामानंद जालान, कृष्ण कुमार, राजेन्द्र शर्मा इत्यादि नामचीन रंगकर्मियों के साथ अभिनय के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई. बाद में कई बांग्ला फिल्मों में भी अभिनय किया. उनका मानना है कि नाटक साहित्य की वह विधा है जो दृश्यात्मक है, समाज इसका दृश्यांकन प्रारंभिक काल से ही करता रहा है. कला, साहित्य, को हमेशा हमेशा सत्य के साथ खड़ा होना चाहिए और मानवीय मूल्यों के संवरण अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए, मानवता धर्म को सर्वोपरि माननेवाले अंजन जी बांग्ला, मराठी नाटक एवं साहित्य जगत से काफी प्रभावित हैं.
हिन्दी रंगमंच को वे उंची उडान भरते हुए देखना चाहते है, अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इप्टा के मिशन को गांव-गांव तक पहुँचाने की दिशा में कार्यरत है, थिएटर में 45 वर्ष और उम्र के 65 वर्ष पार करनेवाले अंजन जी आगे कहते है कि उम्र के इस पडाव पर मैं अपने साथियों के साथ देश-विदेश के कोने-कोने तक हिन्दी रंगमंच को स्थापित करने का सपना देख रहा हूँ, अवसर की तलाश है, पंखों में अभी उड़ने का बल बाकी है, कई तरह की परेशानियां और मजबूरियां भी हैं, पर इसी का नाम तो जीवन है, प्रयास करना मेरा काम है, जो मैं कर रहा हूँ. विशेषतः भारत के दूर-दराज इलाकों में युवकों के बीच वे इस नाट्य रूपी अलख को जगाने की बात करते हुए भावुक हो जाते हैं, क्योंकि इस मिशन को ए.के. हंगल और एम.एम.सथ्यू के नेतृत्व में अंजाम देने की सफल कोशिश उन्होंने की है, रायबरेली, पटना, हैदराबाद, चडबासा, लइयो, मुंगेर, गोहाटी, मधेपुरा, रायपुर, दिल्ली, कोईलरी के मजदूरों के बीच तथा अन्य कई प्रांतों में किए थिएटर की यादें उनकी आँखों में तैरने लगती हैं.
नाट्यशास्त्र और अभिनय की बात पर अंजन जी कहते है कि मैं नाट्यशास्त्र का अध्ययनकर्ता नहीं हूँ, मगर पढ़-सुनकर तथा थिएटर करते-करते ब्रेख्त, शेक्सपियर, पारसी, थिएटर, मराठी थिएटर, बांग्ला थिएटर, रतन थियाम, विष्णुदास भावे आदि को जान गया हूँ, दूसरों को देखकर बहुत कुछ सीखने का भी प्रयास करता रहता हूँ, डाॅ. श्रीराम लागू, हंगल साहब, बलराज सहानी, संजीव कुमार, शंभू बाबू, जैसी कई दिग्गज नाटककारों से प्रेरणा भी प्राप्त करने की कोशिश की, जहां संभव है, वहां मैं अवलंबन भी करता हूँ, आज भी मैं अपने आपको विद्यार्थी ही मानता हूँ, सीखने की प्रक्रिया अब भी जारी है. ‘शो’ से पहले अपनी स्क्रिप्ट को अवश्य देख लेता हूँ. आवाज और किरदार के ग्राफ पर ध्यान देते हुए अपने पात्र को सजीव करने की कोशिश करता हूँ, निर्देशक के बाद मैं अपने किरदार के बारे में सोचता हूँ, उस पर होमवर्क करता हूँ, चिंतन करता हूँ, फिर अपना रंग चढ़ाता हूँ, इस बात का ध्यान रखते हुए कि मूल फ्रेम को कहीं धक्का न लगे.
नाटक के पीछे जब कोई मकसद होता है, उद्देश्य होता है, तब वह सफल होता है, पिछले 45 वर्षों से बिना ब्रेक के लगातार मैं थिएटर कर रहा हूँ. साथ में 31 वर्षों तक बैंक में नौकरी भी की परिवार पालने के लिए कमर्शियल प्ले, सिनेमा, और सीरियल भी करता रहा हूँ, नाट्यशास्त्र चाहे जो हो पर मेरा शास्त्र मेरी खुशी है. नाटक करने से मुझे उर्जा मिलती है, मेरे अंदर का फायर जीवित रहता है, मेरी यह जरूरत इप्टा से पूरी होती है, अतः इप्टा मेरा दूसरा घर है, घर में मान-अपमान, वाद-विवाद, तनाव तो रहता ही है, पर क्या कोई घर छोड़कर चला जाता है. जिस तरह पक्षी दिनभर विहंगम करते है और शाम को अपने घोसलों में लौट आते हैं, उसी तरह हमें भी अपने-अपने हिस्से के आकाश को छूते हुए अपने घरौंदो की ओर लौटना चाहिए, इप्टा कोई व्यक्ति नहीं बल्कि एक आंदोलन है, आंदोलन रूपी इस मशाल को सदैव जलाए रखना हम सबकी जिम्मेदारी है, रंगमंच की दुनिया का इतना लंबा सफर तय करने के बाद पीछे मुड़कर देखते है तो कौन से नाटक या किरदार आपके साथ होते हैं, इस प्रश्न के जवाब में अंजन जी कहते है कि कुछ नाटकों और किरदारों का जिक्र अवश्य करना चाहूँगा जैसे – आॅल माय सन्स (डाॅक्टर), नील दर्पण (छोटा जमींदार), आषाढ का एक दिन (निक्षेप), बकरी (करमवीर) होरी (भोला), एक और द्रोणाचार्य (प्रो. अरविंद), राजदर्शन (राजा, ब्राम्हण, मौसी) सैंया भए कोतवाल (मौसी कोतवाल), मोटेराम का सत्याग्रह (मोटेराम) शतरंज के मोहरे (काकाजी, आर्चायजी), एक मामूली आदमी (अवस्थी), कुरूक्षेत्र से कारगील तक (दुर्योधन), सूर्य के वारीस (भीमराव), ताजमहल का टेंडर (शर्मा), आखिरी शर्मा (शायर, हुजूर, महेश दास), रात का इंस्पेक्टर दलवी और कश्मकश का फादर (तृषाम मैत्र), सफेद कुंडली में चार किरदार, चक्कर पे चक्कर इत्यादि नाटक आज भी मुझे अपने यादगार पलों के रूप में सुखद अनुभूति प्रदान करते हैं, इस समय प्रसाद खांडेकर का प्ले ‘रिश्तों का लाइव टेलीकास्ट’ युवा पीढ़ी के लिए कर रहा हूं. अब तक तीन दर्जन से अधिक नाटकों के हजारों ‘शो’ करते हुए आज भी अपने को मैं तरोताजा पाता हूॅं.
छोटे परदे पर जबसे धारावाहिकों का दौर शुरू हुआ तबसे अंजनजी छोटे परदे से जुडे हैं, ‘वागले की दुनिया’ ने उन्हें विशेष पहचान दी, यहां तक की आम जनता आज भी उन्हें ‘वागले’ नाम से ही जानती है, इस धारावाहिक में ‘काॅमन मेन’ को उन्होंने लोगो के दिलों से जोड़ दिया था.
अब तक 170 से अधिक फिल्मों में और दर्जनों सीरियलों में हर तरह की भूमिका निभानेवाला यह शख्सियत आज भी थिएटर को अपनी प्राथमिकता मानता है. उनकी प्रमुख फिल्मों में पुकार, सलाम बाॅम्बे, गोल-माल, बेमिसाल, खुदा गवाह, कभी हां कभी ना, प्यार तो होना ही था, अग्निपथ, कालिया, मिस्टर इंडिया, जो जीता वही सिकंदर, दामिनी, तीस मार खां, चक दे इंडिया, सीरियलों में जो है जिंदगी, नुक्कड, मनोरंजन, तमस, कथा, सागर, वागले की दुनिया, अल्पविराम, भंवर, विरूद्ध, ना बोले तुम ना मैने कुछ कहा इत्यादि का समावेश है.
आज जब मैं पीछे मुडकर देखता हूँ तो पाता हूँ कि हमने जिं़दगी के हर पल को बड़ी अच्छी तरह से निचोड़ा है, जिस दिन ने मुझे जो दिया उसे भरपूर जिया, शायद इसलिए मैं अपने आपको हँसता हुआ पाता हूँ और दर्शकों के चेहरों पर मुस्कान बिखेरता हूँ. कला कोई भी हो, धैर्य मांगती हैं, मैं बड़े धैर्य से अपनी बारी का इंतजार करता हूँ. आवश्यकता होती है निरंतर संवाद की जो मैं अपने मन और जीवन से सतत् करता रहता हूँ, इसीलिए रंगों को सुन पाता हूँ. और स्वरों को देखने की कोशिश करता हूँ.
रमेश यादव
481/161, विनायक वासुदेव,
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