राजेन्द्र रंजन का काव्य

अभी बच्चे

अभी बच्चे ये राज समझ नहीं पाते हैं,
घरौंदे रेत के क्यूं बनके बिखर जाते हैं।

बड़े हैं आप तो बंटवारा नेक कीजिए,
हम गरीब बदी राह से उठाते हैं।

अमीर के लिए हर धूप हरी होती है,
गरीब, खेत तो बारिश में झुलस जाते हैं।

अब न गांव में वो गीत न चौपाल-अलाव,
हर तरफ़ शहर के अंदाज़ झिलमिलाते हैं।

मिले खुशी तो जमाने में बांट दे ‘रंजन’,
अकेले जाना अगर ग़म तुझे बुलाते हैं।

कैसे-कैसे लोग

क्या बतायें कैसे-कैसे हमको, मिल जाते हैं लोग
हम रहमदिल क्या हुए, हर रोज़ छल जाते हैं लोग।

रात भर इस कशमकश में एक पल सोया नहीं,
देखते ही देखते कितने बदल जाते हैं लोग?

ब़दगुमानी का सफ़ीना दूर कितना जायेगा,
चंद थपेड़ों में ही साहिल पर उछल जाते हैं लोग।

बेवफ़ाओं के शहर में बावफ़ा मिलते नहीं,
खुद परस्ती की डगर में आदतन जाते हैं लोग…

अब तलक कायम है मेरी हसरतों का आशियां,
तोड़ने की कोशिशों में हाथ मल जाते हैं लोग।

रात यूं ही….

रात यूं ही बसर हो गई,
आरजू में सहर हो गई।

प्यार मैंने किया जिन्दगी,
और तू दर्दे सर हो गई।

बस जरा मुस्कुराये थे हम,
ये खुशी भी ज़हर हो गई।

डूबना ही मुकद्दर में था,
हर दुआ बेअसर हो गई।

जो थे कल तलक तेरे ‘रंजन’,
उनकी नज़र भी बदनज़र हो गई।

ऐ दोस्त!

ऐ दोस्त! राजे़ ग़म, सीने में छुपाये रखना,
बस, अपने होने का माहौल बनाये रखना।

जिन्दगी ख़ुशबुओं की राह में आ जायेगी,
अपनी हर सांस को गुलशन में सजाये रखना।

इसी से तुझको उजाले मिलेंगे फुरक़त में,
वफ़ा की राह में एक शमां जलाये रखना।

इश्क या प्यार मोहब्बत फ़क़त अल्फाज़ नहीं,
ये नेअ़मते हैं इन्हें दिल से लगाये रखना।

चांदनी रात, तलाशेगी तुमको ऐ ‘रंजन’,
चांद सा चेहरा निगाहों में बसाये रखना।

राजेन्द्र गायकवाड़ ‘रंजन’
जेल अधीक्षक, केन्द्रीय जेल, बस्तर, जगदलपुर
मो.-09425256196