काव्य-किरणलता वैद्य

बरगद को देखकर

याद आते हैं,
दादा जी अक़्सर।
बूढ़े बरगद को देखकर।
जिसकी लटकती
आकाशीय जड़ें,
नीचे की ओर बढ़कर,
जकड़ लेती हैं धरा को।
बनती हैं सम्बल,
बूढ़े पिता का।

पर आजकल की पौध……..! !
हो गई है जैसे,
बेशरम और मनीप्लान्ट।
जो पनपती हैं,
बड़ी तेजी के साथ।
पृथक होकर,
अपनी ही जड़ों से।
जैसे पुरातन जड़ों से,
न हो कोई सम्बन्ध
न हो कोई लगाव।

ध्यान रहे तुझे, ऐ नई पौध…….! !
ठहर ज़रा और ज़रा सोच।
मनीप्लांट ने,
पृथक रहकर,
कौन सी दौलत कमाई है ?
बेशरम मुस्काता,
निज फ़ितरत में।
उसे शोहरत,
कहाँ मिल पाई है ?
बरगद का
जीवन ही जीवन है।
क्या शाही फ़ितरत पाई है।
लुटाता प्यार, पनाह
अपनत्व और छाँह।
तभी तो दुनियाँ,
आदिकाल से,
बरगद को पूजती आई है।

श्रीमती किरणलता वैद्य
देवपुरी, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. 98265-16430