त्रिलोक महावर रचित काव्य संग्रह-शब्दों से परे की समीक्षा
अवमूल्यन के दौर में मनुष्यता की जिद
महावर के लिए कविता एक जुनून है बेचैनी है अपने सही आत्मसंवाद तथा आत्माभिव्यक्ति का माध्यम है। यही कारण है वैयक्तिक जीवन में तमाम दायित्वों तथा कामों का बोझ उठाकर चैबीस घन्टे की व्यस्तताओं में उलझकर भी उन्होंने अपने भीतर की कविता को बचाकर रखा है। एक तरफ व्यस्त जिन्दगी और दूसरी तरफ रचनात्मक जिन्दगी दोनों जिन्दगी का पारस्परिक संघर्ष तथा समन्वय उनकी कविताओं में परिलक्षित है। त्रिलोक महावर की कविताएँ जिस शिल्प और अन्दाज में हैं वह जिस विषय का चयन करते हैं वह विषय सामान्य होता है, रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा होता है, वह विषय हमारी भाषा का अंग होता है। भाषा में समाहित विषय को भाषा में विस्तार देना एक प्रकार से अतिरंजना होती है। भाषा में समाहित विषय तभी संवेद्य और सटीक बैठते हैं जब वह अर्थसंरचना से अपने आपको जोड़ता हो। त्रिलोक महावर विषय में व्यंजना और लक्षणा का भरपूर प्रयोग करते हैं। त्रिलोक महावर अपेक्षाकृत छोटी कविताओं के कवि है और सफल कवि हैं।
‘‘शब्दों से परे‘‘ कविता कवि कि आत्मपीड़ा का विस्तार है या उस पीड़ाबोध की अभिव्यंजना है जिसकी सीमा में दाखिल होकर भाषा भी अपनी शक्ति और क्षमता खो देती है तो गलत नहीं होगा। इस कविता संग्रह में गहन पीड़ाबोध है। यह पीड़ा बोध नितान्त वैयक्तिक नहीं है बल्कि अपने समूचे सामाजिक आयामों के साथ उपस्थित है। फिर भी अनुभूति कवि कर रहा है इसलिए वह उस बोध की अभिव्यक्ति के लिए जहाँ भाषा अपर्याप्त है भाषा का संकट है वह भाषा से जिरह करता है। यही कविता की सार्थकता है।
द्वन्द और पीड़ाबोध की गहनता और व्यापकता का पाठकीय प्रबोध उनकी कविताओं में है। तीर्थगढ़ कविता में पीड़ाबोध कारूणिक भावव्यंजना के साथ है ‘‘सीढ़ी दर सीढ़ी / दर्द झरता है / जंगल में / तीर्थगढ़ के प्रपात में/ पानी बूँदों में बिखर बिखर झरता है‘‘। यह कविता बहु आयामी एवं बहुपक्षीय है। पीड़ाबोध की वास्तविक रूपाकृति इस कविता से स्वतः स्पष्ट हो जाती है। पहली बात तो ये कि कवि प्रकृति व वस्तु विन्यास के प्रति सजग है। वह खुद को नहीं प्रस्तावित करता बल्कि वस्तुविन्यास की प्रस्तावना करता है और इस विन्यास को करूणा और पीड़ा का बिम्ब देता, प्रकृति उपादान द्वारा कारूणिक टच देना कवि की बड़ी सफलता है। यहाँ करूणा कवि को अपनी हिन्दुस्तानी रीति से जोड़ देती है। बाल्मीकि ने करूणा को सामाजिक अनुभूति कहा है। तुलसी के आराध्य राम का अवतार ही करूणा के कारण हुआ वह करूणायतन कहे जाते हैं। समूचा साहित्य और लोकधर्मी चिन्तनधारा करूणा का ही विधान करती है। यहाँ कवि अपने बोध को करूणा से जोड़कर कविता की नैसर्गिक और शास्त्रीय परम्परा में खुद को बड़ी शिद्दत से जोड़ देता है। यह जोड़ना ‘‘कवि‘‘ कर्म की पहचान है। यह आलोचकीय वक्तव्य नहीं है बल्कि एक लेखक होने की सरोकारपूर्ण अभिव्यक्ति है। कविता की जमीन और मनुष्य की जमीन पृथक नहीं हो सकती आखिर कविता किसके लिए है। वह क्यों लिखी जाती है। उत्तर एक ही है मनुष्य के लिए कविता है जब समाज के उपेक्षित तबके और जनमन की पीड़ाओं पर करूणा नहीं होगी उस करूणा से कवि दुखी और चिन्तित नहीं होगा कैसे कविता लिखी जाएगी त्रिलोक महावर की कविताओं में यही सरोकार है। महावर जी का काव्य पक्ष यही है वह अपनी कविता ‘‘चाह‘‘ में लिखते हैं ‘‘टूटने से पहले/और टूटने तक/अन्तराल है निस्तब्धता का/ निपट अकेले पगडंडी पर चलते हुए/ रिस रही है एक कविता‘‘। कविता टूटने से लेकर टूटने तक की संवेदना है। यह टूटना व्यक्ति और परिवेश का पारस्परिक संघर्ष है आखिर व्यक्ति टूटता क्यों है ? जब वह अपनी नियति और परिस्थिति से थक जाता है और हार जाता है। समय की विभीषिकाएँ तथा खतरे जब व्यक्ति के समक्ष आसन्न संकट की तरह उपस्थित होते हैं जब व्यक्ति और उसका समय एक दूसरे के आमने सामने खड़े हो जाते हैं तब व्यक्ति अपने समय से टकराता है और टूटता है, थकता है, हारता और जीतता भी है ये सारी संघर्षगाथा कविता है। महावर की कविता है ‘आमने-सामने‘-बिल्कुल आमने-सामने हैं/मैं/और/मेरा वक्त/आज तलब की है/ कैफियत / मैं/कटघरे में हूँ‘‘।
कवि और वक्त का आमना सामना होने का आशय है कि कवि अपने समय से पृथक नहीं है वह वक्त के साथ चल रहा है। इसलिए पीड़ाबोध और करूणा को हम काल्पनिक विधान नहीं कह सकते है यहाँ सब कुछ काल्पनिक या मनोवैज्ञानिक यथार्थ की उपज नहीं है अपितु समय की उपज है। समय के साथ कवि की मुठभेड़ होना तथा इस मुठभेड़ के बहुआयामी प्रभाव होना खुद का कटघरे में खड़ा होना कवि की रचनात्मक इमानदारी है तथा युगीन कविता की वास्तविक अभिव्यक्ति है। कविता अतीत से नहीं बनती अतीत बोध होता है मगर अतीत ध्येय नहीं होता, अतीत ऊर्जा का स्त्रोत होता है, मगर ऊर्जा का लक्ष्य नहीं होता। भविष्य लक्ष्य होता है अनुभूति युगीन होती है तथा अतीत ऊर्जा देता है इसलिए शब्दों से परे के पीड़ाबोध को ऐतिहासिक सांस्कृतिक परम्परा के साथ समय के खिलाफ प्रतिरोध की युगीन अभिव्यक्ति कहना चाहिए।
त्रिलोक महावर वैयक्तिक चेतना के कवि हैं इसलिए उनकी कविताओं में वह सब कुछ है जो व्यक्ति अनुभव करता है व्यक्ति पर प्रभावी होने वाली ऐसी कोई संवेगात्मक विनिर्मिति नहीं है जिसे हम उनकी कविताओं में समझ सकें। मसलन प्रेम को लिया जा सकता है। महावर जी की प्रेम कविताएँ अधिक समृद्ध सटीक और पुष्ट हैं। इन प्रेम कविताओं की बड़ी विशेषता है कि वह यथार्थवादी चेतना का संवहन करते हुए अपनी भाव प्रबलता, प्रभाव और पहल में पाठक को झकझोर देती हैं। इन प्रेम कविताओं को प्रेम की शास्त्रीयता के आलोक में ही परखा जा सकता है। हिन्दी कविता में प्रेम कविताएँ दो प्रकार की रही है। पहली कोटि थी अशोक बाजपेयी के अनुकरण में लिखी गयी घोर दैहिक कविताएँ तथा दूसरी हैं केदार नाथ अग्रवाल की ‘‘हे मेरी तुम‘‘ जमुनजल तुम, जैसी लोकधर्मी कविताएँ। दैहिक प्रेम कविताओं का सामाजिक दायित्व नहीं होता न इन कविताओं की प्रभाविकता में वैचारिक आग्रह या क्रियाशीलता का विन्यास होता है। लोकधर्मी कविताओं का प्रेम गार्हस्थिक होता है, गृहस्थ की पाक साफ पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन होते हुए भी यथार्थ की कटुता व मधुरता का प्रसंगतः विधान होता है। जिसका वैचारिकता के साथ अभिप्रेय सम्बन्ध स्वतः स्थापित हो जाता है। शब्दों से परे में दूसरी कोटि की प्रेम कविताएँ हैं। इस संग्रह में कम से कम बीस कविताएँ प्रेम पर है और सब की सब गृहस्थ की सीमाओं में नैतिकता का सामाजिक उत्तरदायित्व निर्वहन करती है। प्रकृति, दर्शन, अध्यात्म, चिन्तन, गहनता, मनन, पीड़ाबोध, करूणा, सहानुभूति, बेचैनी, आवेग, मद, उन्माद, विषाद स्मृति जैसी सारी अवस्थितियाँ यहाँ प्रत्यक्षतः सक्रिय हैं । विशेषकर स्मृति सिरीज की कविताओं को इस सन्दर्भ में पढ़ा जा सकता है स्मृति के अतिरिक्त सुख के दिन, आमने सामने, तुम सामने हो, तुम्हारा होना, उसका मिलना, भींगने के पहले, कविताओं में कवि की अकुलाहट और व्याकुलता का कारूणिक वेग देखते बनता है जहाँ अनुभूति में प्रबलता और संवेदनों में मासूमियत है।
वैयक्तिक संवेदन के फार्मेट में बुनी गयी ये प्रेम कविताएँ प्रकृति और मनुष्य, चेतन और अचेतन, जड़ और जंगम, सबका सामूहन कर देती हैं-यह प्रेम का विस्तार है। यदि प्रेम कविताओं में विस्तार नहीं होता तो वह बेहद संकुचित परिधि की उथली रचनाएं होती है। यह कमी अक्सर अज्ञेय और अशोक बाजपेयी की कविताओं में है। अज्ञेय की कविताएँ उनके आत्मवादी जगत से बाहर नहीं जा सकती हैं वहाँ उनका ‘‘मैं‘‘ तत्व इतना प्रभारी है कि वह प्रेम को भी घोर वैयक्तिक बना देता है। ’मैं’ का प्रयोग त्रिलोक में भी है मगर वह अपनी निर्मिति में अज्ञेय के ’मैं’ से बिल्कुल उलट है। अज्ञेय का ’मैं’ पूँजीवादी अहं का ’मैं’ है वह निजता के अधिक निकट है या उसे निजता ही कहा जा सकता है। त्रिलोक का ’मैं’ वर्गीय ’मैं’ है। यहाँ ’मैं’ निजता का विधान नहीं करता अपितु वह ‘‘मैं‘‘ के रूप में समय के सामने डटकर खड़े एक संवर्ग का विधान करता है। यह ’मैं’ का बुनियादी अन्तर है। और यही अन्तर इन प्रेम कविताओं को वर्गी द्वन्द का आत्म संघर्षी व्यक्तित्व बना देता है। यहाॅ मैं का आत्मसंघर्ष अकेले कवि का भीतरी संघर्ष नहीं है बल्कि समूचे वर्ग का संघर्ष है। यदि ऐसा न होता तो कवि ‘‘आमने-सामने‘‘ कविता में खुद को कटघरे में खड़ा नहीं करता। उनकी एक कविता है ‘‘अस्पताल‘‘ इस कविता में अस्पताल में जाने के लिए सीढ़ी भी है और लिफ्ट भी। लिफ्ट से जाने के लिए लोग ‘‘मैं‘‘ को प्रेरित करते हैं मगर ’मैं’ अपना पक्ष पहले से तय कर चुका है वह लिफ्ट की बजाय सीढ़ी से जाना पसंद करता है। वह अपने समुदाय के साथ उन आम जन के साथ थकते गिरते ऊपर जाना चाहता है जहाँ उसका गन्तव्य है। ’मैं’ का यह चुनाव संकेत है। कवि का अपना पक्ष और अपना विकल्प है। कविता में हर बात अभिधा नहीं होती यदि हम सारी बातें अभिधा में कहते हैं तो कला और काव्यत्व का क्षय होता है लिफ्ट और सीढ़ी दोनों का विधान व्यंजनागत एवं सांकेतिक विधान है इसे कला के साथ साथ कवि की अपनी वर्गीय अवधारणा और विचारधारा से जोड़कर देखना चाहिए। शब्दों से परे में ऐसे कलात्मक व संरचनात्मक प्रयोग बहुत है इन प्रयोगों को परखते हुए महज कलावाद में ठहर जाना बड़ी चूक होगी। यहाँ समस्त अनुप्रयोग किसी न किसी पक्ष का प्रतिफलन है। इस प्रतिफलन में समस्त बिन्दु सापेक्ष है सामाजिक दायित्व, वैयक्तिक चेतना समाज विराधी तथ्वों से मुठभेड़, भयानकता के दौर में भरी दृढ़ता गम्भीरता की अभिव्यक्ति इन्हीं कलात्मक अनुप्रयोगों में चिन्हित की जा सकती है।
त्रिलोक महावर वर्तमान में श्रेष्ठ कवियों में गिनने लायक कवि है। वे प्रयोगधर्मी और जीवनधर्मी कवि है। आधुनिकता के सवालातों से मुकम्मल सम्वाद है तो बाजारवादी अवमूल्यन के खिलाफ एक सक्रिय चिन्तन हैं। यहाँ लोकतन्त्र की पैदायशी विकृतियों का आलोचनात्मक परिदृश्य है तो गुमशुदी मानवीय मूल्यों की तलाश का अभियान भी है। व्यवस्था के समक्ष बौने हो चुके आदमी की व्यथा भी है और कथा भी। यहाँ जमीन है जंगल हैं चिड़िया हैं, पत्थर हैं। नदी हैं, पेड़ हैं, स्त्री हैं और आदमी है। सबके सब अपनी अवस्थिति में सही जगह पर निबद्ध हैं। कोई भी वस्तु या विन्यास अवमुक्त नहीं है। एकदूसरे के साथ पूर्वापर सम्बन्ध में बंधे हैं। इन सम्बन्धों के बीच अपनी नियति की इकहरी मान्यताओं के विरूद्ध मुठभेड़ कर रहे हैं। उनकी कविताएँ पाठक को आज के खौफनाक परिवेश से रूबरू कराने के साथ साथ आशाओं और सपनों की ऐसी जमीन में ले जाकर खड़ा करती जहाँ आदमी ही व्यवस्था का सबसे बड़ा स्वामी हो जाता है। आदमी का मूल्य ही संवैधानिक और सैद्धांतिक मूल्य होता है। उनकी ‘सिक्के की आखिरी साँस‘ कविता दृष्टव्य है। यह कविता बाजारवादी दौर की जरूरी कविता है। भूमंण्डलीकरण और निजीकरण की तह में छिपी हुई अवमूल्यन की अमानवीय गाथा है। बाजार किसी की भावना और उसका लगाव नहीं देखता। बाजार मनुष्य और मनुष्य की भावुकता पूर्ण स्थितियाँ नहीं देखता बाजार का सम्बन्ध ऐसी किसी भी वस्तु से नहीं है जो आदमीयत के पक्ष में हो। यह कविता अवमूल्यन और समय से बहिष्कृत होने की प्रमाणिक रचना है जो वस्तु जो विचार जो संरचना बाजार के लिए उपयोगी नहीं है उसे चलन से बाहर कर दो। बाजार अपना फायदा देखता है। जो वस्तु बिकाऊ है वही चलेगी जो बिकाऊ नहीं है वह इस चलन में नहीं रहेगी। चवन्नी महज एक मुद्रा नहीं है वह इस मुल्क की हाशिए की आवाज है। उसका अपना मूल्य है अपनी गुणवत्ता है। उसके अपने रिश्ते हैं। लेकिन बाजार की नजर में उसकी मूल्यवत्ता नहीं रह गयी उसकी ढलाई उसके मूल्य से ज्यादा हो गयी और बच्चे भी कभी कभी निगल लेते हैं तो उनके लिए खतरा बन गयी है। लिहाजा चवन्नी को चलन से बाहर घोषित कर दिया जाता है। चवन्नी के आऊट आॅफ डेट होने के साथ ही उसकी अपनी अहमियत और अपनी मूल्यवत्ता भी समाप्त हो जाती है। उसके रिश्ते नाते उसकी अपनी संस्कृति और अपनी सभ्यता भी खतम हो जाती है। इस कविता में सत्ता और बाजार के मूल्यवादी सिद्धांतों पर करारा प्रहार है। यह आधुनिकता और प्रयोगात्मकता दोनों का निर्वहन करती हुई ब्यौरा प्रधान बिम्ब प्रधान लम्बी कविता है। यहाँ ब्यौरे हैं मगर अकारण नहीं है वह चरित्र की कोटि का सृजन करते हैं और ब्यौरे ही कविता का शिल्प तय करते हैं। चवन्नी जैसा आधुनिक वैचारिक और तथ्यपरक प्रयोगधर्मी करेक्टर फिलहाल हिन्दी कविता में मिलना बेहद कठिन है। इसी तरह अन्य चरित्र भी हैं। चरित्रों का होना लोकधर्मी कविताओं का तकाजा है। चरित्र ही तय करते हैं कि कविता का पक्ष क्या है ? और कवि की पक्षधरता किसके साथ है। कवि की पक्षधरता लोकधर्मी है तथा संस्थापन आधुनिक है यह बात महावर के चरित्रों से जाहिर हो जाती है। माँ, मुकद्दम की पड़ोसन, गौरेया जैसी कविताएँ समाज के विभिन्न संवर्गों और अस्मिताओं का स्पेस तय कर रही हैं। यहाँ स्त्री स्वतन्त्रता और पारिवारिक उत्तरदायित्व, तमाम रिश्तों के बीच हर व्यक्ति के लिए अपनत्व भरे स्पेस का विधान करती सैकड़ों छोटी छोटी घटनाएं, कथाएँ, बिम्ब, सब कुछ बाँध दिया गया है। अन्तहीन प्रसंगों और ब्यौरों का समावेश है। यहाँ ब्यौरे अकारण नहीं है सम्वाद सूत्र भी अकारण नहीं है सम्वाद का मूल विषय स्त्री और प्रेम – स्वतन्त्रता, पारिवारिक विघटन, सामन्ती मूल्यों की जकड़बन्दी तथा इन मूल्यों के बीच झुलस रही स्त्री की मुक्तिकामी चेतना का तर्क है। अवसाद में भी अपने भीतर के मनुष्य को सपनों के बल पर गतिशील रखते हैं इस कविता संग्रह में सपनों, स्वतन्त्रता, और स्वाभाविक सी जिजीविषा के ऐसे संसार में ले जाती है जहाँ परिवेश ही भाषा का स्त्रोत बन जाता है। जिसमें नये यथार्थ की नयी अनुभूतियों को चितान्त संवादी शिल्प में विश्वसनीय भंगिमाओं के साथ रोजमर्रा के संघर्षों से उत्पन्न असन्तोष, असहमति, सहमति, खीज, झटपटाहट, उन्माद को तमाम सन्दर्भों में व्यक्त किया गया है। लोक के मानस और व्यक्तित्व की गहरी समझ फिलहाल तथा इस समझ को काव्य में कह पाने का रचनात्मक जोखिम कवि की लोकधर्मिता का सबसे बड़ा प्रमाण है।
त्रिलोक महावर की कविताओं में युग और घटनाओं वस्तुओं के बाद सबसे अधिक विधान प्रकृति का है। ये कविताएँ प्रकृति और पर्यावरण के प्रति चिन्तन की कविताएँ हैं। महावर पुष्पों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों, नदी-जंगलों, पहाड़ों से आत्मीयता रखते हैं इसलिए इनके प्रति कारूणिक संवेदना का विधान और रचनात्मक ऊर्जा की प्राणवायु ग्रहण करते हैं। प्रकृति अनुभव की वस्तु है। इसलिए वस्तुजगत और अनुभव जगत आपस में एकाकार होकर भाषा की सृष्टि कर रहे हैं। यह बात प्रकृति सम्बन्धी कविताओं में बड़ी शिद्दत के साथ महसूस की जा सकती है। वैसे भी आजकल पर्यावरण विमर्श हाशिए पर है जबकि यह आसन्न रूप से बड़ा संकट है आदमीयत के लिए। इस पर व्यवस्था के पास आंकड़े होते हैं तो विकास नामक अभियान के पास इन आॅंकड़ों को लीलने का दम खम होता है। फिर भी प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दे पर कविता जगत में एक सीलभरी चुप्पी है। महावर अन्य साथी लोकधर्मी कवियों की तरह इस चुप्पी को तोड़ते हैं। यह काम केवल लोकधर्मी कवि कर सकते हैं और कर भी रहे हैं। त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार, विजेन्द्र, मलय, भगवत रावत, मानबहादुर सिंह, नासिर, विजय सिंह, सतीश कुमार सिंह, की लम्बी परम्परा है जो अपनी जमीन की प्रकृति के साथ हिल मिलकर आत्मीयता के साथ कविता में उपस्थित होते हैं। महावर प्रकृति के पास जाते हैं उसे देखते हैं और प्रकृति को उसके मूल स्वरूप में अवलोकित करते हुए उसके सौन्दर्य की तह तक पहुँचते हैं। जैसे प्रकृति के तमाम रंग और तमाम पक्ष होते हैं उसी तरह रंगों के अनुरूप कवि की भावभूमि भी परिवर्तित होती है परस्पर भाव गुंँथते चले आते हैं और व्यक्ति के रूप में कवि का और अस्मिता के रूप में प्रकृति का नानाविधि संसार उपस्थित करते हैं। त्रिलोक महावर की भाषा और उनके अनुप्रयोगों में प्रकृति का व्यापक हस्तक्षेप है। अधिकांश अप्रस्तुत विधान उनके आस पास की प्रकृति से लिए गये हैं। तथा सांकेतिकता, समरूपता, भावतुल्यता को एक साथ प्रस्तुत करते हुए भाषा को विविध रंगी बना कर सतर्कता के साथ बयान करते हैं। सतर्कता इसलिए कि इन कविताओं में जीवन के विभिन्न स्तर है और इन स्तरों पर गहराई के साथ कवि की उपस्थिति है इसलिए वह परत दर परत सच्चाई को अनावृत करते हैं यदि जीवन के मूलभूत सच को समझाा जाए तो दर्शन और कविता का पारस्परिक आमेलन विलयन मूलभूत सवालों से निरन्तर जूझता रहता है। विघटन महज चित्र है। अवमूल्यन यथार्थ की जरूरत है तथा भाषा लोकधर्मिता का तकाजा है असली सवाल यह है कि यहाँ मनुष्य को समष्टि और प्रकृति के साथ जोड़कर देखा गया है तथा संस्कष्ति के सद्भाव पूर्ण सहयोगी भाव प्रेम व भाईचारा को विराट आकृति देने की सफलतम कोशिश की गयी है। इसमें भी महत्वपूर्ण बात यह है कि कवि वक्त के आमने सामने है अस्तु वह किसी तरह का आवरण स्वीकार नहीं करता है वह वर्तमान को छिपाता नहीं है वह निरन्तर छूटी हुई संस्कृति के पक्ष में लहूलुहान दुनिया का वास्तविक यथार्थ सामने लाता है।
अंत में यही कहूँगा की उनकी कविताएं लोक और जन की धुरियों में भ्रमण करते हुए कवि का आत्मसंघर्ष है। कवि सघन विवेक और फंतासी का सहारा नहीं लेता वह रचनात्मक खिलदंडपन नहीं करता है। वह भाषा और शिल्प की तमाम खूबियों को वहन करता हुआ उसमें धँसकर समाज और व्यवस्था की अनगढ़ता को उजागर करता है। वह सच का सामना करता है और सच का साक्षात्कार करता है। मगर सच को पराजित नहीं होने देता उसके पक्ष में खड़ा होकर सच के आलोक में आम आदमी की रचनात्मक पड़ताल करता है।
-उमाशंकर सिंह परमार